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बिलावल भुट्टो कर पाएंगे क्या भारत में रहने वाले इन भुट्टो का सामना!
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी आगामी 4-5 मई को गोवा में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेंशन (एससीओ) की विदेश मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने भारत आएंगे। बिलावल भुट्टो का विमान मुंबई के आकाश से होकर ही गोवा जाएगा। वैसे भी मुंबई और गोवा में कोई बहुत दूरी तो नहीं है। उनका विमान जब मुंबई के ऊपर से गुजर रहा होगा तो उन्हें अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो के मुंबई से संबंधों को लेकर सुनी-पढ़ी बातें जेहन में आने लगेंगी। उन्होंने मुंबई के कैथडेरल स्कूल का नाम संभवत: अपनी मां बेनजीर भुट्टो से सुना होगा। जब पाकिस्तान 1947 में बना तब तक बिलावल के नाना जुल्फिकार अली भुट्टो कैथडरल स्कूल से पढ़कर निकल चुके थे। भुट्टो परिवार पाकिस्तान 1947 में नहीं गया था। मुसलमानों के लिए बने पाकिस्तान में भुट्टो खानदान 1950 में शिफ्ट हुआ था। भुट्टो कुनबे के राजनीतिक दुश्मन इस मुद्दे पर उनकी पाकिस्तान को लेकर निष्ठा पर सवाल उठाते रहते हैं। इस निशाने से बचने के लिए भुट्टो कुनबे को एक ही काट नजर आती है। वह है भारत का कसकर विरोध करना।
एक बड़ा सवाल ये भी है कि देश के विभाजन के वक्त भुट्टो और उनका परिवार पाकिस्तान क्यों नहीं चला गया था? जब गांधी जी की 1948 में हत्या हुई तब जुल्फिकार अली भुट्टो अमेरिका में पढ़ रहे थे। संयोग से वहां पर पीलू मोदी भी थे। वे मोदी को सांत्वना दे रहे थे। ये सब जानकारी पीलू मोदी अपनी किताब में देते हैं। क्या भुट्टो कुनबा शुरू में पाकिस्तान जाना नहीं चाहता था ?
कौन थी भुट्टो की मां
बिलावल भुट्टो को यह जानकारी होगी कि उनके नाना की मां हिंदू थी। उनका निकाह से पहले नाम लक्खीबाई था। बाद में हो गया खुर्शीद बेगम। वो मूलत: राजपूत परिवार से संबंध रखती थी। उन्होंने निकाह करने से पहले ही इस्लाम स्वीकार किया था। जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता सर शाहनवाज भुट्टो देश के विभाजन से पहले मौजूदा गुजरात की जूनागढ़ रियासत के प्रधानमंत्री थे। शाहनवाज भुट्टो जूनागढ़ के प्रधानमंत्री के पद पर 30 मई,1947 से लेकर 8 नवंबर,1947 तक रहे। यानी पाकिस्तान के बनने के कई महीनों के बाद तक।
जब बेनजीर भुट्टो की निर्मम हत्या हुई थी तब जूनागढ़ में भी शोक की लहर दौड़ गई थी। यहां के वांशिदें बेनजीर भुट्टो को कहीं न कहीं अपना ही मानते थे। जूनागढ़ शहर की जामा मस्जिद में इमाम मौलाना हाफिज मोहम्मद फारूक की अगुवाई में उनकी आत्मा की शांति के लिए नमाज भी अदा की गई थी। कहने वाले कहते हैं कि शाहनवाज और लक्खीबाई के बीच पहली मुलाकात जूनागढ़ के नवाब के किले में हुई। लक्खीबाई भुज से आई थी।
बहरहाल, भारत बिलावल भुट्टो जरदारी से नाराज है क्योंकि कुछ माह पहले न्यूयार्क में बिलावल ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को "गुजरात का कसाई" कहा था। भारत ने तब बिलावल की गटर बयानबाजी का कड़ा विरोध जताया था। बिलावल की उसी बयानबाजी के चलते गोवा में बिलावल से भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर अलग से मिलने वाले नहीं हैं। इस तरह भारत बिलावल के सामने अपनी नाराजगी दर्शाना चाहता है।
जुल्फिकार भुट्टो के कई अर्थों में भारत से करीबी संबंध थे। उनके मुम्बई और जूनागढ़ से रिश्तों की जानकारी जगजाहिर है। भुट्टो जब मुम्बई के प्रतिष्ठित कैथडरल स्कूल में पढ़ रहे थे तब उनके परम मित्र थे पीलू मोदी,जो राज्य सभा में भी रहे। पीलू मोदी ने अपनी किताब ' जुल्फी माई फ्रेंड' में एक जगह लिखा भी है कि हालांकि हम दोनों घनिष्ठ मित्र थे 1946 में, पर जुल्फिकार टू नेशन थ्योरी पर यकीन करते थे। वे जिन्ना के आंदोलन को सही मानते थे। इसके विपरीत उन्हें कभी ये बात समझ नहीं आ रही थी कि भारत धर्म के नाम पर बंटेगा।
