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मुशर्रफ़ अली
8 जून 2014 को कराची के जिन्नाह इन्टर्नेशनल एयरपोर्ट पर 'इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान' के 10 आतंकवादियों ने स्वचालित हथियारों, आत्मघाती जैकेट, रॉकेट लांचर और गर्नेड से हमला किया जिसमें आतंकवादियों सहित 36 लोग मारे गये व दो हवाई जहाज़ क्षतिग्रस्त हुये। यह संगठन अलकायदा से जुड़ा हुआ है और 'तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान(टीटीपी) के साथ मिलकर काम करता है। इस हमले की ज़िम्मेदारी 'तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान' ने ली तथा इसका कारण 1 नवम्बर 2013 को ड्रोन हमले में अपने नेता हकीमुल्लाह महसूद के मारे जाने का बदला लेना बताया। इस हमले के बाद 10 जून 2014 को पाक सेना ने अफ़गानिस्तान की सीमा से लगे क़बिलाई इलाके़ पर आतंकवादी ठिकाने पर हमला किया जिसमें 25 आतंकवादी मारे गये। कराची के जिन्नाह एयरपोर्ट पर किये गये इस हमले ने पाकिस्तान की व्यापारिक गतिविधियों पर असर डाला था और यह हमला पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर हमला था इसलिए 15 जून 2014 को पाक सेना ने 'आप्रेशन ज़र्बे-अज़ब' यानि 'पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद की तलवार का वार' नाम से अफ़गानिस्तान की सीमा से सटे, उत्तरी वज़ीरिस्तान पर एक बड़ा हमला शुरु किया जिसमें उस समय पाक सेना के तीस हज़ार जवान हिस्सा ले रहे थे। यह हमला तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान(टी.टी.पी.), ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, द इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान तथा हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ़ था। इसका मकसद उत्तरी वज़ीरिस्तान को आतंकवादियों से खाली कराना था। यह आप्रेशन 3 अप्रेल 2016 तक चला और इसमें 9 लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हुये जिसमें 80 हज़ार से ज़्यादा परिवार उत्तरी वज़ीरीस्तान के थे। इसमें 490 पाकिस्तानी सेनिक और 3500 आतंकवादी मारे गये। इसबार हमला सभी तरह के आतंकवादियों पर किया गया पहले जिन आतंकवादियों से अमरीका समझौता वार्ता कर रहा था उन्हें अच्छे तालिबानी नाम दिया गया था।
इससे पहले जो हमला चर्चा में रहा वह -लाल मस्जिद पर राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ द्वारा किया गया हमला था। तीन जुलाई 2007 को पूरी दुनियां टी0वी पर देख रही थी कि पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पॉश इलाकेे में स्थित 'लाल मस्जिद' मदरसे के कुछ छात्र और छात्रायें अत्याधुनिक हथियारों से पाकिस्तानी रेंजरों(अर्द्धसैनिक बल) का मुकाबला कर रहे हैं। उनमे से कुछ छात्र गैस मास्क भी पहने नज़र आ रहे थे इससे लगता था कि इस तरह के मुकाबले का उन्हे पहले से अनुमान था। लाल मस्जिद परिसर में दो मदरसे स्थित हैं एक मदरसा 'जामिया हफ़जा़' है जो लड़कियों का है