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फादर स्टेन स्वामी का निधन, प्राण तब निकले जब उनकी जमानत पर चल रही थी सुनवाई, जानें कौन थे ये ?
बहुत दुखद समाचार भीमाकोरगांव केस में यू ए पी ए के तहत महाराष्ट्र में जेल में बंद रांची के फादर स्टेन स्वामी का निधन हो गया। वे दो दिन से वेंटिलेटर पर थे। वे लंबे समय से बीमार थे और अदालत के आदेश के बाद ही उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया था। 84 साल के स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए सिपर देने तक का एनआईए ने विरोध किया था।फादर स्टेन के प्राण तब निकले जब उनकी जमानत पर सुनवाई चल रही थी हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान स्टेन स्वामी के वकील ने कहा कि बड़े भारी मन से कोर्ट को सूचित करना पड़ रहा है कि फादर स्टेन स्वामी का निधन हो गया है। बता दें कि पुणे स्थित भीमा कोरेगांव में एक जनवरी 2018 को दलित समुदाय के लोगों का एक कार्यक्रम हुआ था।
इस मामले में एक अन्य बुजुर्ग वरावरा राव हैं जिनाक इलाज चल रहा है। सुधा भारद्वाज भी बुरीे स्वास्थ्य से जूझ रही हैं। दुर्भाग्य है कि इतने कमजोर मामले में लीगल टीम बेहतर तरीके से काम नहीं कर पा रही है और आज एक निर्दोष को जेल में अपनी जान गंवानी पड़ी।
फादर स्टैन स्वामि एक बुज़ुर्ग पादरी थे जो पिछले पांच दशकों से आदिवासी मुद्दों पर काम करते रहे हैं। उन्हें 8 अक्टूबर, 2020 की रात में बदनाम भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद षडयंत्र प्रकरण में गिरफ्तार किया गया। एक सच्चे कार्यकर्ता और प्रतिष्ठित विद्वान की इस गिरफ्तारी की डब्लूएसएस भर्त्सना करता है और बताना चाहता है कि इस दयालु व विनम्र व्यक्ति के खिलाफ लगाए सारे आरोप हास्यास्पद हैं। हम बताना चाहते हैं कि 1 जनवरी, 2018 के दिन हुई भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच दरअसल देश के अग्रणि मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को सताने का एक ज़रिया बन गई है। इस जांच के दौरान 15 अन्य वकीलों, कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों को इसी तरह के बेतुके आरोपों में बंदी बनाया गया है। कुछ तो दो साल से भी अधिक अवधि के लिए कारागार में बंद रहे हैं।
फादर स्टैन स्वामि मूलत: तमिलनाड़ु के त्रिची से थे । वे एक युवा पादरी के रूप में झारखंड आए थे ताकि आदिवासी लोगों की समस्याओं को समझ सकें। दो साल तक वे झारखंड के पूर्वी सिंहभूम ज़िले के एक आदिवासी गांव में रहे। इस दौरान उन्होंने आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक हालात, उनके समुदायों और मूल्यों, तथा शोषण की उस व्यवस्था पर शोध किया जो उन्हें जकड़े हुए है। बैंगलुरु के इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में 15 साल सेवा देने, जिस दौरान 10 साल वे इंस्टीट्यूट के निदेशक भी रहे, के बाद वे एक बार फिर झारखंड लौटे।
झारखंड में वे झारखंड ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर ह्यूमन राइट्स (जोहार) से जुड़ गए तथा झारखंडी ऑर्गेनाइज़ेशन अगेन्स्ट युरेनियम रेडिएशन (जोअर) के साथ भी काम किया। जोअर युरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड की वजह से हो रहे पर्यावरण विनाश तथा निर्धनीकरण के विरुद्ध काम करता है। वे रांची में बगाइचा केंद्र की स्थापना में भी शामिल रहे – यह आदिवासी युवाओं के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र है तथा साथ ही हाशियाकृत आबादियों की कार्य योजनाओं पर अनुसंधान व सहयोग का केंद्र भी है।
झारखंड में फादर स्टैन के काम के दो प्रमुख क्षेत्र रहे और दोनों ने ही उन्हें केंद्र सरकार द्वारा रक्षित शक्तिशाली हितों के खिलाफ खड़ा कर दिया। उनके काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उस कॉर्पोरेट-राज्य गठबंधन को चुनौती देना रहा है जो आदिवासियों के पारंपरिक स्रोतों की लूट-खसोट करता है। झारखंड एक खनिज समृद्ध प्रांत है। देश के 40 प्रतिशत खनिज संसाधन यहीं हैं। फिर भी इसकी 39 प्रतिशत आबादी, ज़्यादातर आदिवासी, गरीबी रेखा से नीचे जीती है। प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की दौड़ में अक्सर राज्य की मशीनरी आदिवासियों के खिलाफ खड़ी होती है। आदिवासियों को विस्थापन तथा और निर्धनीकरण का डर सताता है।
इस संदर्भ में फादर स्टैन स्वमि ने उन कानूनों की पैरवी की जो भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची के धरातल पर टिके हैं। इनके अंतर्गत आदिवासी क्षेत्रों को कुछ स्वायत्तता तथा स्व-शासन का आश्वासन दिया गया है। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि झारखंड में पेसा (पंचायती राज – अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम, 1996) सम्बंधी नियम ही नहीं हैं, जिसकी वजह से इस अधिनियम का क्रियांवयन असंभव हो गया है।