अंतर्राष्ट्रीय

भारत के महान क्रांतिनायक भगत सिंह

Shiv Kumar Mishra
28 Sept 2024 11:28 AM IST
भारत के महान क्रांतिनायक भगत सिंह
x
India's great revolutionary Bhagat Singh

अरविंद जयतिलक

भारत के महान क्रांतिनायक भगत सिंह के जीवन की अनेक ऐसी बातें हैं जो देश के युवाओं को राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा से भर देती है। 23 वर्ष की उम्र में ही भगत सिंह ने अपने लेखन और राष्ट्रभक्ति के बरक्स एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया जिससे दशकों तक भारत की युवा पीढ़ी प्रेरणा लेती रहेगी। भगत सिंह ने अपनी गरिमामय शहादत और आंदोलित विचारों से देश-दुनिया को संदेश दिया कि क्रांतिकारी आंदोलन के पीछे उनका मकसद अंध राष्ट्रवाद नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना थी। हालांकि यह त्रासदी है कि आजादी के चार दशक बाद तक भगत सिंह के विचार और उनसे जुड़े दस्तावेज देश के आमजन तक नहीं पहुंच पाए और देश की युवा पीढ़ी उनके आंदोलित व राष्ट्रवादी विचारों से अपरिचित रही। भगत सिंह के विचारों और क्रांतिकारिता को समझने के लिए जेल के दिनों में उनके लिखे खतों और लेखों को पढ़ना-समझना आवश्यक है। उन खतों और लेखों के माध्यम से समझा जा सकता है कि भगत सिंह रक्तपात के कतई पक्षधर नहीं थे। वे और उनके साथियों ने पुलिस सुपरिटेण्डेंट स्कॉट को निशाना तब बनाया जब 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन के दौरान प्रदर्शन में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों पर ब्रिटिश हुकुमत ने लाठियां बरसायी जिसमें लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हुए और अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए। भगत सिंह समाजवाद और मानववाद के पोषक थे और इसी कारण उन्होंने ब्रिटिश हुकुमत की भारतीयों के प्रति शोषण की नीति का विरोध किया।

भारतीयों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध लाजिमी था ठीक उसी तरह जिस तरह एक महान देशभक्त का होता है। भगत सिंह कतई नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश संसद से मजदूर विरोधी नीतियां पारित हो। उनकी सोच थी कि अंग्रेजों को पता चलना चाहिए कि हिंदुस्तानी जाग चुके हैं और वे अधिक दिनों तक गुलामी के चंगुल में नहीं रह सकते। उन्होंने अपने विचारों से अंग्रेजों को यह बात समझानी चाही लेकिन अंग्रेज समझने को तैयार नहीं थे। तब उन्होंने अपनी बात उन तक पहुंचाने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को अपने साथी क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त से मिलकर ब्रिटिश सरकार की केंद्रीय असेंबली में बम फेंका। उन्होंने यह बम खाली स्थान पर फेंका ताकि किसी को नुकसान न पहुंचे। बम फेंकने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाए और पर्चे फेंके। बम फेंकने का मकसद खून-खराबा करना नहीं था। उन्होंने कहा भी कि ‘यदि बहरों को सुनना है तो आवाज को बहुत जोरदार होना होगा, जब हमने बम गिराया तो हमारा ध्येय किसी को मारना नहीं था, हमने अंग्रेजी हुकुमत पर बम गिराया था, अंग्रेजों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आजाद करना चाहिए।’ उल्लेखनीय तथ्य यह कि बम गिराने के बाद वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन उन्होंने भागना स्वीकार नहीं किया। बल्कि बहादुरी से गिरफ्तारी दी।

सच कहें तो भगत सिंह ने यह साहस दिखाकर अंग्रेजों को समझा दिया कि एक हिंदुस्तानी क्या-क्या कर सकता है। उनका यह साहस दर्शाता है कि वे शांति के पैरोकार थे और हिंसा में उनका विश्वास रंचमात्र भी नहीं था। उन्होंने अपनी क्रांतिकारिता को रेखांकित करते हुए कहा भी है कि ‘जरुरी नहीं था कि क्रांति में अभिशप्त संघर्ष शामिल हो, यह बम और पिस्तौल का पंथ नहीं था।’ भगत सिंह का अहिंसा में कितना अधिक विश्वास था वह इसी से समझा जा सकता है कि एक स्थान पर उन्होंने कहा कि ‘अहिंसा को आत्मबल के सिद्धांत का समर्थन प्राप्त है जिसमें अंततः प्रतिद्वंदी पर जीत की आशा में कष्ट सहा जाता है, लेकिन तब क्या हो जब ये प्रयास अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल हो जाए? तभी हमें आत्मबल को शारीरिक बल से जोड़ने की जरुरत पड़ती है ताकि हम अत्याचारी और क्रुर दुश्मन के रहमोंकरम पर ना निर्भर करें।’ क्या ऐसे विचार वाले एक महान क्रांतिकारी को हिंसावादी कहना उचित होगा? कतई नहीं। ध्यान देना होगा कि 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ तो भगत सिंह का खून खौल उठा था। लेकिन उन्होंने हिंसा का रास्ता अख्तियार करने के बजाए महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदालन का समर्थन किया।