और दूसरा 'जामियां फ़रीदिया' लड़कों के लिए है। इन मदरसों को, मौलाना अब्दुल रशीद गा़ज़ी व मौलाना अब्दुल अज़ीज़ नामक दो भाई चलाते थे। इसकी स्थापना इनके पिता मौलाना अब्दुल्ला ने की थी तथा जिनकी इसी मदरसे में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। यह मदरसा आई0एस0आई0 के मुख्यालय के निकट स्थित है और इसमें पाकिस्तान की बड़ी-बड़ी हस्तियों व आई0एस0आई0 के अधिकारियों का आना जाना लगा रहता है। पहले यह मदरसा पाकिस्तानी सरकार की विदेश नीति में मदद्गार होता था लेकिन तब यह अनुपयोगी हो गया था और पाकिस्तानी सरकार इस तरह के मदरसों को देश के विकास में बाधक मानने लगी थी। उस समय की गई कार्यवाही उसी दृष्टिकोण को दर्शाती थी। हमेशा ही मीडिया में आतँकवाद के केन्द्र के रुप में मदरसे व उनमे पढ़ रहे छात्रों पर चर्चा जारी रहती है। पाकिस्तानी शासकों पर भी चर्चा है कि उन्होने जो बोया था वह अब काट रहे हैं लेकिन आँतकवाद की जड़ें कहाँ है चर्चा मे यह सच्चाई एकदम गायब है। यानि पेड़ के पत्तों उनकी शाखाओं पर चर्चा है लेकिन पेड़ की जड़ें कहाँ है उसपर चर्चा गायब है। इसे और भी सरल तरीक़े से समझा जा सकता है, मिसाल के तौर पर मादक पदाथों के कारोबार को लेते हैं। इस कारोबार में तीन स्तर पर लोग शामिल रहते हैं एक वह होते हैं जो इन मादक पदार्थो का इस्तेमाल करते है। दूसरे वह होते हैं जो नशा करने वाले तक उन नशीले पदार्थो को पहुँचाने का काम करते हैं तीसरे वह होते हैं जो मादक पदार्थों के मालिक होते हैं। हम फिल्मो का उदाहरण लेते हैं उनमें पुलिस नशा करने वालों के माध्यम से नशीले पदाथों को पहुँचाने पालों तक पहुँच जाती है, लेकिन उससे काम नही चलता है तब वह असली मुजरिम तक पहुँचने के लिय जाल बिछाती है जो दूर किसी टापू पर बैठा है ताकि इसे पकड़कर इस व्यापार की जड़ों को नष्ट किया जा सके। यही असली मुजरिम उस चर्चा से आज बाहर खुले आम घूमता फिर रहा है। इसपर तरस खाने लायक़ बात यह है कि लोग उसी से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद को रोकने के लिए आगे आये।
लाल मस्जिद के बारे में भी यही हुआ। आम तौर पर इन मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे गरीब परिवारों के होते हैंे जिनके माँ-बाप परवरिश के बोझ से बचने तथा धार्मिक शिक्षा के बाद किसी मस्जिद में दो रोटियों का सहारा मिल जाने की उम्मीद में अपने बच्चों को इन मदरसों के हवाले कर देते हैं। क्योंकि सभी धार्मिक व साम्प्रदायिक संगठन बड़ी उम्र के लोगों को अपने जाल में फाँसने में कठिनाई महसूस करते हैं इसलिये आसान शिकार के रुप में उन्होने बच्चों को चुन लिया है। पहले यह मदरसे धार्मिक व बुनियादी शिक्षा का काम करते थे लेकिन अमरीकी साम्राज्यवाद ने इस संस्था का इस्तेमाल अपने नापाक मकसद को हासिल करने के लिए जबसे किया है यह शक के दायरे में आ गये हैं।
