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श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं

शकील अख्तर
प्रियंका गांधी भी कैसी जिद पर अड़ी थीं! मजदूरों की मदद करने की। जो मदद दो महीने से नहीं हो पाई या नहीं की गई वह अब उन्हें करने दी जाती? पांच दिन तक एक हजार से ज्यादा बसें यूपी के बार्डर पर खड़ी रहीं। मगर उनमें मजदूरों को बैठने नहीं दिया गया। बसें साफ सुथरी, चमचमाती दिख रही थीं। धूप में सड़क पर खड़ा मजदूर, उसके छोटे छोटे मासूम बच्चे, औरतें उम्मीद से बसों की तरफ बढ़ते हैं मगर उन्हें रोक दिया जाता है कि अभी बसों के कागजों की जांच चल रही है। बच्चा पूछता है मां कागजों में किस बात की जांच हो रही है? थकी मां कहती है कि बेटा सरकार यह देख रही है की यह बस है कि नहीं! मगर मां यह बस तो सामने खड़ी है। बस है! बच्चा मजबूती से जवाब देता है। युवा मां बाप की आंखों में आंसू जाते हैं। मगर कहते हैं कि बेटा पता नहीं - - - है कि नहीं। जब सरकार कह रही है कि नहीं है तो नहीं होगी।
प्रियंका जी, राहुल जी अगर इस बच्चे की मजबूती को ऐसे ही बनाए रखना है तो जब भी मौका मिले इन बच्चों का पढ़ाने में अपनी पूरी ताकत लगा देना। देश की जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा मजदूर, किसान, गांव देहात के बच्चों का पढ़ाई के लिए निर्धारित कर देना। शिक्षा का मतलब साक्षरता नहीं, हाई एजूकेशन। अंग्रेजी शिक्षा, आधुनिक शिक्षा। हार्ड वर्क नहीं हावर्ड। अंग्रेजों के टाइम में गरीब दलित भीमराव आम्बेडकर विदेश में पढ़ने गए थे। और वापस आकर उन्होंने क्या कहा था? शिक्षा शेरनी का दूध है जो पिएगा दहाड़ेगा।
शिक्षा ही है जो इन मजदूर के बच्चों को आज की तल्ख हकीकतों की याद दिलाएगी। सड़क की वह तकलीफ याद दिलाएगी कि पांवों के छालों के बावजूद चल नहीं पा रहे उसके मां बाप उसे कंधे से उतारने को तैयार नहीं की सड़क बहुत गर्म है नन्हें के पांव जल जाऐंगे। वह कारण समझाएगी जिनकी वजह से विदेशों में रह रहे अमीर भारतीयों को विशेष विमानों से भारत लाया गया। उनके साथ उनके कुत्ते को भी लाया गया। एयर पोर्ट पर कोई जांच नहीं की गई और उसके बाद उन सभी बड़े शहरों जहां वे आए थे कोरोना फैल गया। लेकिन इल्जाम पहले तब्लीगी जमात के बहाने मुसलमानों पर और फिर मजदूरों पर लगा दिया गया। टीवी चैनलों की सुबह हिन्दु मुसलमान करते, दोपहर शराब की दुकान पर मजदूर ढुंढते और रात को कांग्रेस से जवाब मांगते होने लगी। शिक्षा ही इन बच्चों में वह विवेक पैदा करेगी कि वे यह समझ सकें कि-
"श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं"
क्यों होता है?
क्यों होता है कि उनके मुंह पर सेनेटाइज कर दिया जाता है। आंखें जल जाती हैं। और अमीर विदेशी भारतियों के लिए आंखे बिछा दी जाती हैं। वे क्वेरंटाइन के लिए जैसा मध्य प्रदेश की खबरें फोटुओं के साथ आईं थीं शौचालयों में रखे जाते हैं। बिहार में खाने में सूखा चूरा ( चिवड़ा) नमक और हरी मिर्च के साथ दिया जाता है। कई जगह फैंक कर खाने का सामान दिया जा रहा है, जिन्हें लेने के लिए पिंजरे जैसी बंद जगह में लोग एक दूसरे पर
गिर पड़ रहे हैं। और दूसरी तरफ विदेशियों को आइसोलेशन में रखने के लिए फाइव स्टार होटलों में व्यवस्था की जाती है। वे सड़क पर मर रहे हैं, रेल की पटरियों पर मर रहे हैं, भूख से मर रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं और साथ ही यह इल्जाम भी उन पर आ रहा है कि उनके पास शराब खरीदने को पैसे हैं मगर रेल्वे का टिकट खरीदने के लिए नहीं। झूठ का यह माहौल इस तरह बनाया गया जैसे न्यूज चैनल ने रेल्वे कि किसी टिकट विंडों पर जाकर शूट किया हो कि वहां मजदूर बुकिंग क्लर्क से फ्री में या उधार टिकट मांग रहा हो!