जेल में भगत सिंह ने बहुत यातनाएं सही। न तो उन्हें अच्छा खाना दिया जाता था और न ही पहनने को साफ-सुथरे कपड़े दिए जाते थे। उन्हें बुरी तरह पीटा जाता था और गालियां दी जाती थी। लेकिन वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने जेल में रहते हुए ही अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंक दिया। भगत सिंह की जनमानस में व्याप्त लोकप्रियता से अंग्रेज इस कदर डरे हुए थे कि 24 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी पर लटकाने के बाद उनके मृत शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उन्हें भय था कि अगर उनके मृत शरीर को उनके परिजनों को सौंपा गया तो देश में क्रांति की ज्चाला भड़क उठेगी जिसे संभालना मुश्किल होगा। भगत सिंह ने क्रांति के बारे में स्पष्ट कहा है कि ‘किसी को क्रांति शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं करनी चाहिए, जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरुपयोग करते हैं उनके फायदे के हिसाब से इसे अलग-अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते हैं।’

बिडंबना यह है कि भगत सिंह को कुछ इसी तरह के फ्रेम में फिट कर उनके क्रांतिकारी विचारों की व्याख्या की गयी है जो एक किस्म से उनकी अहिंसक विचारधारा के साथ छल है। बिडंबना यह भी कि इतिहास के पन्नों में भी उनके जीवन और बलिदान को सही रुप में दिखाने के बजाए विकृत करने की कोशिश की गयी। उदाहरण के तौर पर देश के जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा और मृदुला मुखर्जी की किताब में शहीद भगत सिंह को कथित रुप से क्रांतिकारी आतंकवादी के तौर पर उद्घृत किया गया है। यह न सिर्फ एक महान क्रांतिकारी का अपमान भर है बल्कि विकृत इतिहास लेखन की परंपरा का एक शर्मनाक बानगी भी है। विकृत इतिहास लेखन की ऐसी शरारतपूर्ण बानगियां इतिहास में और भी दर्ज हैं जिससे भारतीय इतिहास के नायकों की छवि धूमिल हुई है।

महान लेखक और राजनीतिज्ञ सिसरो ने इतिहास के बारे में कहा था कि इतिहास समय के व्यतीत होने का साक्षी होता है। वह वास्तविकताओं को रोशन करता है और स्मृतियों को जिंदा रखता है। देश जानना चाहता है कि औपनिवेशिक गुलामी और शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह किस तरह क्रांतिकारी आतंकवादी थे और इतिहास का यह विकृतिकरण किस तरह विद्यार्थियों के लिए पठनीय है। कोई भी इतिहासकार या विचारक अपने युग की उपज होता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी लेखनी से कालखंड की सच्चाई का ईमानदारी से दुनिया के सामने रखे। राष्ट्र को सुपरिचित कराए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण कि अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकार भारतीय इतिहास लेखन की मूल चेतना को समझ नहीं सके और भारतीय इतिहास के सच की हत्या कर दी।

अगर भारतीय इतिहास को भारतीय चेतना व मानस के प्रकाश में लिखा गया होता तो आज भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी या शिवाजी को पहाड़ी चूहिया अथवा चंद्रगुप्त मौर्य की सेना को डाकुओं का गिरोह नहीं कहा जाता। विलियम कैरे, अलेक्जेंडर डफ, जॉन मुअर, और चार्ल्स ग्रांट जैसे इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को अंधकारग्रस्त और हिंदू धर्म को पाखंड और झूठ का पर्याय कहा। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक और ईसाई धर्म को बढ़ावा देने वाले मैकाले ने तो यहां तक कहा कि भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य का मुकाबला करने के लिए एक अच्छे यूरोपिय पुस्तकालय की एक आलमारी ही काफी है। 1834 में भारत के शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकाले ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए बनायी अपनी नीति के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र लिखा जिसमें कहा कि मेरी बनायी शिक्षा पद्धति से भारत में यदि शिक्षा क्रम चलता रहा तो आगामी 30 वर्षों में एक भी आस्थावान हिंदू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बन जाएंगे या नाम मात्र के हिंदू रह जाएंगे। समझा जा सकता है कि इतिहास लेखन की आड़ में अंग्रेजी इतिहासकारों और उनसे प्रभावित भारतीय इतिहासकारों के मन में क्या था।

Shiv Kumar Mishra

Shiv Kumar Mishra

Next Story