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किस तरह थम गई दिल्ली के तांगों की रफ्तार!

News Desk Editor
10 Sept 2018 4:33 PM IST
किस तरह थम गई दिल्ली के तांगों की रफ्तार!
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खंडहर की हर ईंट गवाह है...!

वीरानी के पहले बहार हुआ करती थी...!!

जी हां दोस्तों...!

दिल्ली नगर निगम द्वारा जारी किए आदेश ने घोड़ों से उनकी टापें छीन ली...और दिल्ली वालों से उनका इतिहास...उनकी तहजीब और उनके तांगे...आज भी लोगों के जेहन में वो दिन याद हैं...जब तांगे कुतब रोड, फतेहपुरी, खारी बावली, लाल कुआं, हौज काजी, अजमेरी गेट, सदर बाजार, गांधी नगर, महरौली, ओखला तक का सफर करते थे...मोहम्मद रफी ने क्या खूब गाना गाया है...तांगा लाहौरी मेरा...घोड़ा पिशौरी मेरा...बैठो मियां जी...बैठो लाला...मैं हूं अलबेला तांगे वाला...एक और मजेदार गाना जो बच्चों को बहुत पसंद है...वह है...लकड़ी की काठी...काठी पे घोड़ा...घोड़े की दुम पर जो मारा हथौड़ा...तांगों में हर प्रकार के घोड़े जुता करते थे...जैसे - अरबी, तुर्की, ईरानी, तुर्किमेनिस्तानी, तिब्बती... भारत में कश्मीर, पंजाब, कूचबिहार और आगरा के घोड़े अच्छी नस्ल के माने जाते हैं...सरकार के अध्यादेश से न जाने कितने तांगे वालों के घर चूल्हा नहीं जल पाता...और न जाने कितने घोड़े बेमौत मारे गये...एक तांगे वाले से बहुत से परिवार जुड़े होते हैं...जैसे घोड़े की नालें बनाने वाले का परिवार...घोड़े का चारा बनाने वाले का परिवार...घोड़े के साईस का परिवार...तांगा बनाने वालों का परिवार...घोड़े की चिकित्सा करने वालों का परिवार...तांगा पुरानी दिल्ली की शाहजहां आबादी सभ्यता का एक जीता-जागता उदाहरण था...कहते हैं जियाऊ पहलवान तांगे वाले...तांगे से पूर्व भी घोड़ों और जानवरों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ियां मौजूद थीं...जैसे -इक्का, हवादार, सुखपाल, चंडोल, पालकी, नालकी, निमें, डोली, शिकरम...पुराने समय में न तो सड़कें ही ठीक-ठाक बनी हुई थीं...और न ही कोई सुरक्षा थी...जिसके कारण लोग बाहर निकलने से डरा करते थे...जब नवाबों, राजाओं, बादशाहों की सवारियां निकलती थीं...तो उनके साथ बहुत सारे हाथी, घोड़े, ऊंट निकला करते थे...आज न तो वे सवारियां हैं...और न ही उनमें चलने वाले पुराने लोग...वर्तमान समय का तांगा तेज दौड़ती सवारियों और रिक्शाओं से मात खा चुका है...भले ही फिल्मों में बसंती की धन्नो ने...मर्द तांगे वाले ने...दिलीप कुमार ने...ओ.पी. नैयर ने अपने घोड़ों और तांगों द्वारा कितनी ही मोटरों को हरा दिया हो...आज की जमीन से जुड़ी सच्चाई यही है कि...अब दिल्ली की सड़कों पर तांगे नहीं दिखाई दिया करेंगे...!!

तांगों की घटती संख्या की बात करें तो...1971 में दिल्ली में लगभग 3500 तांगे थे...जो घट कर 1981 में 2000 रह गए...और 1991 में मात्र 1000 ही बचे...आज दिल्ली में केवल 232 रजिस्टर्ड तांगे हैं...जिनमें शायद 50 ही सड़कों पर आते होंगे...तांगे वालों के लिए यह बेरोजगारी का प्रश्न तो है ही...साथ ही उनके सामने अपने घोड़ों के रख-रखाव और खाने-पीने की समस्या भी उत्पन्न हो गई है...घोड़ा भी तब तक दमदार रहता है...जब तक वह दौड़े...वजन उठाए और मेहनत करे...तांगों की घटती संख्या की बात करें तो 1971 में दिल्ली में लगभग 3500 तांगे थे...जो घट कर 1981 में 2000 रह गए...और 1991 में मात्र 1000 ही बचे...आज दिल्ली में केवल 232 रजिस्टर्ड तांगे हैं...जिनमें शायद 50 ही सड़कों पर आते होंगे...एक दौर था कि ये तांगे 1 आने से लेकर 2 आने...3 आने या 4 आने तक सवारियों को दूर-दूर तक ले जाया करते थे...आज ऑटो-रिक्शा ने इनकी जगह ले ली है... सिवाए दुकानदारों का सामान लाने-ले जाने के अलावा इनका इस्तेमाल कम ही देखने को मिलता है...तांगे की सवारी की सबसे बड़ी खासियत है...उनका प्रदूषण से मुक्त होना...यही नहीं...एक तांगा वास्तव में 2 मोटर गाड़ियों का बोझा ढो सकता है...जहां बैलगाड़ी एक दिन में मात्र 20 किलोमीटर सफर तय करती है...वहीं एक तांगा लगभग 80 किलोमीटर दौड़ सकता है...इस तरह तांगों के समाप्त होने का अर्थ है...एक युग की समाप्ति...एक सभ्यता की समाप्ति और एक इतिहास का खात्मा...!!

