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अफगानिस्तान में नई सरकार का गठन : पश्तून, ताजिक, उज़बक, हज़ारा कौन कितना अहम!
माजिद अली खां
एक बहु भाषाई और बहुनस्लीय समाज होने की वजह से अफगानिस्तान में ऐसे सियासी निजाम की स्थापना हमेशा एक चुनौती रही है जो सभी वर्गों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता हो. तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तमाम पक्षों को साथ में लेकर सरकार के गठन की बात कर रहे हैं. अमेरिका समेत सभी पश्चिमी देश अफगानिस्तान में हर वर्ग को हकूमत में शामिल करने पर जोर दे रहे हैं. तालिबान अफगानिस्तान में तमाम पक्षों को शामिल कर जिस हकूमत के कयाम की बात कर रहे हैं उसके क्या तौर तरीके होंगे और उसमें क्या मुश्किलें आ सकती हैं इस बारे में कई विश्लेषण और अनुमान सामने आ रहे हैं. विशलेषणकर्ताओं के मुताबिक अफगानिस्तान में सामाजिक स्तर पर कबीलाई, भाषाई, नसली पहचान अहमियत रखती है और राजनीतिक स्तर पर भी इनकी पहचान की हैसियत है.
काबुल में तालिबान के कब्जे के बाद पाकिस्तान आने वाले ताजिक नेता और पूर्व विदेश मंत्री सलाहुद्दीन रब्बानी ने वॉइस ऑफ अमेरिका के प्रतिनिधि अयाज गुल को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि अफगानिस्तान ऐसा देश है जिस पर कोई एक समूह हकूमत नहीं कर सकता या कोई एक गिरोह तन्हा वहां शांति और व्यवस्था कायम नहीं कर सकता. इनका यह भी कहना था कि अगर तालिबान तमाम वर्गों को साथ लेकर सरकार के गठन का वादा पूरा नहीं करते तो वह सत्ता पर अपनी गिरफ्त नहीं रख पाएंगे. अफगानिस्तान में नयी हकूमत की स्थापना से पहले वहाँ मौजूद भाषाई और नस्ली समूहों के बारे में तथ्य सामने रखने चाहिए.
अफगानिस्तान में कौन-कौन शामिल हैं?
अमेरिका से ताल्लुक रखने वाले अफगान मामलों और राजनीति के माहिर ब्रिंट रियुबिन के मुताबिक आमतौर पर अफगान शब्द सिर्फ पश्तून या पख्तूनों के लिए बोला जाता था लेकिन 1923 के बाद अफगानिस्तान में बनने वाले हर संविधान में अफगानिस्तान के तमाम नागरिकों को अफगान करार दिया. इस तरह अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत के खात्मे के बाद 2004 में बनने वाले संविधान के मुताबिक अफगानिस्तान की नागरिकता रखने वाले हर व्यक्ति को अफगान कौम का हिस्सा करार दिया गया. इसमें यह भी साफ कर दिया गया कि अफगानिस्तान राष्ट्र पश्तून, ताजिक, हज़ारा, उज़बक, अरब, तुर्कमान, बलोच, पशाई, नूरिस्तानी, ऐमक, करग़ज़, गुर्जर, बराहवी व अन्य कबीलों और भाषाई समूहों पर आधारित है और इन सब पर अफगान शब्द लागू होता है
जनगणना के आंकड़े
अफगानिस्तान में सरकारी स्तर पर 1979 तक कोई जनगणना नहीं की गई थी. 1979 में पहली बार जनगणना हुई. इससे पहले कुछ बड़े शहरों में ही जनसंख्या के आंकड़े जुटाए जाते थे. तालिबान की हुकूमत के खत्म होने के बाद 2008 में जनगणना की कोशिश की गई लेकिन देश की परिस्थितियों की वजह से सफलता नहीं मिली. इसके बाद 2013 में भी जनसंख्या के बारे में आंकड़े जमा किए गए. विश्व बैंक के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक अफगानिस्तान की आबादी तीन करोड़ 89 लाख से ज्यादा है. विभिन्न स्रोतों के मुताबिक अफगानिस्तान में 42 फीसदी आबादी पश्तून है जबकि दूसरा सबसे बड़ा नस्ली समूह ताजिक है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन "माइनॉरिटी राइट्स" के अनुसार अफगानिस्तान की आबादी में 27 फीसद ताजिक हैं. इसी तरह हजारा और उजबक 9-9 फीसदी हैं. तुर्कमान 3, बलोच 2 और अन्य नस्ली और भाषाई समूह जनसंख्या का 8 फीसदी है. माइनॉरिटी राइट्स के मुताबिक अफगानिस्तान की 50 फीसदी आबादी के भाषा दरी(प्राचीन फारसी) है. 35 फीसदी की भाषा पशतो है. अन्य भाषाओं में ऐमक, बिलोची, अशगून, गूजरी, हजारगी, मुगली, पशई, नूरिस्तानी और पामेरी भाषाएं शामिल हैं. इस गैर सरकारी संगठन के अनुसार अफगानिस्तान की 99 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम है जिनमें 84 से 89प्रतिशत सुन्नी और 10 से 15 फीसद शिया दूसरी विचारधारा के लोग हैं. इसके अलावा बहुत कम संख्या में सिख और हिंदू आबादी भी है जबिक यहां बसने वाले यहूदी इसराइल पलायन कर चुके हैं.
