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मौत की भी उम्र तय होती है, जानिए कैसे, पढिए ये रिपोर्ट, मुलसमान , पिछड़े , दलित कितने दिन जीते है!

Shiv Kumar Mishra
24 May 2022 5:50 PM IST
मौत की भी उम्र तय होती है, जानिए कैसे, पढिए ये रिपोर्ट, मुलसमान , पिछड़े , दलित कितने दिन जीते है!
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प्रमोद रंजन: यह कहना अजीब लग सकता है कि भारत में पैदा हुआ आदमी कितना लंबा जीवन जिएगा, यह इससे तय हो जाता है कि उसने किस जाति में जन्म लिया है। लेकिन यही सच है।

चर्चित अर्थशास्त्री वाणीकांत बोरा इससे संबंधित एक विस्तृत शोध "Caste, Religion, and Health Outcomes in India, 2004-14" से किया था, जो वर्ष 2018 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ था।

नेशनल सेंपल सर्वे (2004-2014) पर आधारित अपने इस शोध में उन्होंने वर्ष 2004 से 2014 के बीच भारतीयों की मृत्यु के समय औसत आयु का अध्ययन किया।

यह अध्ययन बताता है कि भारत में ऊंची कही जाने वाले जातियों और अन्य पिछड़ी, दलित, आदिवासी जातियों की औसत उम्र में बहुत अंतर है।

सामान्यत: आदिवासी समुदाय से आने वाले लोग सबसे कम उम्र में मरते हैं, उसके बाद दलितों का नंबर आता है, फिर अन्य पिछड़ा वर्गों का। एक औसत सवर्ण हिंदू इन बहुजन समुदायों से बहुत अधिक वर्षों तक जीता है।

2014 में आदिवासियों की मृत्यु के समय औसत उम्र 43 वर्ष, अनुसूचित जाति की 48 वर्ष, मुसलमान ओबीसी की 50 वर्ष और हिंदू ओबीसी की 52 वर्ष थी, जबकि इसी वर्ष उच्च जाति के लोगों (हिंदू व अन्य गैर-मुसलमान) की औसत उम्र 60 वर्ष थी। आश्चर्यजनक रूप से ऊंची जाति के मुसलमानों की औसत उम्र ओबीसी मुसलमानों से एक वर्ष कम थी (चार्ट देखें)।

भारत में विभिन्न सामाजिक समूहों की औसत आयु, 2004 और 2014

सामाजिक समूह

2004 में औसत आयु

2014 में औसत आयु

उच्च जाति (गैर-मुसलमान)

55 60

ओबीसी (गैर-मुसलमान)

4952

ओबीसी मुसलमान

43 50

उच्च जाति मुसलमान

4449

अनुसूचित जाति

4248

अनुसूचित जनजाति

4543

2004 से 2014 के बीच के 10 सालों में सवर्ण हिंदू की औसत उम्र 5 साल, हिंदू ओबीसी की 5 साल, मुसलमान ओबीसी की 7 साल, ऊँची जाति के मुसलमान की 5 साल और अनुसूचित जाति की 6 साल बढ़ी। लेकिन, इस अवधि में अनुसूचित जनजाति की औसत उम्र 2 वर्ष कम हो गई। बताने की आवश्यकता नहीं कि आदिवासियों की औसत उम्र का कम होना देश के विकास की किस दिशा की ओर संकेत कर रहा है।

स्त्रियों को केंद्र में रखकर इसी प्रकार का एक और शोध इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा 2013 में भी किया गया था, जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने स्त्रियों संबंधी एक विशेष अंतराष्ट्रीय अध्ययन में उद्धृत किया था। इस शोध में पाया गया था कि पुरुषों और स्त्रियों की औसत उम्र में बहुत फर्क है। स्त्रियों में जाति के स्तर पर जो फर्क है, वह और भी चिंताजनक है। शोध बताता है कि औसतन दलित स्त्री उच्च जाति की महिलाओं से 14.5 साल पहले मर जाती है। 2013 में दलित महिलाओं की औसत आयु में 39.5 वर्ष थी जबकि ऊँची जाति की महिलाओं की 54.1 वर्ष।

इसी तरह, एक 'पिछड़े' या कम विकसित राज्य में रहने वाले और विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र में बड़ा फर्क है। "पिछड़े राज्यों" के लोगों की औसत उम्र सात साल कम है। विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र 51.7 वर्ष है, जबकि पिछड़े राज्यों की 44.4 वर्ष।

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि उच्च जातियों के सभी लोग 60 वर्ष जीते हैं और बहुजन तबकों के 43 से 50 साल। लेकिन अध्ययन बताता है कि भारत में विभिन्न सामाजिक समुदायों की "औसत उम्र" में बहुत ज्यादा फर्क है।

इस शोध से सामने आए तथ्यों से भारत में मौजूद भयावह सामाजिक असमानता उजागर होती है तथा हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारे विकास की दिशा ठीक है? क्या सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के कथित कल्याण के लिए राज्य द्वारा उठाए गए कदम पर्याप्त हैं?

[प्रमोद रंजन की असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। संपर्क : +919811884495,

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