जहाँ तक पाकिस्तानी मदरसों मे आधुनिक हथियारों का सवाल है तो जो पाकिस्तान के बारे में सतही जानकारी रखते हैं उनके लिए किसी मदरसे मे क्लाशिनिकोव व अन्य हथियार दिखाई पड़ना अचरज की बात हो सकती है। अफ़गानिस्तानी युद्ध के समय से पूरे पाकिस्तान में अमरीकी हथियार सहज सुलभ हैं। वहाँ क्लाशिनिकोव राईफल से लेकर राकेट लाँचर तक आप आसानी से खरीद सकते हैं। अफ़गानी सीमा से लगे पाकिस्तानी इलाकों में तो इनके बाज़ार लगते है। ऐसा माहौल कैसे और किसने पैदा किया ? कौन है जिसने इस क्षेत्र को हथियारों से पाट दिया ? ओैर यह किस दिमाग की उपज है कि इस पूरे क्षेत्र मे मदरसों का जाल बिछाकर उनमे मासूम बच्चों को आँतकवादियो में बदल दिया जाये और उनका इस्तेमाल अपने हित में किया जाये, इसके लिए उस क्षेत्र के इतिहास में जाना होगा।
अफ़गानिस्तान, जहाँ की साक्षरता दर आज भी दस प्रतिशत है यानि 90 प्रतिशत जनता निरक्षर है, गरीबी का यह आलम कि जगह-जगह भिखारियो की क़तारें दिखाई पड़ती हैं उसपर युद्ध सरदारों की कबिलाई हुकूमत, और जिनका मीलो फैली जमीनों पर कब्जा़ है। वहाँ गरीबी या नाइंसाफ़ी के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का मतलब कबिलाई सरदारों की गोली खाना है। रही कानून की बात तो कानून उन सरदारों की बन्दूको की नालों मे रहता है। इस घोर शोषण के बीच आम अफ़ग़ानी जनता की जिन्दगी काफ़ी कठिन थी। कबिलाई सरदारों के खेतों में काम करने के साथ-साथ उनकी तरह-तरह की बेगार करना अफ़ग़ानियों के लिए आम बात थी। हालांकि शोषणकर्त्ता इन कबिलाई सरदारों और शोषित भूमिहीन अफ़गानियों का मज़हब एक था लेकिन क्योंकि वर्गीय-सम्बंध ही आखिरी रिश्ता तय करते हैं इसलिए धर्म एक होने पर भी उन लोगों को किसी तरह की रियायत हासिल नही है। इस भयंकर शोषण की हालात में भूख और गरीबी से बदहाल अफ़गानी जनता, ठीक अपने बग़ल में सरहद से सटी एक ऐसी दुनियां देख रही थी जहाँ उसी धर्म के मानने वाले पूर्ण साक्षर व बा-रोज़गार थे। उनकी खुशहाली उनके चेहरों और पहनावे से झलकती थी। यह सेन्ट्रल एशिया मे स्थित उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान नामक देश थे जो 26 दिसम्बर 1991 से पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे। इन देशों में रहने वाले मुसलमानों के जीवन स्तर के इस अन्तर ने अफ़गानी लोगों को सोचने पर मजबूर किया। उनमे से जो वैचारिक रुप से आगे बढ़े लोग थे उन्होने उस व्यवस्था का अध्ययन किया और उस निज़ाम को अपने यहाँ लाने की कोशिश शुरु कर दी। जनता का समर्थन पाकर उनकी कोशिश रंग लायी और उन्होने एक दिन कबिलाई सरदारों को सत्ता से बेदखल कर दिया। 'प्युपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफ़ग़ानिस्तान' के नेतृत्व में भूमि-सुधार शुरु किया गया और नई बनी सरकार ने कबिलाई सरदारों की जमीनें ज़ब्त करके भूमिहीन अफ़ग़ान किसानों में बाँटना शुरु कर दी। थोड़े ही दिनों में तीन लाख से अधिक जमीन के टुकड़े बाँट दिये गये। साथ ही निरक्षरता दूर करने के लिए स्कूलों का जाल बिछना शुरु हुआ और युद्ध-स्तर पर साक्षरता अभियान शुरु किया गया। लेकिन सात समुद्र पार बैठे