अफगानिस्तान की बुनियाद रखने वाले पश्तून
सन 1747 में इस इलाके में अफगानिस्तान की बुनियाद रखने वाले अहमद शाह दुर्रानी भी पश्तून कबीलों के सरदार थे. इनके बाद यहां के अक्सर राजा और हकूमतें भी पझतूनों के पास रही. 20 वर्ष बाद दूसरी बार काबुल का कंट्रोल हासिल करने वाले तालिबान का केंद्रीय नेतृत्व भी पशतूनों के हाथ में है और इससे पहले उनकी सत्ता छिनने के बाद बनने वाले राष्ट्रपति हामिद करज़ई और अशरफ गनी दोनों पशतून थे. सोवियत रूस के खिलाफ संघर्ष में पशतूनों की भूमिका सबसे अहम थी. ब्रिंट रयूबिन की किताब "अफगानिस्तान: व्हाट एवरी मैन नीड टू नो अबाउट अफ़गानिस्तान" मैं लिखते हैं कि वस्तुओं में पितृसत्तात्मक कबायली व्यवस्था बड़ी हद तक आज भी कायम है. पेशावर से काबुल और काबुल के दक्षिण से बलूचिस्तान इसके बाद पश्चिम में हेरात क्षेत्रों में इनकी बहुसंख्या आबाद है.
दूसरा बड़ा नसली समूह
अफगानिस्तान में दूसरा बड़ा नस्ली समूह ताजिक है. देश की एक चौथाई आबादी इन्हीं पर आधारित है. पशतूनों की तरह इनकी बहुसंख्या भी सुन्नी मुसलमान है और इनकी जबान दरी है. यह ज्यादातर अफगानिस्तान के उत्तर की पहाड़ी श्रंखला पंजशेर और बदखशां के राज्यों में आबाद हैं. इसके अलावा हेरात, काबुल व मजार शरीफ में भी इनकी आबादी है. अफगानिस्तान के संक्षिप्त इतिहास का संकलन करने वाली अमेंडा रोरबेक के मुताबिक वर्तमान समय में अहमद शाह मसूद पसंदीदा ताजिक लीडर थे. 1996 में उन्होंने तालिबान के खिलाफ उत्तरी मोर्चा बनाया था. 2001 में 9/11 के हमलों से दो रोज पहले 9 सितंबर को इनका का कत्ल हो गया था. तालिबान से पहले अहमद शाह मसूद सोवियत यूनियन के खिलाफ संघर्ष करने वाले बहुत अहम कमांडरों में गिने जाते थे. अफगानिस्तान के इतिहास पर अपनी किताब "अफगानिस्तान इन ए नटशेल" में रोरबेक लिखती हैं कि हालांकि 1929 में अफगानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान एक ताजिक हबीरबुल्लाह ककानी कुछ महीनों के लिए अफगानिस्तान के शासक रहे जिन्हें "बच्चा सक्का" के नाम से जाना जाता है. आमतौर पर अफगानिस्तान की राजनीति व सरकार में ताजिकों की भूमिका दूसरे नंबर पर रही है. लेकिन 2002 में बनने वाली सरकार में इनकी भूमिका ज्यादा अच्छी रही. इसके बाद 2004 में होने वाले संसदीय चुनाव में पशतूनों ने अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन सभी नस्ली समूहों को प्रतिनिधित्व देने के लिए अहमद शाह मसूद के छोटे भाई ज़िया मसूद को उपराष्ट्रपति बनाया गया.
अफगानिस्तान का तीसरा बड़ा नस्ली समूह हजारा है जो 13वीं सदी में अफगानिस्तान में आबाद हुआ और देश के मध्य क्षेत्रों में इनकी आबादियां हैं. इनकी बहुसंख्या शिया है. हजारा ने भी सोवियत रूस के खिलाफ युद्ध में बहुत बहादुरी के साथ लड़ाई की. हजारा को ईरान का समर्थन मिलता रहा है. इनके अलावा अफगानिस्तान में सबसे बड़ा भाषाई समूह उज़बक है जो तुर्कभाषा बोलता है. उजबक कबीले के सबसे बड़े कमांडर अब्दुल रशीद दोस्तम हैं जो सोवियत रूस के साथ हुए युद्ध में बहुत मजबूती के साथ लड़ा करते थे. तालिबान के खिलाफ भी अब्दुल रशीद दोस्तों ने बहुत युद्ध किए हैं. अब्दुल रशीद दोस्तों हामिद करजई सरकार और अशरफ गनी के साथ भी सरकार में शामिल रहे हैं.
तमाम पक्षों की सरकार का गठन लेकिन कैसे?
हालांकि तालिबान सभी पक्षों को साथ लेकर सरकार के गठन की तैयारी कर रहे हैं लेकिन इसका प्रारूप कैसा होगा यह भी अभी तय नहीं है . एक तालिबान के नेता ने इंटरव्यू में बताया कि लोकतंत्र की जड़ें अफगानिस्तान में नहीं हैं. इस तालिबान नेता के अनुसार एक परिषद बनाई जाएगी जो जाएगी अफगानिस्तान की सरकार को संचालित करेगी जिसमें सभी भगवान समूह को शामिल किया जाएगा. अब देखना यह है कि तालिबान सभी पक्षों को कैसे साथ लेकर चल पाएंगे.