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'दो जून की रोटी' पर सियासत के चक्रव्यूह में फंसा किसान, सरकारों को 'जय जवान जय किसान' नारे की अहमियत समझने की जरूरत: डॉ राजाराम
अभी दो हफ्ते पहले पूरे देश में समाचारों में यह खबर सुर्खियों में छाई थी कि किसानों को इस साल गेहूं का " न्यूनतम समर्थन मूल्य" से भी ज्यादा बम्पर मूल्य मिल रहा है,, किसान मालामाल हुए जा रहे हैं, वगैरह वगैरह। और 13 मई को गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध की घोषणा के बाद आज किसानों का वही गेहूं 300 से 500 रूपए नीचे गिर कर, न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बिक रहा है। व्यापारिक भाषा में कहें तो सीधे-सीधे किसान के गेहूं का मूल्य 25 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक गिर गया। इसका मतलब यह कि, जो बेचारे किसान अभी तक अपना गेहूं नहीं बेच पाए थे, उन्हें अपनी फसल की मूल लागत भी नहीं मिल पा रही है। क्या यह सब बेवजह और अनायास है ? या फिर यह एक सोची-समझी सियासती चाल है,जिसका खामियाजा देश के किसानों को, उपभोक्ताओं को,और फिर आगे चलकर पूरे देश को भुगतना पड़ेगा?
इस घटनाक्रम को समझने के लिए हमें इसी मार्च से लेकर अब तक के गेहूं के मूल्य , उसकी शासकीय खरीदी, तथा गेहूं के निर्यात से जुड़े सरकार के वक्तव्यों तथा घोषणाओं पर तिथि वार विचार करना होगा।
08 मार्च -को कहा गया कि रूस और यूक्रेन युद्ध के कारण गेहूं की मांग बढ़ी है, इसलिए सबसे अच्छे गेहूं का निर्यात करने के मौके का फायदा उठायें।
16 मार्च को अधिकारियों ने कहा कि भारत गेहूं के निर्यात पर रोक नहीं लगाने वाला है ।
13 अप्रैल को माननीय पंतप्रधान का वक्तव्य आया कि, विश्व व्यापार संगठन अर्थात डब्ल्यूटीओ इजाजत दे तो हम दुनिया को खिला सकते हैं;
05 मई को कहा गया कि सुनिश्चित कीजिए कि भारत दुनिया के लिए अच्छे अनाज का स्रोत बने;
12 मई को देश को बताया गया कि, गेंहूं का निर्यात बढ़ाने के लिए भारत 9 देशों में निर्यात प्रतिनिधिमंडल भेजेगा।
और अचानक रातों-रात उपरोक्त सारे बयानों से पलटी मारते हुए,,,,
13 मई को भारत ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। और फिर जैसी की संभावना थी, भारत सरकार के गेहूं के एक्सपोर्ट (निर्यात) पर रोक लगाने के बाद विदेशी बाजारों में गेहूं की कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई। गेहूं की कीमत यूरोपीय बाजार में 435 यूरो ($ 453) (35,282.73 भारतीय रूपए) प्रति टन हो गई।
अब यह जानने के लिए कोई अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है कि, अगर डॉलर का भाव बढ़ता है,और रुपया गिरता है तो निर्यातकों को फायदा होता है। और यदि रुपये का मूल्य गिर रहा है और डॉलर का भाव बढ़ रहा है,और इस स्थिति में यदि निर्यात को यकायक रोक दिया जाता है, तो इसमें फायदा चाहे जिसे का हो, पर घाटा तो निश्चित रूप से हमारे देश का ही होने जा रहा है ।
