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स्त्री प्रेम का प्रयाय, प्रेम को पुरूष क्या जाने?
संजय रोकड़े
स्त्री का कोमल मन पुरूष से अलग और संवेदनशील होता है। जितना प्रेम एक स्त्री में रचता बसता है उसके विपरित पुरूष में हवस रचती बसती है। मजेदार बात तो ये है कि वो अपनी हवस को ही प्रेम मान कर गाहें- बगाहें स्त्री पर थोपते रहता है।
हालाकि ऐसा भी नही कि स्त्री,इससे अछूती है, पर उसकी अपनी मर्यादाएं है। वो पुरूष के इतर प्रेम को ही सब कुछ मानती है।
स्त्री की हया, उसका शरमाना, उसका लजाना भी तो इस बात का प्रमाण है कि वो हवस को अस्वीकार कर प्रेम को अपनाना चाहती है।
इसके इतर पुरूष जितना इक स्त्री के वक्षस्थल, उसके नितम्बों, उसके जनांग में रचता बसता है उतना ही स्त्री पुरूष के अहसासों में रचती बसती है। उसमें जीती है।
बहरहाल ये एक अलग विषय है इस पर फिर कभी विस्तार से।
पर इस समय मैं यहां यूं कहूं कि हवस ही पुरूष का प्रेम है तो अतिशयोक्ति नही होगा।
देखा जाए तो पुरूष ने कभी प्रेम को जिया ही नही है। शायद इसीलिए पुरूष कभी प्रेम को लिख भी नही सका है।
इसमें कोई दो राय नही है कि पुरूष से कहीं अधिक स्त्री प्रेम की कोमल भावनाओं को बेहतर तरीके से समझती है। उसे पल हर पल जीती है। कभी मां बन कर, कभी बहन तो कभी बेटी या कभी जीवन सन्गिनी बन कर।
प्रेम को जितना पुरूष नकारता है उससे कईं गुना ज्यादा प्रेम को स्त्री स्वीकार करती है। प्रेम को स्त्री जितना पवित्र मानती है उतना ही पुरूष प्रेम को अपित्र मानता है। यहां तक की वो प्रेम को अपराध तक मानता है।
प्रेम को उजागर करके स्वछन्द जीने की जितनी आदी एक स्त्री होती है उतना ही पुरूष प्रेम को छूपा कर जीने का हामी होता है।
सच कहें तो प्रेम को नकारना और छिपाना इक तरह का अपराध है और इस अपराध को पुरूष पीढियों दर पीढ़ी अंजाम देते आया है।
दरअसल पुरूष ने ही प्रेम को छूपा कर अपराध की संज्ञा दी है।
इसे किसी भी लिहाज से कभी भी उचित नही ठहराया जा सकता है।
गर, प्रेम है तो उसे खुले आम स्वीकार करें। प्रेम और हवस के बीच के अंतर के साथ।
बहरहाल, ये तो तब संभव होगा जब पुरूष को उसके पुरुषत्व या यूं कहें उसके पुरूष होने का अहम खत्म होगा। लेकिन दुखद तो ये है कि पुरूष स्त्री के लिखे प्रेम को भी स्वीकार करने का साहस तक नही जुटा पाता है। उसमें भी उसका पुरुषत्व जाग जाता है।
सच मानिए तो प्रेम को समझने, उसे स्वीकारने के लिए पुरूष को इक अलग नजरिये की दरकार है। ऐसा नजरिया चाहिये जिस नजर से स्त्री प्रेम को देखती है। महसूसती है।
प्रेम को जिसने भी समझा वो जात-पात, उंच-नीच, अमीरी-गरीबी, धर्म- संप्रदाय, तेरा-मेरा जैसी तमाम छोटी छोटी बातों से ऊपर उठ गया है। यही स्त्री के प्रेम की प्रकृति भी होती है।
प्रेम में स्त्री अपना कोमल मन कब किसको सौप दे उसे ही पता नही होता है। ये कमाल अक्सर स्त्री समाज के बन्धनों से ऊपर उठ कर करती आ रही है। प्रेम को संजीदगी के साथ जीती आ रही है।
यूं कहें कि वो प्रेम को ही जीती देखी गयी है तो गलत ना होगा।
स्त्री का यही प्रेम पुरुषों को सदियों से चैलेंज करते आ रहा है। प्रेम के इसी सरल और सहज भाव के चलते स्त्रियां या कहें तो बेटियां कभी खाप पंचायतों के माध्यम से आग के हवाले की जाती रही है तो कभी पुरुषों के अहम के चलते बेमौत मारी जाती रही है।
पुरूष का यही आचरण इस बात का प्रमाण है कि उसने कभी प्रेम को जिया ही नही है। और ना ही कभी स्त्री के प्रेम को स्वीकार किया है।
यकिन- मानिएं जिस दिन भी पुरूष प्रेम को समझ लेगा, उसे स्वीकार कर लेगा उस दिन से समाज में नफरत का जहर खत्म हो जायेगा।
कोई भी स्त्री नफरत के जहर के चलते आग के हवाले नही की जायेगी।
तो आज दरकार इस बात की है कि पुरूष, स्त्री का कोमल मन अपनाएं।
स्त्री की तरह ही प्रेम को जाने, प्रेम को समझे, प्रेम को जिएं। समाज से नफरत मिटाएं।