एक साम्राज्यवादी दानव को हमेशा की तरह यह बदलाव पसंद नही आया। उसने उन कबिलाई सरदारों से सम्पर्क साधा जिनकी ज़मीनें ज़ब्त की गयीं थीं। इसी समय पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता पर एक फौजी जनरल जियाउल्हक़ ने कब्ज़ा करने के बाद वहाँ के प्रधानमंत्री जुल्फ़िकार अली भुट्टो को फाँसी पर चढ़ाकर उनकी हत्या कर दी थी। वह जनरल, अमरीका का पिटठू था जिसे पाकिस्तानी जनता को धार्मिक आधार पर मूर्ख बनाने का गुर आता था। दुनिया के हर तानाशाह और फासिस्ट की तरह उसे भी अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अमरीकी मदद की जरूरत थी। अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन व इस पाकिस्तानी तानाशाह में समझौता हुआ और जनरल ज़ियाउल्हक़ ने दुनिया भर में अपने काले कारनामों के लिए बदनाम अमरीकी जासूसी संस्था, सी0आई0ए0 के मशवरे पर अफ़गान सरदारों के माध्यम से धर्मभीरु अफ़गानियों को पकड़ा और उनका इस्तेमाल नई बनी अफ़गान सरकार के खिलाफ़ करना शुरु कर दिया। अफ़गानी ज़मीदारों की जमीने खतरे मे पड़ने की बात को इस्लाम खतरे में पड़ने के नारे से जोड़ दिया गया। निरक्षर अफ़गानी उनके बहकावे में आ गये इतना ही नही दुष्ःप्रचार इतना तेज़ व प्रभावशाली तरीके से किया गया था कि मुस्लिम समाज के पढ़े लिखे और खुद को विद्वान समझने वाले लोग भी उसका शिकार हो गये और वह भी अमरीकी शासकों के स्वर में स्वर मिलाने लगे। अमरीकी पैसे, हथियार और धार्मिक जुनून के बल पर इन कबिलाई सरदारों द्वारा किये गये हमलों से अफ़गानी सरकार कमज़ोर पड़ने लगी और उसने सोवियत संघ से मदद् की अपील की। सोवियत संघ ने उनकी अपील को स्वीकार कर लिया और तब सोवियत सेना ने अफ़गानिस्तान में प्रवेश किया। सोवियत संघ की सेना के इस प्रवेश के खिलाफ़ अमरीकी प्रचारतंत्र ने पूरी दुनिया में हगंामा काट दिया कि सोवियत संघ की सेना अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने आ गयी है। जबकि इराक़ द्वारा कुवैत पर किये गये हमले के बाद फौरन अमरीका ने इराक़ पर हमला करके दो लाख सैनिकों की हत्या कर दी और उसका सारा आधारभूत ढाँचा तहस नहस कर दिया तब किसी ने भी इसकी आलोचना नही की, सब इराक़ को ही दोषी ठहराते रहे।
सोवियत सेना के अफ़गानिस्तान में आने के बाद, सी0आई0ए0 व जनरल ज़ियाउल्हक़ और अफ़गान जमीदारों को ज़्यादा लड़ने वालों की जरुरत थी इसलिए अमरीका ने जनरल ज़ियाउलहक़ के साथ मिलकर नई रणनीति बनायी। अमरीका का अनुभव रहा था कि वेतनभोगी सैनिकों के स्थान पर धार्मिक जुनून से भरे सैनिक ज़्यादा बहादुरी से लड़ते हैं इसलिए उसने पाकिस्तान और अफ़गान सीमा के निकट धार्मिक मदरसो का जाल बिछा दिया। उन मदरसों मे गरीब पख्तून व अफ़गानी बच्चों को धार्मिक तालीम के साथ-साथ सैनिक तालीम भी दी जाने लगी। अमरीका ने पूरे सरहदी इलाके को अत्याधुनिक हथियारों से पाट दिया। हथियार गरीब अफ़गानियों की आय का साधन बन गये। ज़्यादातर अफ़गानी व पख़्तूनी पठान क्योंकि पाकिस्तान में