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कोरोना स्पेशल: न काहू से दोस्ती न काहू से बैर
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अगर किसी राजनीतिक पार्टी या विचारधारा से कैडर टाइप का जुड़ाव न हो तो खाली- मूली राजनीतिक बहस में पड़ना सिवाय सर दर्द के और कुछ नहीं है....जैसे कि मेरे साथ होता है। जो सही लगता है , उसके बारे में लिख देता हूं और जो गलत लगता है , उसके बारे में भी लिख देता हूं। इस पॉलिसी से लोगों में तो भारी कन्फ्यूज़न होता ही है मगर उनकी तरह - तरह की प्रतिक्रिया देखकर मुझे भी बिना मतलब का टेंशन होने लगता है।
लोग तो मेरे बारे में कोई राय बनाने में इसलिए कंफ्यूज हो जाते हैं कि मैं उनकी तरह किसी एक पार्टी, विचारधारा या नेता का समर्थक नहीं हूं। कभी मैं उनके खेमे के नेता, पार्टी या विचारधारा की तारीफ कर देता हूं तो कभी इतनी ज्यादा आलोचना कि वे खिसिया ही जाते हैं। जब मैं पत्रकारिता में था , मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे साथियों , विरोधियों या परिचितों ने कभी मेरे ऊपर यह आरोप लगाया हो कि मैं किसी पार्टी या नेता विशेष का समर्थन अपने प्रफेशनल में कहीं करता नजर आता हूं।
हां, हर किसी के खेमे का विरोध या समर्थन मैं तब भी इसी तरह अच्छे- बुरे के आधार पर करके सभी को कंफ्यूज किया करता था।
सत्ता में जो भी रहा है, वह हमेशा मेरे निशाने पर रहा है। पत्रकारिता में जिस साल से नौकरी शुरू की तो जब तक ऑफिस में खबर या लेख लिखने या खबर लगाने / हटाने की स्थिति में आया तो उसी साल से यूपीए सरकार बन गई। नौकरी में आने से पहले आईआईएमसी में जब पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था तो सही गलत के आधार पर मुखर होने के कारण मेरे ऊपर वामपंथी होने का ठप्पा था।
इसी ठप्पे के कारण एनडीए सरकार समर्थक यानी संघी रुझान रखने वाले मेरे सभी सहपाठी मुझे वामपंथी समझ कर हमारे बैच के वामपंथी खेमे में मुझे रखकर मेरी भी जबरदस्त खिलाफत किया करते थे।
सरकार संघियों की थी इसलिए नौकरी ढूंढने और पाने में एक साल लग गया। कहीं नौकरी मिलने की गुंजाइश भी होती थी तो हमारे बैच का संघी खेमा अपनी गुटबाजी और संपर्कों के दम पर वहां का रास्ता ही बंद कर देता था। लिहाजा पहली नौकरी मिलने तक गोपनीयता बनाकर रखनी पड़ी। लेकिन वामपंथी होने का यह ठप्पा और संघी खेमे से इसी शत्रुता के चलते बाद के वर्षों में भी मैंने कई बड़ी जगहों पर नौकरी मिलते मिलते गवां दी थी।
जाहिर है, अगर मैं सही में वामपंथी या कांग्रेसी होता तो यूपीए सरकार का शासनकाल जब नौकरी मिलने के एक साल बाद ही शुरू हो गया था तो मुझे भी इसका फायदा मिलना चाहिए था। लेकिन राजनीतिक रुझान या सपोर्ट के मामले में मेरी हालत धोबी के कुकुर वाली ही थी।
... और आज भी अपना वही हाल है, जो उस वक्त था। उस वक्त एनडीए सरकार में वामपंथी यानी यूपीए समर्थक होने का ठप्पा चस्पा हो गया। फिर यूपीए सरकार आई तो उनके सत्ता में रहने के कारण उनके ही बुरे कामों की मुखर आलोचना करने में बाकी की बची खुची नौकरी काट दी तो वहां से भी कोई फायदा मिलने का कोई चांस तक नहीं रहा। अपनी उसी आदत के चलते यूपीए के किसी भी दल या नेता से अपना कोई सीधा वास्ता भी कभी नहीं रहा। बाकी मिलने जुलने का मौका तो पत्रकार होने के नाते बहुत बड़े बड़े नेताओं से मिलता ही रहा।
बहरहाल, कल यानी 1 अप्रैल से ही मैंने यह तय कर लिया है कि अब किसी नेता, पार्टी , विचारधारा की बुराई या आलोचना कतई नहीं करूंगा। वजह यह है कि अब जो बाकी की जिंदगी बची है , उसमें सही गलत देख कर भी उस पर बोलकर नाहक सरदर्द लेने की बजाय अपने काम काज पर ध्यान दूंगा ताकि कुछ तरक्की कर सकूं।
इन सब फालतू की राजनीतिक बहसों में पड़कर होना- हवाना तो कुछ नहीं है उल्टा वह समय भी बर्बाद हो जाता है, जिसे मै अपने कामकाज को आगे बढ़ाने या फिर कुछ और सकारात्मक करने में इस्तेमाल कर सकता हूं। हो सकता है कि मेरे कुछ परिचित लोगों को यह स्वार्थ लगे लेकिन अब मैं कोई नौकरी करने वाला पत्रकार तो हूं नहीं, जिसे अपने पेशे से ईमानदारी निभानी है। अब मैं एक छोटा मोटा व्यापारी हूं और शौकिया पत्रकारिता को जिंदा रखूंगा। लेकिन पत्रकारिता को जिंदा रखने के जो और साधारण तरीके होते हैं, उनके जरिए इससे मैं जुड़ा रहूंगा। मसलन आर्थिक या अन्य ऐसे विषयों पर कभी कभार मैं सोशल मीडिया या कुछ मीडिया समूहों के लिए लेख लिखता रहूंगा, जिनमें किसी पार्टी, नेता या विचारधारा के समर्थन/ आलोचना की बजाय कुछ सकारात्मक होगा।
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