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जर्मनी को अपना गैस भंडार भरने में दिक्कत हो रही है, क्योंकि यूक्रेन युद्ध के कारण रूस ने गैस की सप्लाई में कटौती कर दी है. इन हालात से निपटने के लिए कई विकल्पों पर विचार हो रहा है. इनमें से एक कोयले से बिजली बनाना भी है. जर्मनी के आर्थिक नीति मंत्री रॉबर्ट हाबेक ने हाल में अपनी मौजूदा ऊर्जा नीति को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ एक तरह की रस्साकशी करार दिया था. उन्होंने कहा कि ऊर्जा के मामले में पुतिन का दबदबा हो सकता है, लेकिन कोशिश करें, तो "हम भी ऐसा कर सकते हैं".
हाबेक का संबंध जर्मनी की ग्रीन पार्टी से है, जिसके लिए पर्यावरण संरक्षण सबसे अहम मुद्दों में शामिल है. ग्रीन पार्टी अक्षय ऊर्जा संसाधनों पर जोर देती है, इसीलिए हाबेक के लिए मौजूदा हालात कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं. यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए. जवाब में रूस ने यूरोप को गैस की आपूर्ति धीमी कर दी. इसी वजह से जर्मनी की ऊर्जा सुरक्षा खटाई में पड़ गई. जर्मनी 1 अक्टूबर तक अपने गैस भंडारों को 80 फीसदी तक भर देना चाहता है और नवंबर तक 90 फीसदी, ताकि वह सर्दी के महीनों में गैस की मांग को पूरा कर सके. अभी ये गैस स्टोर 57 प्रतिशत भरे हैं. हाबेक चाहते हैं कि जितना संभव हो, गैस की बचत की जाए और उसका इस्तेमाल बिजली बनाने में हो सके.
जर्मनी में अभी जितनी बिजली बनाई जाती है, उसमें से 16 प्रतिशत गैस से बनती है. इसमें अक्षय ऊर्जा स्रोतों, खासकर पवन और सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली 42 प्रतिशत है, जिसे अचानक बढ़ाना संभव नहीं है. कोयले से चलने वाले मौजूदा पावर प्लांट भी एक विकल्प है, जिनकी संख्या देशभर में 151 है. ये अभी भी चालू अवस्था में हैं. हालांकि, सरकार उन्हें 2038 तक बंद करना चाहती है. यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले जर्मनी की नई गठबंधन सरकार ने तय किया था कि वह 2030 तक ही कोयले का इस्तेमाल बंद करना चाहती है. लेकिन, अब ऊर्जा नीति पर उसे यू टर्न लेने को विवश होना पड़ रहा है. फिर भी सरकार जोर देकर कह रही है कि इसका यह मतलब नहीं है कि वह कोयले का इस्तेमाल बंद नहीं करना चाहती. अब संसद में एक नया बिल लाने की तैयारी हो रही है, जिसमें बिजली बनाने के लिए ज्यादा कोयला इस्तेमाल करने की बात शामिल है, ताकि रिजर्व पावर प्लांट्स की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जा सके. ये प्लांट आमतौर पर ग्रिड को स्थिर बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं और इन्हें अगले कुछ सालों में बंद किया जाना था.
जर्मनी ने अपनी आखिरी कोयला खदान 2018 में बंद कर की थी. उसके बाद से वह अपनी जरूरत के लगभग आधे जीवाश्म ईंधनों के लिए रूस पर ही निर्भर है. कोयला आयातक संघ के बोर्ड चेयरमैन आलेक्जांडर बेथे ने एक बयान में कहा, "रूस से आने वाले कोयले की जगह कुछ ही महीनों के भीतर दूसरे देशों से आने वाला कोयला ले सकता है. खासकर अमेरिका, कोलंबिया और दक्षिण अफ्रीका से आने वाला कोयला." जर्मन संसद में कोयले के बिल पर 8 जुलाई को मतदान होगा, लेकिन जर्मन सरकार ने साफ किया है कि जर्मनी में जीवाश्म ईंधनों के फिर से इस्तेमाल की अनुमति सिर्फ मार्च 2024 तक ही होगी. तब तक जर्मनी रूसी गैस की सप्लाई घटाकर 10 प्रतिशत पर लाना चाहता है, जो युद्ध शुरू होने से पहले 55 प्रतिशत थी और अभी लगभग 35 प्रतिशत. लेकिन सिर्फ कोयले के इस्तेमाल से जर्मनी की ऊर्जा समस्याएं दूर नहीं होंगी. ऐसे में एक विकल्प है परमाणु ऊर्जा. कोयले के मुकाबले कहीं ज्यादा ईको फ्रेंडली मानी जाने वाली परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल से जर्मन अधिकारी भी इनकार कर रहे हैं और न्यूक्लियर ऑपरेटर भी. जर्मनी अपने बाकी बचे तीन परमाणु प्लांट्स को इस साल के आखिर तक बंद करना चाहता है.
आरडब्ल्यूई एनर्जी कंपनी के सीईओ मारकुस क्रेबर ने कहा है कि वापस परमाणु ऊर्जा की तरफ नहीं लौटा जाएगा. हाबेक का कहना है कि फिर से कोयले का इस्तेमाल 'एक कड़वा फैसला' है, लेकिन उन्होंने कहा कि यह मौजूदा हालात में जरूरी हो गया है, ताकि गैस का इस्तेमाल घटाया जा सके. इसके लिए जर्मनी गैस के इस्तेमाल में भी कटौती करना चाहता है. इससे जो भी गैस बचेगी, उसे लंबे समय के लिए स्टोर किया जा सकता है. यही नहीं, सरकार ने लोगों से अपने घरों में गैस बचाने को भी कहा है. जैसे वे आने वाले महीनों में अपने घरों में हीटिंग बंद कर सकते हैं और ज्यादा गर्म पानी से न नहाएं. हालांकि, इस तरह के कदम को लेकर विवाद भी हुआ. जर्मनी ऊर्जा की किल्लत को दूर करने के लिए कई कदम उठा रहा है. हालांकि, इतना साफ है कि रूस की तरफ से की गई कटौती का विश्वसनीय विकल्प तलाशना आसान काम नहीं है. रूसी गैस अभी भी जर्मनी में आ तो रही है, लेकिन इसकी आपूर्ति जरूर कम हुई है.