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न थाना न कचहरी, फिर कैसे बंटता है किन्नरों का इलाका?
मर्दों से दिखते शरीर में लचक जनाना। हमारे ही समाज में अलग से दिखने वाले इन लोगों को कुदरत ने ही अलग बनाया है। अधूरे तन में मन पूरा स्त्री का है। सामान्य लोगों की तुलना में जितनी अलग इनकी शारीरिक बनावट है, उतने ही अलग इनके रहन-सहन के तौर-तरीके। हमारे समाज में जितना ढका-छुपा इनका जीवन है, उतने ही ढके-छुपे इनके रीति-रिवाज। गुरु-शिष्य परंपरा में रचा-बसा इनका जीवन खुद में ऐसे कई राज समेटे है, जिसपर इनके लोगों कहते हैं कि पुरखों ने जिसे परदे में रखा है, उसे परदे में रहने देना उचित है। सामज की वे बातें जो गोपनीय रखनी चाहिए, उसे गोपनीय रखने की शपथ भी हर किन्नर को निभानी होती है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आलमबाग इलाके में किन्नर मिष्ठी के शिष्य, जिन्हें इनकी भाषा में चेला कहा जाता है, लोगों के घरों में मांगलिक प्रयोजनों में नेग मांगते हैं। वह बताती हैं कि किन्नर के तौर पर पैदा होते ही वह अपने परिवार की आंखों में खटकने लगी थीं। छुटपन में ही उनके घर वालों ने उनकी गुरु सोनाली किन्नर को सौंप दिया था। सोनाली ने ही उन्हें मिष्ठी नाम दिया। अपने साथ रखा। मर्दाना जिस्म में जनानी रूह वाली मिष्ठी को सोनाली अपना बेटा कहतीं और उन्हें काफी समय तक पुरुषों के ही वेश में रखे रहीं। यही वजह थी कि मिष्ठी इंटर तक की पढ़ाई कर सकीं। फिर उन्होंने आईटीआई किया, वह भी दो अलग-अलग ट्रेड में। बकौल मिष्ठी, दादी गुरु सुधा की मंशा थी कि किन्नर समाज के लोगों को आगे बढ़ाया जाए, उन्हें हुनर सिखाया गया। यह प्रयोग मिष्ठी के साथ शुरू हुआ और उसे ब्यूटीशियन का कोर्स करवाया गया। वह दो पार्लर चला रही हैं।
मिष्ठी कहती हैं कि यह लोगों की धारणा है कि किसी भी घर में किन्नर पैदा होने की सूचना मिलते ही उसके समाज के लोग उस बच्चे को छीन ले जाते हैं। लेकिन यह गलत बात है। ऐसा नहीं है। ज्यादातर मामलों में परिवार ही उन्हें लोकलाज के डर से सौंप देता है। घर में रहने के दौरान तक उन्हें प्रताड़ना झेलनी पड़ती है वह अलग। कमोबेश हर किन्नर के जीवन की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है। यही उसकी कहानी है। जब कोई नया सदस्य गुरु के पास पहुंचता है, तो उसकी अलग से तालीम होती है। नाचना, ताली बजाने का अलग हुनर सिखाया जाता है। जिनमें मर्दाना टच ज्यादा लगता है, ऐसे लोगों को ढोलक बजाने की सीख दी जाती है। एक उम्र के साथ शुरू होती है, आधिकारिक तौर पर चेला बनाने की प्रक्रिया। आधिकारिक तौर पर चेला घोषित करते ही गुरु अपनी संपत्ति का हिस्सा चेले के साथ बांटते हैं। उत्सव के माहौल में दूसरे घरानों के गुरु और गद्दियों के प्रमुख आते हैं। गुरु अपने चेले को नया नाम देते हैं। साज-शृंगार के सामान देते हैं। पायल-बिछिया और दूसरे गहने देते हैं। गृहस्थी का सामान भी शिष्यों को मिलता है। हैसियत के मुताबिक पैसा-रुपया भी देते हैं। उसके बाद से किन्नर के लिए माता-पिता, पति और भाई-बहन और परिवार का मुखिया सब कुछ गुरु ही बन जाता है। गुरु के नाम का सिंदूर लगाने की भी परंपरा है। मिष्ठी इस रिवाज को सामान्य लोगों के गुरुकुल रिवाज की तरह ही देखती हैं।
शुद्धिकरण की परंपरा