दिल्ली मेट्रो और लो-फ्लोर बसों के बीच वर्तमान दौर के युवाओं को शायद ही यकीन हो कि...कभी शहर-ए-आजम में तांगे और बग्घियां रसूख की सवारी मानी जाती थी... एक जमाना था जब बग्घियां चलती थीं...मुगल दौर में सवारी की खातिर घोड़े होते थे...और घोड़ों पर काठी कसी जाती थी...इसके अलावा...बग्घी होती थी और पालकी होती थी...उन दिनों बांस वाली कुर्सी भी परिवहन के लिए प्रयुक्त होती थी...जिसे हवादार कहा जाता था...आज की पीढ़ी ने तो शायद हवादार का नाम भी नहीं सुना होगा...तांगों की सजावट रसूख का परिचायक होती थी...सजे धजे तांगों में संपन्न वर्ग बैठना पसंद करता था...इसके घोड़े बेहतर नस्ल के होते थे...और तांगों के लिए अलग स्टैंड होता था...लंबे सफर पर ही लोग बैलगाड़ियों पर चलना पसंद करते थे...पहले दिल्ली शहर में आने जाने का साधन तांगे ही थे...तांगों पर प्रतिबंध के चलते इससे अपनी आजीविका चलाने वालों ने अपने घोड़े बेच दिए...और अब दूसरे कामों में लग गये हैं...जब रीगल थिएटर में पृथ्वीराज कपूर अपनी फिल्मों के प्रीमियर के लिए आते थे...तो समय निकाल कर तांगे पर सैर जरूर करते थे...उन दिनों सुरक्षा का इतना तामझाम नहीं था...अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार की महिलाएं भी कनाट प्लेस तांगे से आती थीं...उन दिनों तांगे में ही सवारी की जाती थी...और लोग दूर दूर तक जाते थे...मुस्लिम परिवारों की महिलाओं के लिए तांगे में पर्दे की व्यवस्था होती थी...तांगे वाले बड़े अदब से पेश आते थे...राष्ट्रमंडल खेलों के पहले तक दिल्ली में तांगे चल रहे थे...लेकिन खेलों के दौरान प्रदेश सरकार ने तांगे को नये रूप में पेश करने की बात कही...और बाद में इसे बंद कर दिया गया...!!

आज तांगे का मूल स्वरूप बदल गया है...और सवारी ढोने की जगह इसका उपयोग माल ढोने में हो रहा है...आधुनिक समाज के जहन में है कि...तांगा और साइकिल रिक्शे मानवीय सवारी नहीं है...लेकिन इसके बावजूद रिक्शे की संख्या बढ़ रही है...आर्थिक प्रगति की दौड़ में भागे जा रही दिल्ली.. में अब तांगे दिखाई नहीं देते...नई दिल्ली के बाद पुरानी दिल्ली में भी घोड़ा गाडियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है...वैसे तांगे वालों के पुर्नवास के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं...लेकिन वो कितने कारगर साबित होते इसका इल्म सरकार को भी बखूबी था...तांगे शायद सरकार को संपन्नता की चादर में पैबंद की माफिक लग रहे थे...घोड़े के टापों की अवाज उनके लिए सिरदर्द बन गई होगी...इसलिए शीला सरकार को प्रतिबंध के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझा...घोड़ा गाड़ी पर बैन लगाने से महज तांगा चलाने वाले ही प्रभावित नहीं हुए... बल्कि घोड़े के पैरों में नाल लगाने वाले...चाबुक बनाने वाले...गाड़ी बनाने वाले जैसे लोगों को भी रोजगार के दूसरे विकल्प तलाशने पड़ रहे है...इसका सीधा सा मतलब है कि...बेराजगारों की फेहरिस्त में कुछ लोग और शामिल हो चुके है...आधुनिक जमाने में जहां मेट्रो ट्रेन और ट्रांसपोर्ट के कई अन्य अत्याधुनिक साधन मौजूद हैं...तांगों को पुराना जरूर कहा जा सकता है... मगर इनकी उपयोगिता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती...ये बेहद चिंता का विषय है कि...एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीरता बरतने की बात करते हैं...और दूसरी तरफ इको फ्रेंडली ट्रांसपोर्टेशन को हतोत्साहित करने में लगे हैं...!!

हो सकता है कि तंग गलियों में घोड़े गाड़ियों की आवाजाही से परेशानियां बढ़ जाती हों...लेकिन इसका हल प्रतिबंध लगाकर तो नहीं निकाला जा सकता...तांगे या रिक्शे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं देते बावजूद इसके भी हम महज आधुनिक दिखने की धुन में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं...अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर दुनिया के साथ कदम साथ कदम मिलना जितना जरूरी है...उतना ही जरूरी है उन पारंगत साधनों को प्रोत्साहित करना जो हमारे भविष्य को प्रभावित करते हैं...दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था...वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे...इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैर-जिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं... बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं...सड़कों पर जितने ज्यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे...हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही खुशहाल करने वाली होंगी...अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो...फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है...कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे...ज़रा शोले के सीन याद कीजिए… बसंती के याद आते ही आपको तांगा भी याद आ जाएगा...सवाल यही है कि...बसंती तांगे वाली तो याद है...लेकिन तांगा कैसे हमारे जहन से उतर गया...कभी शान की सवारी होने वाला तांगा...आज न सिर्फ अपनी पहचान...बल्कि अस्तित्व ही खोने की कगार पर है...!!

कुंवर सी.पी. सिंह वरिष्ठ पत्रकार

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