ट्रक चलाते हैं इसलिए अमरीकी हथियार ट्रकों में भरकर पूरे पाकिस्तान में बेचे जाने लगे। हथियारों की सहज उपलब्धता ने पाकिस्तानी समाज में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। अब हर राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक पार्टी ने अपने हथियार बन्द दस्तों का गठन कर लिया और बात-बात पर उनमे खूनी झड़पें होने लगीं। बेनज़ीर भुट्टो की पाकिस्तान प्युपिल्स पार्टी, महाजिर कौमी मूवमेंट व जमात-ए-इस्लामी ने अपने प्रतिद्वन्दियों को यंत्रणा देने के सेल कायम कर लिए। एम0क्यू0एम0 के प्रमुख अल्ताफ़ हुसैन ने घोषणा की कि हर मुहाजिर टी0वी0 बेचकर बन्दूक खरीदे।
अमरीका ने अपने द्वारा तैयार किये इन आतंकवादियों को स्ट्रिंगर मिसाईल की आपूर्ती की जिसे कंधे पर रखकर हवाई जहाज़ों पर निशाना लगाया जा सकता था। इन स्ट्रिंगर मिसाईल ने सोवियत संघ के लड़ाकू विमानों और हेलीकाप्टरों को भारी नुक्सान पंहुचाया। भारी नुक्सान उठाने के बाद सोवियत सेना 15 फ़रवरी 1989 को अफ़गानिस्तान से वापस चली गयी लेकिन इस्लाम खतरे में है का नारा देकर समाजवादी निज़ाम के खिलाफ़ लड़ने वालांे ने लड़ाई बंद नहीं की। सोवियत सेना के जाने के बाद अब अफ़गानिस्तान में इस्लाम खतरे में नही था फिर भी वह आपस में लड़ रहे थे। उधर यूनाइटेड स्टेट्स जियालॉजिकल सर्वे ने अपनी जाँच में यह पता लगा लिया था कि अफ़गानिस्तान की ज़मीन के अन्दर भारी मात्रा में गैस और तेल के भंडार मौजूद हैं। इसके अलावा बड़े पैमाने पर की जा रही अफ़ीम की खेती और उससे बन रही हेरोईन की आय पर कब्ज़े का भी सवाल था। इसपर कब्ज़ा करने के लिए ही पाकिस्तान और अमरीका ने पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में फैले मदरसो मे प्रशिक्षित तालिबानों से अफ़गानिस्तान पर हमला करा दिया और वहाँ तालिबानियों की हुकूमत का़यम हो गयी। उसामा-बिन-लादेन जिसका बुश के साथ घनिष्ठ परिवारिक सम्बन्ध था और जिसका रहन सहन पूरी तरह यूरोपियन था उसे धार्मिक लबादा पहनाकर अफ़गानिस्तान भेजा गया। सोवियत सेना की वापसी के बाद अमरीका का मकसद पूरा हो गया था इसलिए उसने अफ़ग़ानी मुजाहिदीनों की सभी तरह की मदद बंद कर दी। इस स्थिति ने अफ़ग़ानी मुजाहिदीनों और अमरीका के बीच दरार डाल दी। तब तालिबानों द्वारा सत्ता पाने के बाद ज़मीन में दबे तेल गैस और अफ़ीम की आमदनी पर अकेले कब्ज़े को लेकर बुश और बिन लादेन में ठन गयी जिसका नतीजा तालिबानियों की हार के रुप में सामने आया। जिन अमरीकी हथियारों और साधनों व धन की आपूर्ति के बल पर वह सोवियत सेना से लड़ रहे थे उनकी आपूर्ति रोके जाने ने उन्हें कमज़ोर कर दिया। जो तालिबान और उसामा बिन लादेन सोवियत संघ से लड़ते समय अमरीका के लिए हीरों थे, हॉलीवुड जिनको स्वतंत्रता सैनाानियों की तरह अपनी फिल्मों में पेश कर रहा था पलक झपकते वह ज़ालिम और खलनायक हो गये। 