रेल्वे में आज तक कोई मजदूर बिना टिकट नहीं मिला है। कभी बिना टिकट नहीं पकड़ा गया है। लाइन में लगता है, धक्के खाता है और फिर जब विंडों पर पहुंचता है तो कहा जाता है कि फार्म गलत भरा है। हटो। फिर बेचारा ब्लैक में या जिसे कहते हैं दलाल को ज्यादा पैसा देकर टिकट लेता है। स्लीपर के टिकट पर नीचे बैठ कर जाता है मगर टिकट लेता है। बिहार जाने वाले मजदूर को
टिकट कितनी मुश्किल से मिलता है यह सबको मालूम है। उसके लिए यह कहना कि वह दारू की लाइन में खड़ा है मगर रेल्वे में फ्री जाना चाहता है गरीब का, ईमानदारी का, श्रम का सबसे बड़ा अपमान है। हांलाकि आज वह ज़ी चैनल और वह एंकर सुधीर चौधरी खुद अपने पत्रकारों के इन आरोपों का जवाब नहीं दे पा रहे कि चैनल ने इतने दिनों से कोरोना के मामलों को क्यों छुपा कर रखा? पत्रकारों को क्यों धमकी दी गई कि वे खांसी बुखार की शिकायतें न करें। नहीं तो नौकरी चली जाएगी।
इस चैनल का और इसके एंकर का डीएनए कौन टेस्ट करेगा? पूरे मीडिया में इसने कोरोना का खौफ फैला दिया। और हद यह है कि खुद अपने यहां पूरे स्टाफ का टेस्ट नहीं करवा रहा। यही मजदूर का बच्चा करेगा अगर इसे ठीक से पढ़ने लिखने की सुविधाएं मिल जाएं। हांलाकि इस मामले में नेताओं से ज्यादा उम्मीद करना व्यर्थ है मगर फिर भी उन्हें सार्वजनिक रूप से यह बताते रहना जरूरी है कि देश के विकास और देश की जनता की जागरूकता का एक ही रास्ता है और वह है शिक्षा। उनके कानों में यह बात डालते रहना जरूरी है कि आम जनता को शिक्षित करके अपने कार्यक्रमों के आधार पर साथ लो। केवल बातों से नहीं। क्योंकि बातें बनाने वाले कल तुमसे भी बेहतर आ जाएंगे। जैसा कि कांग्रेस को केन्द्र और दिल्ली दोनों जगह देखना पड़ा।
शीला दीक्षित 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। दिल्ली के विकास का दूसरा दौर उन्हीं के समय शुरू हुआ। पहला दौर 1982 के एशियाड का था जो इंदिरा गांधी ने शुरू किया था। शीला दीक्षित से हमने कहा कि बिहार, यूपी, बुंदेलखंड से आया यह मजदूर आपकी दिल्ली संवार रहा है। इसके बच्चों की जिंदगी संवारने के लिए आप भी कुछ कीजिए। इन बच्चों को पढ़ाइए, लिखाइए।
जहां मजदूर काम करता है वहीं मोबाइल स्कूल पहुंचा दीजिए। अगर मजदूर का यह बच्चा पढ़ लिख गया तो मजदूर की एक नई जनरेशन शुरू हो जाएगी। लेकिन नेता ऐसी बातें कहां सुनते हैं। शब्द संवारना तो उन्हें पसंद आ गया मगर पढ़ाना भारी काम लगा। अगर शीला ने आज से 22 -23 साल पहले दिल्ली में शिक्षा का अलख जगा दिया होता तो आज की स्थिति में प्रियंका गांधी को अकेले सरकार से सवाल नहीं पूछना पड़ते उस युवा मजदूर दंपत्ति की आवाज भी उनके साथ उठती जो अपने बच्चे से कह रहे थे कि बेटा अगर सरकार कह रही है कि यह बस नहीं है तो नहीं होगी।
शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और चीफ आफ ब्यूरो रहे हैं)