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- युद्ध और शांति दोनों...
युद्ध और शांति दोनों एक साथ, एक साथ एक मुंह से दो अलग-अलग बातें कर के दिखाना यानी दो-मुंही बात क्या हर किसी के बस की बात है?
भई इसे कहते हैं विश्व गुरु वाला दांव। एक साथ दो नावों पर सवारी। बेशक, मुश्किल काम है। बल्कि लोग तो जोखिम का काम भी कहते हैं। दो नावों की सवारी करना आसान नहीं। पर आसान काम तो कोई भी कर लेगा। विश्व गुरु वाले काम में कम से कम मुश्किल तो होनी ही चाहिए। अब एक मुंह से एक बात तो कोई भी बोल लेगा। पर एक साथ एक मुंह से दो अलग-अलग बातें कर के दिखाना यानी दो-मुंही बात क्या हर किसी के बस की बात है? और रही जोखिम की बात, तो छप्पन इंच की छाती, कम से कम किसी काम तो आनी चाहिए। यूं ही दिखाने के लिए कोई कब तक फालतू छाती फुलाए घूमता रह सकता है।
तो भाई विश्व गुरु वाली बात ये हुई कि अपने मोदी जी ने फोन कर के मिस्र के राष्ट्रपति अल सीसी से साफ-साफ कह दिया कि वह उनकी बात से सौ टका सहमत हैं; गज़ा-इज़रायल के मामले में शांति और स्थिरता की शीघ्र बहाली जरूरी है। और तो और गज़ा में बाईस लाख फिलिस्तीनियों को मानवीय सहायता मुहैया कराने की जरूरत पर भी, भारत पूरी तरह से सहमत है।
पर इसमें मुश्किल वाली और जोखिम वाली यानी विश्व गुरु वाली कौन सी बात हो गयी। सरकारें भले न मानें, पर सारी दुनिया की पब्लिक देख रही है और यही तो कह रही है कि गज़ा में आम नागरिकों का कत्लेआम बंद होना चाहिए। चारों तरफ से घेरे में बंद, बाईस लाख फिलिस्तीनियों पर इज़रायल जो अंधाधुंध बम बरसा रहा है, उसमें आठ हजार से ज्यादा जानें तो अब तक जा भी चुकी हैं। यह जनसंहार कम से कम अब तो बंद होना चाहिए। इज़रायल को निर्दोष नागरिकों और उसमें भी बड़ी तादाद में निर्दोष औरतों और बच्चों का कत्लेआम करने से रोका जाना चाहिए, वगैरह। पर यही तो विश्व गुरु दांव है कि इस सीधी सी बात में भी, विश्व गुरु वाली बात पैदा हो गयी। और यह कोई बिरला ही साध सकता है।
मिस्र के राष्ट्रपति से फोन चर्चा हुई, वो दिन शनिवार का था। उससे पहले वाले ही दिन यानी शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत ने उस प्रस्ताव पर नोटा कर दिया, जिसमें ठीक यही कहा गया था कि गज़ा-इज़रायल के बीच फौरन, मानवतावादी कारणों से युद्ध विराम होना चाहिए! शुक्रवार को यह मांग मंजूर नहीं थी कि मानवतावादी युद्ध विराम होना चाहिए। और शनिवार को युद्ध का जारी रहना मंजूर नहीं था, फौरन शांति और स्थिरता की बहाली चाहिए थी। एक साथ शांति और युद्ध दोनों चाहिए। एक साथ दोनों मांगना, विश्व गुरु से कम किसी के बस की बात है क्या!
पर सच पूछिए तो विश्व गुरु होने के लिए एक मुंह से दो अलग-अलग बातें करना भी काफी नहीं है। माना कि यह भी आसान नहीं है, फिर भी काफी नहीं है। विश्व गुरु का सम्मान मुश्किल से मिलता है, पर हर मुश्किल चीज विश्व गुरु का आसन नहीं दिला सकती है। विश्व गुरु का आसन और आगे की चीज है। वह दो-मुंही बात बोलने से भी आगे की कलाकारी की मांग करता है। मसलन यही कि मोदी जी शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र संघ में मानवतावादी युद्ध विराम की मांग पर नोटा करने के जरिए जो बोले और शनिवार को मिस्र से राष्ट्रपति को फोन कर के जो बोले, एक-दूसरे को काटते जरूर हैं। फिर भी पूरी तरह से नहीं। यानी दोनों के एक-दूसरे को काटने के बाद भी, कुछ बचा रहता है, मोदी जी के एक्स्ट्रा एबी वाले फार्मूले की तरह। यही है असली विश्व गुरुत्व। और यह होता कैसे है? दो मुंह से बोलते हैं। एक-दूसरे को काटने वाली बातें बोलते हैं। एक मुंह से युद्ध विराम नहीं और दूसरे मुंह से फौरन युद्ध विराम बोलते हैं। पर दोनों से सुर को ऐसे साध के बोलते हैं कि दोनों के वजन, अलग-अलग हों! दोनों मुंह एक-दूसरे की बात काटें, तब भी आखिर में कुछ एक्स्ट्रा बचा रह जाए।
मसलन शनिवार को फोन पर युद्ध विराम के पक्ष में बोले, जबकि शुक्रवार को एक सौ बीस देशों की भीड़ के साथ, युद्ध विराम की मांग के पक्ष में तो खैर नहीं ही बोले, पर सीधे युद्ध विराम की मांग के खिलाफ भी नहीं बोले, अमेरिका-इज़रायल की तरह। न हां, न ना, बस चुप रहे। यानी युद्ध विराम की मांग के खिलाफ तो बोले, पर बोलकर नहीं, चुप रहकर! पर शनिवार को जो बोले, हालांकि शुक्रवार की तरह भीड़ के बीच नहीं, अकेले में बोले, पर बोलकर बोले, चुप रहकर नहीं। ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर तोल कर बताया जा सकता है कि भले ही युद्ध और युद्ध विराम, दोनों के पक्ष में बोले, पर युद्ध विराम के पक्ष में ज्यादा जोर से बोले! यह दूसरी बात है कि जरूरत होने पर पलड़ा दूसरी तरफ भी झुकाया जा सकता है--शुक्रवार को जो भी बोले, सारी दुनिया के सामने बोले, जबकि शनिवार को जो बोले, मिस्र के राष्ट्रपति के कान में बोले। जो बोले सो तो किसी ने सुना नहीं, जो कहा कि बोले, सब सुनी-सुनाई है। अब आप-सुनी का ज्यादा वजन होगा या सुनी-सुनाई का।
अब प्लीज कोई इसमें कन्फूजन की नकारात्मकता मत खोजने लग जाना। बेशक, एक्स्ट्रा भी दो निकल आते हैं, डिमांड के हिसाब से। युद्ध के पक्ष में होने की डिमांड हो, तो कनबतियों को कौन सीरियसली लेता है; सार्वजनिक रूप से चुप रहकर युद्ध जारी रहने का ही तो पक्ष लिया था। युद्ध विराम के पक्ष में एक्स्ट्रा की मांग हो तो; मुंह से बोलकर तो युद्ध विराम का ही पक्ष लिया है। बल्कि मानवतावादी सहायता मुहैया कराने तक का पक्ष लिया है यानी एक्स्ट्रा से भी एक्स्ट्रा। कुल मिलाकर, वक्त जरूरत के हिसाब से खुद को दोनों पालों में खड़ा दिखा सकने की पूरी व्यवस्था। चोर से कहे चोरी करते रहो, साहूकार से कहे जागते रहो! विश्व गुरु होने के लिए और कहां तक जाएंगे, गुरू!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)