1988 में बनी 'रेम्बो-3 व 'चार्ली विल्सन वार' जैसी फ़िल्मों को अफ़ग़ानिस्तान के मुजाहिदीन को समर्पित किया गया। इनमें आज के आतंकवादी, स्वतंत्रता सैनानी दिखाये गये हैं लेकिन बाद को वही हालीवुड उन आतंकवादियों के खिलाफ़ 'लोन सर्वाइवर' जैसी फिल्में बना रहा था जिसमें कल के वही स्वतंत्रता सैनानी उनकी नज़र में आज ज़ालिम आतंकवादी हो गये। आज जो पाकिस्तान व हिन्दुस्तान में आतँकवाद है उसके लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार साम्राज्यवादी अमरीका है। 'आप्रेशन साइक्लोन' के तहत वर्ष 1979 से 1989 तक अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने टेक्सास के राजनीतिक चार्ली विल्सन व सी.आई.ए. द्वारा जिस तरह पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान में भारी आर्थिक व हथियारों की सहायता देकर, आतंकवादी पैदा किये उसका नतीजा भारत और पाकिस्तानी दोनों को झेलना पड़ रहा है। 1983 में अपने ओवल आफ़िस में इन अफ़गानी आतंकवादियों से राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की मुलाकात का चित्र, सबूत के तौर पर आज भी इन्टरनेट पर मौजूद है। पाक विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार ने एक बार साफ़ तौर पर इस सच्चाई को यह कहकर उद्घाटित किया था कि 'हक्कानी ग्रुप' सी.आई.ए. द्वारा पैदा किया गया ब्लू आई चाईल्ड है। इस आतंकवादी ग्रुप का मुखिया जलालउद्दीन हक्कानी और गुलबुद्दीन हिकमतयार को अफ़गानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने पैदा किया और उन्हें सी.आई.ए. ने पाला-पोसा। पाकिस्तानी शासकवर्ग जिसने इस भस्मासुर को पैदा करने में अमरीका की मदद की थी उस समय इस बात को समझ चुका था कि तालिबानी विचारधारा फासिज़्म तो पैदा कर सकती है किसी विकसित और स्वस्थ समाज का निर्माण इससे नही हो सकता इसीलिए जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ से लेकर नवाज़ शरीफ़ तक, अफ़गानी सीमा के निकट कबाईली इलाकों में पनाह लिए हुये हज़ारों आतँकवादियों को मौत के घाट उतार चुके थे लेकिन अब जब अमरीका अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर भाग रहा है और तालिबान वहां अपना कब्ज़ा जमाने के लिए जंग में व्यस्त है तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति इमरान खान अपना प्रगतिशील मुखौटा उतारकर तालीबानियों की मदद कर रहे हैं। जैसाकि अफ़गानी राष्ट्रपति श्री अशरफ़ ग़नी ने दक्षिण एंव मध्य एशिया के सम्मेलन में इमरान खान की मौजूदगी में पाकिस्मान पर आरोप लगाया कि एक माह के दौरान पाकिस्तानी सीमा से दस हज़ार आतंकवादी अफ़ग़ान सीमा में दाखिल हो चुके हैं। पास्तिान तालीबानियों के समर्थन में इतना खुलकर सामने आ चुका है कि उसने अफ़ग़ान सरकार को धमकी दे डाली है कि अगर उसकी सीमा के निकट तालीबानियों पर अफ़गान सरकार हवाई हमला करती है तो वह हमला कर देगा।
