लाइफ स्टाइल

लव, वार और बाजार में सब कुछ जायज है

Shiv Kumar Mishra
13 Jun 2020 3:27 PM GMT
लव, वार और बाजार में सब कुछ जायज है
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विजय शंकर पाण्डेय

पहले पान मसाले की फैक्टरी खोलो. कैंसर के मरीज अपने आप पैदा हो जाएंगे. फिर उनके इलाज के लिए अस्पताल खोलो. मुनाफा ठीक ठाक चाहिए तो पान मसाला कंपनी के रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट विंग को नए नए प्रयोग की छूट दो. जरूरत पड़े तो ज्यादा से ज्यादा इन्वेस्ट करो. जितने ज्यादा लोग खाएंगे, उतना मुनाफा बढ़ेगा. जितने ज्यादे फ्लेवर होंगे उतने ज्यादे कस्टमर होंगे. ज्यादा से ज्यादा लोग खाएंगे तो ज्यादा से ज्यादा लोग अस्पताल भी पहुंचेंगे. ज्यादा से ज्यादा दवाइयां भी बिकेंगी. 'किसिम किसिम' की सहूलियतें इजाद करो, अस्पताल में भी मरीज को बेहतर से बेहतर सहूलियतें दो. जब आप बेहतर सहूलियत दोगे. तभी न उसकी कीमत वसूलने के हकदार होगे, ...और तभी सरकारी अस्पतालों का खटारापन बेपर्दा होगा. न न क्वालिटी पर बात करते वक्त कीमत की तुलना करना बेमानी है. उच्चे लोगों की पसंद उच्ची ही होती है.

हां, महंगे इलाज का टेंशन भी नहीं देने का. अब इंश्योरेंस कंपनी खोल लो. लोगों को बताओ कि कैंसर से तनिक न घबराए. इत्मीनान से पान मसाला खाएं. इसके बाद अस्पताल पहुंचेगे तो इंश्योरेंस कंपनी संभाल लेगी. और मान लीजिए ख़ुदा न ख़्वास्ता कोई घटना दुर्घटना हो गई. तो भी परेशान न हो जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी का मुकम्मल इंतजाम है. दाह संस्कार से लेकर बेटी की शादी और बेटे की पढाई तक का पूरा इंतजाम है. कितनी वेल प्लान्ड है न एक कन्ज्यूमर की लाइफ. अब आप इत्मीनान से कन्ज्यूमर फ्रेंडली अखबार पढ़िए और चैनल भी देखिए. जानिए कि क्यों सैफ से शादी करना करीना के लिए आसान नहीं था. अरे रे रे.... बोर हो रहे हैं? तैमूर भी बहुत बोर हो रहा होगा इन दिनों. इसमें भी किसी न किसी का फायदा ही है.

आइए अब टॉपिक चेंज करते हैं. वाकई आप बोर हो रहे होंगे. दूरदर्शन की खबरों से भारत में टीवी जर्नलिज्म की एंट्री होती है. अखबार या प्रिंट जर्नलिज्म की एक अपनी सीमा थी. सो उससे कुछ आगे की सोची गई. मगर तेवर और मिजाज अखबारी ही रहा. अर्थात फोकस खबरों पर ही रहा. सुंदर, सौम्य, शालीन चेहरों को खबरें पढ़ते सुनने का भी एक अपना आनंद था. मगर दूरदर्शन ठहरा सरकारी चैनल. उसकी अपनी सीमाएं थी. फिर वह सरकार से असहमत लोगों को कब तक रोक पाएगा. सही बात तो यही थी कि वह तब भी सरकारी भोंपू ही था.

सो निजी चैनलों के जरिए वैरायटी का इंतजाम किया गया. इन्वेस्टर का धर्म ही है मुनाफा कमाना. यह उसकी नेचुरल च्वाइस है. आखिर कोई क्यों इन्वेस्ट करेगा? कोई तो लॉजिक होना चाहिए? फिर चल निकला कारोबार. मगर अखबारी दुकानों को बगले झांकने की नौबत आ गई. फिर उन्होंने भी नए नए प्रयोग शुरू किए. दिल्ली, लखनऊ, पटना और भोपाल का अखबार वाराणसी, गोरखपुर जैसे अपेक्षाकृत छोटे महानगरों तक ग्राहक की तलाश में पहुंचा. बलिया जैसा नितांत पिछड़ा जिले का एडिशन पढ़ने के बाद तो वहां के लोगों के पांव जमीन पर नहीं थे. भरोसा होने लगा. अब बैरिया, सिकंदरपुर और रसड़ा जैसे दूरदराज के इलाकों में भी विकास की आंधी पहुंचने वाली है, बिल्कुल बुलेट ट्रेन वाली रफ्तार से. वहां के छुटभैया नेता भी बड़े इत्मीनान से मास्क बांट कर आज फोटो खिंचवा रहे हैं....