चेला बनने के बाद कई जगहों पर शुद्धिकरण की भी परंपरा होती है, जिसमें मेल प्राइवेट पार्ट का ऑपरेशन करवाया जाता है। मिष्ठी बताती हैं कि उनकी गुरु इसके पक्ष में नहीं थीं। इससे यह भी कहा जा सकता है कि परंपराओं में बदलाव और उनका सुधारीकरण इस समाज के भी भीतर हो रहा है। जैसे गुरु अपना शिष्य बनाते समय अपनी परंपरा के तौर पर अपनी संपत्ति बांटते हैं। उसी तरह उनके गुरु से अलग होने की भी एक रवायत है। यानी, अगर किसी भी वजह से कोई किन्नर अपने गुरु से अलग होना चाहे तो उसे वह सब कुछ वापस करना होता है, जो उसे गुरु से मिला। कई बार तो इसका बाकायदा हिसाब-किताब भी होता है कि कितना गुरु से मिला और कितना चेले ने कमा कर दिया। ऐसी सूरत में बात पंचों के सामने होती है।
अगर किसी दूसरे घराने का किन्नर किसी दूसरे गुरु को पसंद आ जाए तो उसे अपने घराने में ले जाने के लिए पहले गुरु को मुंहमांगी रकम देनी होती है। महेंद्र भीष्म पेशे से इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में रजिस्ट्रार हैं। इसके अलावा उनकी एक और खास पहचान ऐसे लेखक के तौर पर है, जिन्होंने किन्नर समाज पर 'किन्नर कथा' और 'मैं पायल' किताबें लिखी हैं। तकरीबन ढाई दशक से वह किन्नर समुदाय से जुड़े हैं। महेंद्र, किन्नरों के बारे में बताते हैं कि, ये वे लोग हैं, जिनके रिप्रोडक्टिव ऑर्गन पूरी तरह विकसित नहीं हुए होते। पुरुष शरीर, लेकिन स्त्रियों सी छाती, चाल-ढाल और आवाज स्त्री की। शरीर स्त्री सा लेकिन मूंछ आती है। स्तन विकसित नहीं होते लेकिन उनमें दूध आता है। यूटरस न होने जैसी तमाम दूसरी बातें भी हैं। जन्मजात किन्नर मन से स्त्री होते हैं। उन्हें औरतों की तरह सजना-संवरना रास आता है और औरतों के बीच ही वे खुद को सहज महसूस करते हैं।
किस तरह बंटे हैं किन्रर?
किन्नरों की चार शाखाएं होती हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। बुचरा जन्मजात किन्नर होते हैं। नीलिमा स्वयं बने हुए, मनसा स्वेच्छा से शामिल होते हैं। वहीं, हंसा शारीरिक कमी या नपुंसकता के कारण बने हिजड़े हैं। इसका जिक्र महेंद्र भीष्म ने अपनी किताब, किन्नर कथा में भी किया है। वह इसी पंचायत के दूसरे पहलू को भी सामने रखते हैं। भीष्म बताते हैं कि समाज के रीति-रिवाज तोड़ने या कुछ गलत करने पर किन्नरों को सजा भी मिलती है, जिसका फैसला पंच करते हैं। मामला पंचायत में जाता है। अगर ज्यादा गंभीर मामला होता है तो बड़ी पंचायत बैठती है। वे पंचायत का फैसला मानने को बाध्य हैं। एक घराना किसी अपराध में अगर किसी को अपने घर से निकाल दे तो दूसरा उसे रखता भी नहीं है।
लेकिन सवाल उठता है कि अगर कोई न मानना चाहे तो? इसपर मिष्ठी कहती हैं कि हम अपना मामला पुलिस के पास नहीं ले जातीं। गलतियां तो एक बात है, कई बार संपत्तियों का विवाद या फिर कुछ ऐसे ही मामले और भी खड़े हो जाते हैं। जैसे सामान्य परिवार में होता है। हम पंचों की बात को ही आखिरी फैसला मानते हैं।
परदादी गुरु, दादी गुरु, गुरु और चेलों के इस घराने का उत्तराधिकार किसके पास रहेगा, यह सब कुछ घराने के गुरु ही तय करते हैं। घराने का गुरु वरीयता के हिसाब से उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। उनके निधन के बाद सबसे वरिष्ठ के पास ही घराने के गुरु की कुर्सी जाती है। चूंकि इस समुदाय में गुरु ही श्रेष्ठ और सर्वमान्य है तो उनके आदेश से विमुख होने की बात कम ही देखने-सुनने को मिलती है।
किस गुप्त भाषा का इस्तेमाल करते हैं किन्नर?