अगर आंकड़ों की बात करें तो खाद्यान्नों के भंडार 636.14 लाख टन होते हुए भी केंद्र सरकार ने विदेश व्यापार (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1992 का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करते हुए देश की खाद्य सुरक्षा के नाम पर गेहूं के निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया है, इससे सीधे-सीधे देश के गेहूं के बहुसंख्य किसानों की जेब कटी है। प्रतिबंध की घोषणा होते ही गेहूं के दाम तेजी से गिरे हैं, और गिरते ही जा रहे हैं। अब यह तो तय है कि इस सीजन के शेष गेहूं के किसानों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी प्राप्त नहीं होने वाला। ऐसा भी नहीं है कि इस निर्णय से गेहूं के आटे की कीमत में कोई कमी आई हो, और इससे आम उपभोक्ता को कोई राहत मिलने वाली हो। महानगरों में 30 किलो मिलने वाला आटे का भाव आज ₹ 40 प्रति किलो हो गया है। इसका तात्पर्य है कि, निर्यात पर रोक से देश के व्यापारियों को कोई घाटा नहीं होने वाला । वह तो देश में ऊंचे मूल्य पर यह गेहूं , आटा बेचकर अपना तगड़ा मुनाफा सुनिश्चित ही रखेगें । हर हाल में मरना तो किसानों को और उपभोक्ताओं को ही है। इसीलिए "न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी कानून" लाना अब देश के किसानों तथा उपभोक्ताओं के हित में बहुत जरूरी हो गया है।
निर्यात पर प्रतिबंध से किसानों के हितों के अलावा वैश्विक बाजार में भारत की विश्वसनीयता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सरकार अक्सर देश के उपभोक्ताओं के हितों के नाम पर ऐसे खेल खेलती है और सरकार की वैश्विक बाजार में विश्वसनीयता को लेकर दीर्घकालिक दृष्टिकोण नहीं अपनाती है, जिससे ग्लोबल मार्केट में व्यापार वायदों तथा प्रतिबद्धता को लेकर हमारी छवि धूमिल होती है, और इसका परिणाम हमारे विदेश व्यापार पर भी पड़ता है। चेंबर ऑफ इंडियन फूड एंड एग्रीकल्चर के चेयरमैन डॉक्टर एमजे खान कहते हैं कि, हमारे पास देश को 12 मिलियन मीट्रिक टन के रणनीतिक बफर स्टॉक की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में गेहूं संचित है। कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार घरेलू बाजार में 50 लाख मीट्रिक टन या इससे अधिक जारी कर सकती है , परंतु गेहूं निर्यात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना हानिकारक होगा। इस तरह से देखा जाए तो गेहूं के निर्यात पर अचानक प्रतिबंध का निर्णय दोधारी तलवार साबित हो सकता है,एक और तो जहां इससे देश के करोड़ों किसानों को भारी नुक्सान उठाना पड़ रहा है, वही देश के विदेश व्यापार को भी निश्चित रूप से घाटा होगा।
देश में पहली बार गेहूं तथाकथित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ रूपए ऊपर बिकने लगा। जिसके बारे में हमारा आज भी दावा है कि यह घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य, फसल की वास्तविक समस्त कृषि लागत ( स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुसार सीटू प्लस,) के आधार पर नहीं तैयार किया गया है, और इसलिए यह न्यायोचित, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं है, बल्कि उससे 25 से 35% तक कम है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस वर्ष मौसम में आए बदलाव तथा बढ़ी गर्मी की वजह से गेहूं के दाने छोटे रह गए जिसके कारण किसानों को उत्पादन में प्रति एकड़ लगभग 5 से 7 क्विंटल का घाटा भी उठाना पड़ा है। इस तरह से किसान पहले ही टूट चुका है। और अब गेहूं के मूल्य नीचे गिरने से इस बार दोहरी मार पड़ रही है।
