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- भुजरिया (फुलरिया) पर्व
प्यारे दोस्तों, आज मैं आपको अपने शहर फिरोजाबाद में होने वाले एक त्यौहार फुलरिया पर्व के बारे में बता रहा हूं जो आज से लगभग 30 साल पहले बहुत ही जोश खरोश से मनाया जाता था लेकिन आज सोशल मीडिया के इस युग में त्योहार नाम मात्र के ही रह गए हैं। यूं तो इसका नाम भुजरिया पर्व था लेकिन बोलचाल की भाषा में हम फुलरिया ही कहते थे। आपकी जानकारी के लिए यह त्योहार मूलतः बुंदेलखंड का है।
याद आता है कि सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मिट्टी के टूटे घड़ों या बांस की पुरानी छबरिया (टोकरी) आदि में मिट्टी भरकर गेहूं के एक मुट्ठी दाने बोए जाते थे, यह मिट्टी वही होती थी जो नाग पंचमी के दिन गिलास में दूध लेकर जब हम छारबाग जाते थे तो वहां नागों को दूध पिलाकर अपने थैलों में खेत में पीली मिट्टी भर लाते थे।
मिट्टी के टूटे हुए घड़ों या पुरानी टोकरी में इनको बो कर ढक दिया जाता था, और रोज हल्का पानी दिया जाता था, तीन-चार दिनों में ही यह गेहूं अंकुरित हो उठते थे और मिट्टी के आगोश से निकलकर अपने प्यारे प्यारे चेहरे को सबको दिखाने लगते थे। इसके बाद रोज इनको पानी दिया जाता लेकिन ढक कर रखा जाता था ताकि इनको धूप न लगे। एक सप्ताह में अन्न उग आता था और रक्षाबंधन आते आते अंकुरण 6 से 10 इंच लंबे हो चुके होते थे, चूंकि इनको धूप नहीं मिला इसलिए क्लोरोफिल की कमी के कारण यह पीले पड़ जाते थे।
रक्षाबंधन के दिन फुलरिया की गुटेटा-बत्ता से पूजा की जाती थी और झूला झुलाया जाता था और उसके बाद इन फुलरिया को राखी-डोरा बांधा जाता था। थोड़ी-थोड़ी फुलरिया चाचा, ताऊ, मामा, बड़े भाई, बाबा, नाना और बुजुर्ग पड़ोसी आदि को दी जाती थी और बदले में उनको आशीर्वाद के साथ साथ कुछ पैसे मिलते थे। वह लोग यह फुलरिया लेकर अपने दाएं कान के पीछे रख लेते थे, हालांकि इसके पीछे का विज्ञान अभी पता नहीं है।
रक्षाबंधन की शाम को महिलाएं इन टोकरियों में उगी हुई फुलरियों को सिर पर रखकर जल स्त्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती थीं। रक्षाबंधन के दिन शाम को हुण्डा वाला बाग की तलैया (रसूलपुर) पर तलैया पर भुजरिया विसर्जन समिति का मेला लगता था, और वहां पर सभी माताएं, बहने और बालिकाएं थैले में लेकर फुलरिया सिराने आती थी, वहां लड़कों का प्रवेश बंद रहता था, लेकिन हमारे बारे में तो आपको पता ही है, जिस काम की मना करो वही करना है 🤪। यह बात हमें कभी समझ नहीं आती थी कि जब हम फुलरिया सिराने आए हैं लेकिन मेला तो भुजरिया विसर्जन का है 🤔
मेले में फुलरिया यानी भुजरिया की लंबाई और पीलेपन का कंपटीशन होता था जिसकी भुजरिया सबसे ज्यादा पीली और लंबी होती थी ऐसी प्रतियोगी बालिकाओं को पुरस्कार मिलता था। हमने तो यह भी सुना है कि वहां सबसे ज्यादा मैचिंग की कपड़े और एक्सेसरीज पहन कर आने वाली कन्या को भी पुरस्कार मिलता था।
उसके बाद पूरे हुण्डा वाला बाग में चाट- पकौड़ी, तमाशे वाले, मदारी, खेल खिलौने के दुकानदार से शॉपिंग और खाने पीने का दौर चलता था और सुबह वाले पैसे भी काम आ जाते थे। अंधेरा होने होने तक सभी लोग अपने-अपने घर लौट आते थे। पुराने समय में मेले एक मनोरंजन का साधन होते थे, घर से निकलने का बहाना होता है और इसी मेले के बहाने लड़के लड़कियों को जी भर के ताक भी लेते थे।
बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है यह पर्व अच्छी बारिश होने, फसल होने, जीवन में खूब सुख-समृद्धि आने की कामना के साथ मनाया जाता है। लिहाजा इस दिन लोग एक-दूसरे को धन-धान्य से भरपूर होने की शुभकामना के संदेश देते हैं।