जिस आतंकवादियों से अमरीका की बिगड़ जाती है अमरीका केवल उन आतंकवादियों के खिलाफ़ नज़र आता है। वह केवल इस क्षेत्र में अस्थाई रूप से तालिबानों के खिलाफ़ है लेकिन रुस में स्थित चेचेनियां में उन्ही धार्मिक आतँकवादियों का समर्थन व सहायता करता रहा है। 80 के दशक में पाकिस्तान के साथ मिलकर वह खालिस्तानी आतंकवादियों की सहायता करता रहा है। पैन्टागन में बैठे युद्धोन्मादी, ओसामा बिन लादेन की तरह चेचेन आतंकवादी नेता 'शामिल बसायेव' को जो 10 जुलाई 2006 को मारा गया उसे नायक के रुप में प्रचारित करते हुये अपने सैनिक स्कूल में उसकी छापामार लड़ाई की तकनीक को बतौर कोर्स पढ़ाते रहे हैं। अमरीका आज जहाँ रुस के काकेशस के आतंकवादियों की मदद कर रहर है वहीं सीरिया में आतंकवादियो को खुले आम हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं। अफ़गानिस्तान में जिस अलकायदा के खिलाफ़ अमरीका 'वार ऑन टेरर' चलाये हुये है उसी अलकायदा के लड़ाकों को वह लीबिया पंहुचाता है और उनसे वहाँ के राष्ट्रपति कर्नल मुअम्मर कद्दाफ़ी का कत्ल कराता है फिर उन्ही को सीरिया ले जाता है और उसके बाद इराक पंहुचा देता हैं जहाँ वह उसके ही पत्रकार का सर कलम करते दिखाई पड़ते है। पश्चिमी साम्राज्यवाद ने इराक़, लीबिया और सीरिया जैसे धर्मनिर्पेक्ष व प्रगतिशील देशों को बर्बाद करके आज उन्हें धार्मिक कट्टरपंथियों के हवाले कर दिया है। जिन आतंकवादियों को जन्म देकर व उनकी हर तरह से मदद करके अफ़गा़निस्तान को इस हालत में पंहुचा दिया कि हर पढ़ने की इच्छा रखने वाली मलाला युसुफ़जई को हमले का शिकार होना पड़ा। आज आतंकवादियों के जन्मदाता, मलाला युसुफ़ज़ई को पुरुस्कार देकर अपने उन गुनाहों पर पर्दा डालना चाहते हैं जिनके कारण अफग़ानिस्तान की हर मलाला युसुफ़ज़ई पढ़ने से महरुम है। अगर अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन अपने पिटठू जनरल ज़ियाउलहक़ के साथ मिलकर अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप न करते तो आज वहाँ किसी भी मलाला युसुफ़ज़ई को आतंकवादी हमले का शिकार न होना पड़ता। हमारे पूंजीवादी मीडिया में पाकिस्तान की जासूसी एजेन्सी आई.एस.आई., बार-बार चर्चा में आती है लेकिन क्या किसी में यह लिखने का साहस है कि आई.एस.आई को सी.आई.ए. ने जन्म दिया है और आज भी उस एजेन्सी के सालाना बजट का तिहाई धन, सी.आई.ए. उपलब्ध कराता है। मुम्बई हमले का मुख्य आरोपी अमरीकी नागरिक डेविड हैडली पर सी.आई.ए. के लिए काम करने का आरोप है इसीलिए अमरीका उसे भारत को नहीं सौंप रहा है क्योंकि इससे सच्चाई उजागर हो जायेगी। आज 20 साल बाद अमरीका आतंक की ऐसी फ़सल छोड़कर जा रहा है जिसने न केवल अफ़ग़ानिस्तान की जनता खासतौर पर धर्मनिर्पेक्ष जनता और महिलाओं को खतरे में डाल दिया है बल्कि आसपास के सभी देश चिंता से भर उठे हैं। आज अगर आप ईमानदारी से आँतकवाद के खिलाफ़ खड़े हैं तो आपको साम्राज्यवादी अमरीका के खिलाफ भी खड़ा होना पड़ेगा। आज जो लोग भारत-अमरीका दोस्ती की वकालत कर रहे हैं वह अपने नीहित स्वार्थ में उस सच्चाई को भारत की जनता से छुपा रहे है कि दुनिया में एक भी ऐसा देश नही है जो अमरीका से दोस्ती करके बर्बाद न हुआ हो। पाकिस्तान की मिसाल हमारे पड़ौस में मौजूद है।