निर्यात की प्रत्याशा में गेहूं की तेज लेवाली की वजह से, देश के कुछ हिस्सों के कुछ किसानों को उनके गेहूं का घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ रूपए ज्यादा मिले, परंतु सोची समझी रणनीति के तहत पूरे देश में ऐसा हल्ला मचाया गया, मानो किसानों ने कोई खजाना लूट लिया, अथवा किसानों के घरों में सोने की बारिश हो गई।
यहां समझने वाली बात यह भी है कि जब किसानों की उगाई दाल समर्थन मूल्य ₹55 होने के बावजूद खुलेआम ₹35 में बिकती है, और किसान खून के आंसू रोते हैं, अथवा जब टमाटर और साग सब्जियों का मूल्य कौड़ी के दाम हो जाने के कारण उन्हें गाढ़े पसीने की कमाई अपने उत्पादन को छाती पर पत्थर रखकर सड़कों पर फेंकना पड़ता है,या फिर फसल खराब होने के कारण किसान अपना सब कुछ गंवा कर सड़क पर आ जाता है, तब न तो सरकार के कान पर जूं रेंगती और ना ही ये खबरें मीडिया में कोई खास तवज्जो पाती हैं। मुझे हालिया किसान आंदोलन के दिनों में सरकार के एक स्वनामधन्य बड़के नेता की वह गर्वोक्ति याद आती है, कि देश के किसानों को गरज है तो गेहूं उगाएं, अथवा ना उगाएं। अगर यह किसान गेहूं नहीं भी उगाते तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हम ऑस्ट्रेलिया/ विदेश से इन किसानों से भी सस्ते दर पर यह गेहूं मंगा सकते हैं। ऐसे बड़बोले नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए, कि क्या सचमुच आप देश की एक अरब 30 करोड़ जनसंख्या को आज यूरोपीय बाजार से मूल्य पर गेहूं खरीद कर दो चार साल खिला सकते हैं , अथवा 80 करोड़ लोगों को विदेश से खाद्यान्न आयात कर मुफ्त राशन बांट सकते हैं?
निश्चित रूप से बहुमत के सत्ता मद में चूर सरकार, हालिया किसान आंदोलन तथा तीनों कानूनों की वापसी के कारण किसानों से भीतर ही भीतर नाराज है,और सरकार को झुकाने वाले देश के कृषक समुदाय को सबक सिखाने की भी मंशा रखती है। आंदोलन में सक्रिय रहे किसान नेताओं के खिलाफ बदले की भावना से सरकारी एजेंसियों के द्वारा कई तरह से जांच तथा कार्यवाहियों के जरिए उन्हें प्रताड़ित भी किया जा रहा है। यह गलतियां सरकार को भारी पड़ने वाली हैं। यह ना भूलें कि किसानो को बदनाम करने, उन्हें खलनायक साबित करने की कोशिशें और उन्हें प्रकारांतर प्रताड़ित करने वाले ऐसे निर्णय देश के दूरगामी हित में नहीं होंगे और आत्मघाती साबित हो सकते हैं। यह तो वैसा ही होगा, जैसे कोई जिस डाल पर बैठा है,अकारण उसे ही काट डाले। यदि सरकार किन्हीं अपरिहार्य कारणों से देश के तात्कालिक अथवा दूरगामी हित में ऐसे निर्णय लेने हेतु बाध्य है, तो ऐसे निर्णय लेने के पूर्व उसे देश के किसानों, किसान संगठनों तथा इससे संबद्ध सभी पक्षों से बातचीत कर सबको विश्वास में लेना चाहिए।
आखिर देश के किसान भी अपने देश से अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते हैं। इतिहास गवाह है कि देश हित में किसानों ने हमेशा अनगिनत कुर्बानियां दी हैं, हर दुख सह कर भी हमेशा देश का न केवल पेट भरा है बल्कि जब जब देश पर संकट आया है, देश का किसान अपना सब कुछ न्योछावर करने में आगे रहा है, सरहदों पर लड़ने वाले और शहीद होने वाले रणबांकुरे इस देश के किसानों के ही बेटे हैं। सरकारों तथा उनके नुमाइंदों को इस देश के जनमत के सबसे लोकप्रिय और जरूरी नारे "जय जवान जय किसान" को कभी नहीं भूलना चाहिए।