भुट्टो 1973 से 1977 तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे। जरा सोचिए कि जिस शख्स का पाकिस्तान के दो फाड़ करवाने में अहम रोल था वह 1973 के पाकिस्तान के आम चुनाव में जीतकर मुल्क का प्रधानमंत्री ही बन गया। बना इसलिए क्योंकि उन्होंने उसी न्यूयार्क शहर में भारत-पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति के संयुक्त राष्ट्र सभा को संबोधित करते हुए भारत को अनाप-शनाप बका था। इसके चलते पाकिस्तानी अवाम ने उनकी पाकिस्तान को तोड़ने की खत को माफ कर दिया। 51 सालों के बाद उनके पौत्र ने भारत पर निशाना साधा।
बहरहाल, भुट्टो 35 साल की उम्र में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बन गए थे। 1965 में अयूब खान को उनके विदेश मंत्री भुट्टो द्वारा कश्मीर में घुसपैठियों को भेजने के लिए भड़काया गया था। शास्त्री ने इसका जवाब लाहौर की तरफ अंतरराष्ट्रीय सीमा पार टैंक भेज कर दिया।ये लड़ाई ताशकंद (आज का उजबेकिस्तान) में सोवियत यूनियन की मध्यस्थता से शांति के साथ ख़त्म हुई। लेकिन अय्यूब ख़ान से मतभेद होने के कारण उन्होंने अपनी नई पार्टी (पीपीपी) 1967 में बनाई। 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 और 1971 के पाकिस्तान युद्ध, तीनों के समय वे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। 1965 के युद्ध के बाद उन्होंने ही पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम का शुरूआती ढाँचा तैयार किया था। उन्हें चार अप्रैल 1979 को फ़ाँसी पर लटका दिया गया था। भुट्टो को रावलपिंडी की जेल में फांसी पर लटका दिया था।फांसी देने के महज़ दो साल पहले तक वे पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म थे। उन पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी मोहम्मद अहमद खान कसूरी को मरवाने का इल्ज़ाम था।
बाकी भुट्टो से अलग बेनजीर
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की मौत के नौ साल के बाद उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं। बेनजीर का भारत विरोध अपने पिता जितना तीखा नहीं था। वो कई बार भारत आईं। सबसे पहले अपने पिता के साथ शिमला समझौते के समय भारत आईं थीं। इस बीच, भुट्टो के पिता शाहनवाज भुट्टो की बात किए बगैर बात तो अधूरी ही रहेगी। वे भी कट्टर भरात विरोधी थे। हालांकि जूनागढ़ में 99 से अधिक फीसद आबादी हिन्दुओं की थी पर वहां पर राज मुहम्मद महाबत खनजी का था। शाहनवाज उनकी रियासत में प्रधानमंत्री थे। उन्होंने खनजी को
सलाह दी कि वह जूनागढ़ का पाकिस्तान में विलय कर लें। पर इसका वहां की जनता ने कसकर विरोध किया। जूनागढ़ में जनमत संग्रह भी हुआ। यह 1948 में हुआ था और वहां के 99.95 फीसद लोगों ने भारत के साथ ही रहने का फैसला किया था।
कौन थी बिब्बो
शाहनवाज भुट्टो ने पाकिस्तान शिफ्ट होने के बाद बिब्बो नामा की एक अदाकरा से निकाह किया कर लिया। वह बला की खूबसूरत और हाजिर जवाब औरत थीं। उसकी आवाज में जादू था। उसे शेरो- शायरी में दिलचस्पी थी। उसे उस्ताद शारों के सैकड़ों शेर याद थे। वह संगीत निर्देशक और हिरोइन भी थी। बिब्बो (1906- 1972) की मां भी अच्छा गाती थीं। वह दिल्ली से थी। बिब्बो महत्वाकांक्षी थी और छोटी उम्र में ही मुंबई चली गई थीं। उसने 1947 तक हिन्दी फिल्मों में खूब नाम कमाया। दरअसल बिब्बो समकालीन थीं देविका रानी, दुर्गा खोटे, सुलोचना, मेहताब, शांता आप्टे और नसीम बानों की। कहते हैं कि उसकी नसीम बानों से खूब पटती थी क्योंकि दोनों दिल्ली से थीं। बिब्बो देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गई। एक तरह से वह अपने ठीक-ठाक करियर को छोड़कर सरहद के उस पार चली गई थी। उसने तब तक करीब तीन दर्जन फिल्मों में काम कर लिया था। बिब्बो ने मास्टर निसार और सुरेन्द्र जैसे कलाकारों के साथ भी काम किया था। उसने सुरेन्द्र के साथ 'मनमोहन' (1936), 'जागीरदार (1937), ग्रामोफोन सिंगर (1938) तथा लेडिज ओनली (1939) जैसी कामयाब फिल्मों में काम किया। पाकिस्तान में उसने शाहनवाज भुट्टो से इशक के बाद निकाह कर लिया।
बहरहाल, बिलावल भुट्टो जरदारी सही नक्शे कदमों पर चल रहे हैं। आखिर उनका लक्ष्य तो पाकिस्तान का वजीरे आजम ही बनना है। उनके नाना भी विदेश मंत्री के बाद प्रधानमंत्री बने थे। हां, एक बात तय मानकर चलिए कि उनके गोवा में आने से भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई गर्माहट तो नहीं आएगी।