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प्रदूषण और बर्थ डिफेक्ट्स: सिर्फ़ सर्दियों में नहीं, साल भर जनसहभागिता के साथ कार्यवाही ज़रूरी
दीपमाला पाण्डेय
आजकल उत्तर भारत में एयर पॉल्यूशन, एक्यूआई, स्मोग टावर, पराली, ऑड ईवन फॉर्मूला आदि काफ़ी चर्चा में है। पिछले कुछ सालों से हर साल सर्दियों में यह सब शब्द चर्चा का केंद्र बनने लगते हैं और एक दो महीने में फिर उनकी चर्चा कम होने लगती है।
प्रदूषण को एक सीजन की तरह या एक सीज़न से जोड़ कर देखा जाने लगा है। इस पूरे घटनाक्रम का यह एक चिंताजनक पहलू है। एक शिक्षिका होने के नाते, अपने लगभग दो दशकों के अनुभव में देखा है कैसे बच्चे और उनकी पढ़ाई बदलती जलवायु और अब, बिगड़ती हवा की भेंट चढ़ती जा रही है। जहां पहले स्कूल सिर्फ रेनी डे के नाम पर बंद होते थे, अब स्कूल भीषण, गर्मी और सर्दी के चलते भी बंद होते हैं। और अब तो स्कूल प्रदूषण के चलते भी बंद कर दिये जाते हैं।
क्योंकि दिव्यांग बच्चों से मेरा विशेष लगाव और संवेदनशीलता है, इस पूरे मुद्दे को मैं उनकी नज़र से भी देखती हूँ।
मेरा अनुभव कहता है कि यह बच्चे न सिर्फ बेहद संवेदनशील होते हैं, इनमें कुछ करने की इच्छा भरपूर भी होती है और उनकी सहनशीलता और धैर्य अनुकरणीय होता है। मैं सोचती हूँ कि इन लक्षणों के साथ अगर इन बच्चों को अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति की विषमताओं से न जूझना पड़ता तो ये कमाल कर सकते थे, न सिर्फ अपने लिए, बल्कि पूरे समाज और अंततः देश के लिए।
इस समस्या को विज्ञान की नजर से देखने पर कुछ आंकड़े सामने आते हैं जो न सिर्फ़ हैरान करते हैं बल्कि दुखी भी करते हैं।
प्रदूषण और बर्थ डिफेक्ट्स
पूरी दुनिया में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की बर्थ डिफेक्ट्स के चलते होने वाली मौतों में 16 प्रतिशत भारत में होती हैं। और जो बच्चे इन बर्थ डिफेक्ट्स के साथ अपनी जिंदगी जीते हैं, उनके और उनके परिवार के लिए अक्सर जीवन एक चुनौती बन जाता है।
इस परिस्थिति से पूरी तरह अगर नहीं तो कुछ हद तक बचा जा सकता है। दरअसल एक चीनी शोध के अनुसार, प्रदूषण बर्थ डिफेक्ट्स में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस शोध के मुताबिक 6%-8% बर्थ डिफेक्ट्स वायु प्रदूषण के संपर्क से जुड़े होते हैं। न्यूरल ट्यूब समस्याओं सहित ये दोष, उच्च जन्म दर वाले देश में हजारों लोगों को प्रभावित करते हैं।
वायु प्रदूषण न केवल गर्भ में पल रहे बच्चे के फेफड़ों के विकास को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि तमाम अन्य समस्याओं के साथ बच्चे के दिमागी विकास पर गंभीर असर पड़ता है, जो आगे चल के तमाम मानसिक समस्याओं जैसे औटिस्म या दूसरी लर्निंग डिसेबिलिटी बन कर दिखता है।
हेवी मेटल्स की विशेष भूमिका
हमारी आज की जीवन शैली ऐसी हो गयी है कि लेड, कैडमियम, मरकरी, और आर्सेनिक जैसे हेवी मेटल हमारे दैनिक जीवन में घर बना चुके हैं। यह सभी हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद नुकसानदायक हैं। पुरानी बैटरियों और कोयले के दहन में पाया जाने वाला लेड जन्म के समय कम वजन का कारण बनता है और मानसिक विकास को रोकता है। फोसिल फ्यूल और सिगरेट के धुएं में मौजूद कैडमियम भी बच्चे के विकास में देरी का कारण बनता है। कोयला जलाने से निकलने वाला पारा या मरकरी भी मस्तिष्क के विकास में बाधा डालता है। फोसिल फ्यूल के जलने से निकलने वाले आर्सेनिक का भी विकास संबंधी देरी से सीधा नाता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो इन हेवी मेटल्स का असर जन्म के समय कम वजन पर नहीं रुकता; ये बच्चे में विकासात्मक देरी, व्यवहार संबंधी असामान्यताएं और सीखने की अक्षमताओं का कारण भी बनते हैं। गर्भ में पल रहे बच्चे का संपर्क अगर सीसे या लेड से हो जाए तो जन्म के बाद उसका आईक्यू स्कोर कम हो जाता है। ऐसे ही, तमाम तरह के मेटेल्स और गैसों के संपर्क में आने से एक गर्भवती स्त्री के पेट में पल रहे बच्चे पर बौद्धिक विकलांगता का खतरा बढ़ जाता है।
आशा की एक किरण
यह सब बातें परेशान करती हैं लेकिन ऐसे में हमारे प्रधान मंत्री द्वारा दिया गया Mission LiFE का मंत्र एक आशा की किरण दिखाता है।
प्रधान मंत्री जी की यह पहल जनसहभागिता की मदद से एक सस्टेनेबल या टिकाऊ जीवन शैली को प्रोत्साहित करती है। इस पहल के अंतर्गत वाहनों द्वारा कार्बन एमिशन और प्लास्टिक की खपत को कम करने जैसे सरल लेकिन प्रभावशाली कार्यों की वकालत करके, Mission LiFE वायु प्रदूषण को जड़ से खत्म करने की संभावना को प्रबल करता है।
दरअसल Mission LiFE हमें टिकाऊ विकल्प चुनने, कार्बन एमिशन को कम करने और संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करते हुए सशक्त बनाता है। उपभोक्ता व्यवहार और सरकारी नीति दोनों को प्रभावित करके, यह कार्यक्रम वायु प्रदूषण के मुख्य मुद्दे को संबोधित करता है। इसका संभावित प्रभाव, न केवल पर्यावरण के लिए बल्कि माताओं और उनके अजन्मे बच्चों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए भी, बहुत बड़ा है।
जिम्मेदारी हमारी
हम इस पूरी स्थिति पर आँख नहीं मूँद सकते। बढ़ता प्रदूषण और बदलती जलवायु के लिए हम सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। और इसलिए इसे हम ही ठीक कर सकते हैं और इसी वजह से मिशन लाइफ जैसी पहल प्रासंगिक बनती हैं। हमारी ज़िम्मेदारी और भी बनती है क्योंकि यह मामला हमारे बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ा है। वायु प्रदूषण और हेवी मेटल्स वो मूक खतरे हैं जिन पर हमें सामूहिक ध्यान देने की आवश्यकता है। Mission LiFE के माध्यम से, हमारे पास आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करते हुए एक स्थायी प्रभाव डालने का मौका है। अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों और उन्हें विरासत में मिलने वाले ग्रह की भलाई के लिए हाथ मिलाएँ, शिक्षित करें और अपनी जिम्मेदारी निभाएँ।
(लेखिका बरेली के एक सरकारी विद्यालय में प्रधानाचार्या हैं और दिव्यांग बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा में लाने के अपने प्रयासों के चलते माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम में भी शामिल हो चुकी हैं।)