लगता है लोकल को लेकर कुछ ज्यादा ही वोकल हो गया. आइए फिर फ्लेवर बदलते हैं. दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह का उपहार सिनेमा अग्निकांड वाला एपिसोड देख देश भाव विह्वल हो उठा. इन्वेस्टरों को टीवी जर्नलिज्म में नया स्कोप नजर आने लगा. नए नए चैनल आए. तर्क दिया गया कि जितने ज्यादे चैनल होंगे उतनी ज्यादे वैरायटी होगी. उतना ही ज्यादा लोकतंत्र मजबूत होगा. इतना बड़ा देश है. कोई इग्नोर नहीं फील करेगा. सबकी आवाज दिल्ली तक गूंजेगी. खबरें घटना स्थल से सीधे लाइव होने लगी. दर्शकों के मनोरंजन का पुख्ता इंतजाम हो गया. मगर मन को क्या कीजिएगा. वह विज्ञापन आपने देखा है या नहीं. जिसमें रीतिकालिन नायिका अदा के साथ कहती है, क्या करें, कंट्रोल नहीं होता. तो हां, मन की क्षुधा तो सुरसा की तरह बढ़ती ही जाती है.

मार्केटिंग का एक अलग ही फंडा है. आप लगातार मेरी साड़ी से उसकी साड़ी सफेद कैसे कह कर डिटर्जेंट नहीं बेच सकते. बीच बीच में फ्लेवर चेंज करते रहना चाहिए. बताइए कि इसके लिए नींबू वाला डिटर्जेंट भी जरूरी है. बीच बीच में पूछते रहिए कि आपके टूथपेस्ट में नमक है या नहीं. इससे नए लोग जुड़ेंगे. प्लस पुराने कस्टमर भी कूल कूल चेंज फील करते रहेंगे.

बातचीत के दौरान मेरे एक टीवी जर्नलिस्ट मित्र ने कभी बताया था कि लोग रेप की खबर पहले पढ़ते थे. फिर टीवी पर देखने सुनने लगे. टीवी वालों को टीआरपी बनाए रखनी थी. सो नाट्य रूपांतरण का प्रयोग शुरू हुआ. लोग बाग चाव से इंज्वॉय करने लगे. भूख बढाने वाला टॉनिक इतना कारगर रहा कि लोग सीधे रेप के सीन की हसरत पालने लगे. तकनीक सुलभ दौर में रेपिस्ट विधिवत वीडियो वायरल करने लगे. तारक मेहता का उल्टा चश्मा वाली टप्पू सेना ने तो टीवी की सुर्खियां बटोरने के लिए किडनैपिंग का भी विधिवत प्रयोग किया.

किसी दौर में कलकत्ता मतलब द स्टेट्समैन हुआ करता था. हमारे मुहल्लों गलियों में लगे होर्डिंग्स बैनर के जरिए इस बात की बार बार तस्दीक की जाती थी कि आप कलकत्ता में रह रहे हैं तो स्टेट्समैन जरूर पढ़ते होंगे. बार बार एक ही बात रटाई जाएगी तो जाहिर है एक न एक दिन आप यह रट लेंगे कि कोरोना से बचने के लिए मास्क होना ही चाहिए, बाकी शरीर भले नंग धड़ंग रहे. क्योंकि प्रचार वाले ने यह तो बताया ही नहीं कि पूरे कपड़े पहनने के बाद मास्क भी पहनना है. जानकार बताते हैं कि टेलीग्राफ की लांचिंग से पहले विधिवत सर्वे करवाया गया. आईआईएम कलकत्ता के मैनेजमेंट गुरुओं ने आनंद बाजार समूह को यह मशविरा दिया कि भले आप बांग्ला के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार के पब्लिशर हैं, अंग्रेजी पाठकों के लिए कलकत्ता मतलब स्टेट्समैन है. इसिलिए इस तिलिस्म या एडिक्शन को तोड़ना ही सबसे बड़ी चुनौती है.

