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तालिबान के सत्ता में आने से दुनिया में कोई ज्यादा चिंतित नहीं है लेकिन उनकी इस सोच से सब हैरान है
रंगनाथ सिंह की फेसबुक से साभार
नीचे लगी बायीं तस्वीर अफगानी फिल्मकार सहारा करीमी की है। तालिबान शासन के खिलाफ विश्व समुदाय से मदद से अपील करते हुई उनकी पोस्ट वायरल हो चुकी है। कल सहारा करीमी ने अपनी डीपी पर अफगानिस्तान का काला नक्शा लगा दिया। सहारा करीमी के प्रोफाइल के अनुसार वो काबुल में स्थित हैं। यह मामले का एक पहलू है।
मामले का दूसरा पहलू मुझे आज सुबह दिखा। आज सुबह ही मैंने एक प्रोपगैण्डा फोटो देखी जिसमें लिखा था कि काबुल पर तालिबान के कब्जे की अगली सुबह 'स्कूल जाती लड़कियाँ।' तस्वीर शेयर करने वाले ने एक बारगी भी नहीं सोचा कि क्या आज काबुल में कोई स्कूल खुला होगा? खुला भी होगा तो क्या कोई माँ-बाप अपनी बच्चियों को स्कूल भेजेंगे! मामूली झगड़े-फसाद-दंगे में बच्चों को बाहर नहीं निकलने दिया जाता तो फिर तख्तापलट-गृहयुद्ध जैसे माहौल में किसकी बच्चियाँ बाहर निकलेंगी!
मुल्क या तंजीम के तौर पर अफगानिस्तान या तालिबान की इतनी हैसियत नहीं है कि वो अपने किसी पड़ोसी मुल्क से सीधी टक्कर ले सके। फिर तालिबान अंतरराष्ट्रीय चिन्ता का विषय क्यों बना हुआ है? क्योंकि तालिबान केवल एक हुकूमत भर नहीं है, एक विचारधारा भी है। वही विचारधारा जिससे सहारा करीमी भयभीत हैं। वही विचारधारा जिसने पेट्रो-डॉलर के दम पर पूरी दुनिया में ऐसा प्रोपगैण्डा खड़ा कर दिया है कि कुछ लोग हर हाल में उसे ही विक्टिम मानने लगते हैं। मसलन, ये बेचारे अफगानिस्तान में अमेरिका के दखल से पीड़ित होकर तालिबान बन जाते हैं और यही बेचारे अमेरिका में अपने तालिबानी अमल को फ्रीडम ऑफ च्वाइस बताते हैं और उसका विरोध होने पर खुद को विक्टम बताने लगते हैं।
क्या यह हैरत की बात है कि जिस तालिबान से वर्तमान भारत की सीमा नहीं लगती उसमें भी तालिबान को लेकर इतनी ज्यादा उथलपुथल है। तालिबान के नाम पर ताली बजाने वाले जाहिल तो देश में पहले से ही हैं। आज मुझे ऐसे लोग इस्लाम इत्यादि के खिलाफ लिखते दिखे जो पहले कभी ऐसी बातें नहीं करते थे। जाहिर है कि उन्हें तालिबान की हुकूमत नहीं बल्कि उसकी विचारधारा व्यथित कर रही है।
अभी एक खबर तालिबान के प्रिय अल-जजीरा चैनल ने चलायी है कि तालिबानी कन्धार के अजीजी बैंक में गये और वहाँ की नौ महिला कर्मचारियों को बन्दूक की निगहबानी में घर छोड़ा और कहा कि आपको दोबारा काम पर आने की जरूरत नहीं है। आप चाहें तो आपकी नौकरी आपके घर के किसी पुरुष को मिल जाएगी। तालिबान ने 20 साल में इतना विकास जरूर किया है कि उन्होंने तत्काल उन महिलाओं को गोली नहीं मारी।
अतः याद रहे, तालिबान एक सोच भी है जिसका आधार एक मजहब है। वह मजहब दुनिया के कई मुल्कों में है। उन सभी मुल्कों में कमोबेश तालिबानी सोच वाला छोटा-बड़ा वर्ग है। वैश्विक समुदाय इसी बात से आशंकित है कि एक जगह के तालिबान को अगर बन्दूक के दम पर सत्ता मिल गयी है तो बाकी जगह के तालिबान यह भ्रम पाल सकते हैं कि वो भी ऐसा कर सकते हैं। हालाँकि यह भ्रम ही है। इस भ्रम का नतीजा केवल इतना ही होता है कि आप दो टॉवर गिराते हैं तो आपका मुल्क बीस साल तक अमेरिकी बूटों के नीचे रौंदा जाता है, हजारों मरते हैं, लाखों बेघर और तबाह होते हैं। तुर्रा यह है कि जब अमेरिका ने बूट उठा लिया तो आप कहने लगे हमने जंग जीत ली।
अतः यह साफ रहे कि तालिबान के सत्ता में आने से दुनिया में कोई ज्यादा चिंतित नहीं है। लोगों की चिन्ता वह तालिबानी सोच है जो भोले-मासूमों को बरगलाकर उन्हें अकाल मृत्यु की तरफ धकेल देती है।