यही वजह है कि द टेलीग्राफ की लांचिंग के वक्त टार्गेट रीडर गैर बांग्ला भाषी अंग्रेजीदा लोग थे. विशेष तौर पर बंगाल-बिहार (तब झारखंड नहीं था) का सीमावर्ती अंचल. क्योंकि कलकत्ता मोह को भेदना भी इतना आसान नहीं था. हालत तो यह है कि स्टेट्समैन ने बंगाल की सीमा के बाहर पैर पसारने की कोशिश की तो इसी ब्रांडिंग के चलते (ऐसी मेरी निजी राय है) वैसी कामयाबी नहीं मिली, जो कलकत्ता में वह चख चुका था. इसी ब्रांडिंग के चलते लोगों के मन में यह बात बैठा नहीं पाया कि दिल्ली का मतलब भी स्टेट्समैन. किसी दौर में पंजाब केसरी की तूती पंजाब में बोलती थी. अमर उजाला और जागरण ने चुनौती पेश की तो नेता स्टाइल में वहां के रीडर्स के बीच यही परसेप्शन बनाने की कोशिश की गई कि यूपी वाले भइया लोगों का अखबार है. आपको तो पता ही है कि सिर्फ इश्क ही नहीं, वार और बाजार में भी सब कुछ जायज है. आप अखबार या चैनल के लिए सिर्फ एक पाठक या दर्शक मात्र ही नहीं है, हंड्रेड परसेंट कन्ज्यूमर हैं.

ऐसी ही मोनोपॉली राजस्थान में राजस्थान पत्रिका की हुआ करती थी और अविभाजित बिहार में हिंदुस्तान की. मगर इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए प्रतिद्वंद्वियों ने घाट घाट का पानी पीया. इमैजिन कीजिए सेंध लगाने के लिए हाथी पर बैठकर जब माधुरी दीक्षित शहर में घूमी होंगी तो कितनी क्यूट लग रही होंगी? कैसे महीनों फ्री में अखबार पूरे के पूरे प्रदेश को पढ़वाया गया, ताकि आप एक खास फ्लेवर के एडिक्टटेड हो जाए. किसिम किसिम की स्कीमें चलाई गईं. फ्री में अखबार पढिए, बाइक या कार जीतिए. बहुत कूपन काट काट कर बटोरे होंगे आप भी. ऐसी भी भीड़ अखबारों के दफ्तर में पहुंचती थी कि फलां दिन वाला कूपन काट नहीं पाया था, कृपया उस दिन का पुराना एडिशन दे दीजिए. उस दौर में पत्रकार कूपन मैनेजर भी हुआ करते थे. ठीक वैसे ही जैसे आज शिक्षक क्वारंटीन सेंटरों में भी ड्यूटी बजा रहे हैं.

तब मेरा पाला भी एक ऐसी ही मकान मालकिन से पड़ा था. चूंकि नौकरी चलाने के लिए शहर के सारे अखबारों पर नजर रखना मेरी जिम्मेदारी थी. सो सारे अखबार मेरे घर आते थे. देर रात घर लौटता तो जाहिर है देर तक सुबह सोता भी. मेरी मकान मालकिन मेरी इस मजबूरी का पूरा पूरा फायदा उठाती. वे ग्राउंड फ्लोर पर ही अखबार पर कब्जा कर लेतीं. जगने पर मैं अब उनसे मांगता कि कृपया जरा मेरा अखबार पढ़ने के लिए दे दीजिए. पता चलता सारे अखबारों के कूपन मैडम ने काट लिए. उन्हें यह मुगालता थी कि अखबार तो इसी का है. क्या करेगा कूपन. इसको तो फ्री में ही मिलता होगा. बाद में मैंने उन्हें जानकारी दी कि मैडम हीरे की फैक्टरी में नौकरी बजाने का यह मतलब कत्तई नहीं है कि तराशे गए हीरे मेरे ही हैं. उन अखबारों का मैं विधिवत भुगतान करता हूं. आपने कूपन काट लिया मुझे ऐतराज नहीं है. मगर अखबार में उस कूपन के पीछे वाली खबर भी कट जाती है. यह मेरे लिए चिंता का सबब है. इस पर उनका तर्क था कि खबरें तो सब रात को आप दफ्तर में पढ़ ही लेते होंगे. वैसे कसूर उनका नहीं था. विशेष तौर पर हिंदी पाठकों की यह परंपरा रही है कि बहुतेरे पाठक अखबार पड़ोसी के यहां ही पढ़ते हैं. या चाय वाले के यहां पढ़ते हैं. इस तरह लोकतंत्र बचाते हुए वे पड़ोसी के यहां ही पकौड़ी संग चाय की चुस्की भी ले लेते हैं. हैं न डबल फायदा. तो मेरी मकान मालकिन को भी किरायेदार पत्रकार रखने का फायदा मिलना ही चाहिए न.

इतना तो आप भी जानते होंगे. कि फ्री में इस दुनिया में कुछ नहीं मिलता. बाजार में हर डील की कीमत चुकानी पड़ती है. हर फ्री में कुछ न कुछ लोचा होता है. एक बात और गांठ बांध लीजिए. कि अखबार या चैनल विज्ञापन के बूते ही जिंदा हैं. क्योंकि आपको खबरें फ्री में चाहिए. आप जिस कीमत में अखबार खरीदते हैं उसमें कायदे के पान मसाले का छोटा पाउच भी नहीं खरीदा जा सकता.

बांग्ला में एक कहावत जतो दोष नंदो घोष. अर्थात मैंने तो कोई गलती की ही नहीं. जितनी गलतियां हुई नंदो घोष ने की है. स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में बहुत बारीक फर्क है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (स्वच्छंदता) के नाम पर आप सोशल साइटों पर जितना गंध मचाना चाहें, मचा लिजिए. अपने मन की भड़ांस मिटा लीजिए. आपको कूल बनाए रखने के लिए सोशल साइटों का पुख्ता इंतजाम कर दिया गया है. देखिए लोहिया को मत याद करने लगिएगा. अब वे आउटडेटेड हो चुके हैं. सड़कों पर ट्रैफिक बाधित करना गैरकानूनी है.

सोशल साइट पर ठीक रहेगा. क्यों.... तो वहीं सुरक्षित बीवी बच्चों के साथ घर में बैठकर ट्वीटर पर ट्रेंड ट्रेंड खेल कर लोकतंत्र का नियमित पाठ जारी ऱखिए. बीच बीच में मीडिया को पानी पी पी कर कोसते रहिए. सारी समस्याओं की जड़ यह मीडिया ही है. हां, सोशल साइटों पर आपके द्वारा फैलाया गया यह दुर्गंध भी मार्केट ही तैयार कर रहा है. बल्कि यूं कह लीजिए फैलवाया जा रहा है. बस तय आपको करना है कि कहां आप कम्पलीट कम्फर्ट फील करते हैं. कौन सा फ्लेवर आपको जंच रहा है. सपोर्ट में या विरोध में. आपके सामने सिर्फ दो आप्शन है. आर या पार. कोई लाइफ लाइन नहीं है. आप ही न चाहते हैं. आपको भगत सिंह भी चाहिए. मगर किलकारी पड़ोसी के आंगन में गूंजनी चाहिए. सब कुछ आपकी ही शर्तेों पर कैसे संभव है. कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ेगी.

देखिएगा, खरीद कर पान मसाला भले खा लें, पढ़ने के लिए पत्र, पत्रिकाएं और किताबें गलती से भी न खरीदें. यह विशुद्ध फिजुलखर्ची है. और जब भी गुस्सा आए पत्तलकार पत्तलकार जाप शुरू कर दें. आप 500/1000 रुपये पर अपना वोट बेच सकते हैं, डंडा झंडा ढो सकते हैं, किसी भी पॉलिटिकल पार्टी की रैली में हिस्सा ले सकते हैं. सरकार बदलते ही रातों राते पूरे प्रदेश की बेशकीमती लग्जरियस गाड़ियों के झंडे बदल सकते हैं. मगर पत्रकार आपको हमेशा दूध का धूला चाहिए. यह तो गणेश शंकर विद्यार्थी ही लिख गए हैं कि दवात में कलम का आगमन हुआ और कवि पैदा हुए, पीली पत्रकारिता का जन्म तो तभी हो गया था.....

भोजपुरी में एक कहावत है, मंगनी के बैल के दांत ना गिनल जाला

Shiv Kumar Mishra

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