आपस में किन्नर एक गुप्त भाषा का इस्तेमाल भी करते हैं। यह कोड लैंग्वेज ऐसी सूरत में इस्तेमाल होती है, जब वे किसी गाढ़ी मुसीबत में फंसे हों या फिर उन्हें सबके बीच अपनी कोई खास बात करनी हो, जिसे और कोई न समझ सके।
किसी के घर में बच्चा हुआ, शादी-ब्याह हुआ तो फौरन कैसे किन्नरों को पता चल जाता है?
दरअसल यह उनकी सामाजिक संरचना का एक खास हिस्सा है। ये अलग-अलग दिखने वाले दरअसल कड़ी दर कड़ी कहीं जुड़े हैं। हमारे अपने बीच के लोग इनके मददगारों में शामिल हैं। काबिले गौर यह बात भी है कि जो किन्नर एक जगह आते-जाते हैं, वही उस क्षेत्र में रहते हैं। उनके अलावा दूसरे किन्नर उस जगह नहीं आते-जाते। इसकी वजह है, एक अलग किस्म से उनके यहां इलाके का बंटवारा। यह बंटवारा कोई मौखिक या कब्जाया नहीं होता। यह बंटवारा उनकी संपत्ति का हिस्सा है, जो उन्हें गुरु से मिलती है। बाकायदा लिखत-पढ़त में। किन्नरों के पुराने गुरुओं के पास तो अरबी में लिखे दस्तावेज हैं, जिससे साबित होता है कि पुश्तैनी तौर पर उस इलाके की मिलकियत उनकी रही है। मिष्ठी इस गूढ़ संरचना को समझाते हुए क्षेत्र के बंटवारे को अपनी ही संपत्ति पर मकान बनाने के हक सरीखा देखती हैं।
इस समाज का सामाजिक ढांचा है तो रिश्ते भी हैं। भले ही इनमें खून का रिश्ता न हो, लेकिन कोई किसी का बेटा-बेटी है तो कोई किसी में दादी-पोती का रिश्ता संभल रहा है। ऐसे में यह भी खासा अचरज में डालने वाला है कि कैसे ये रिश्ते बनते-संवरते हैं। कैसे कोई किसी की बहन और परदादी-पड़पोती हो जाती हैं। दरअसल, इनकी संरचनाओं के बनने का आधार इनके गुरु हैं। वही इनके माता-पिता सरीखे हैं। उन्हीं की रजा में ये सब बात के लिए राजी हैं। गुरु माता-पिता हुए तो दो शिष्य आपस में बहनें। गुरु के गुरु का उस किन्नर से रिश्ता दादी-पोती का है। मिष्ठी इसी तरह रिश्तों की गुत्थी को समझती हैं।
महेंद्र भीष्म इस बीच एक और रिश्ते या यूं कहें कि रिश्ते में पनपते रिवाज का जिक्र करते हैं, जिसे बहनापा कहा जाता है। यह एक तरह से दो किन्नरों के मिलने के तौर-तरीके से संबंधित है। वह बताते हैं कि जैसे सामान्य समाज में मुलाकात पर गले लगना या हाथ मिलाने जैसी परंपरा है, उसी तरह किन्नरों में स्तनों को छूने और चूमने का भी रिवाज है।
किन्नरों की कुलदेवी कौन?
किन्नरों की अंतिम विदाई रात के समय होती है, जिसमें समाज के ही लोग शामिल होते हैं। दफनाने और जलाने, दोनों ही तरह के रिवाज इनमें हैं। महेंद्र भीष्म बताते हैं कि जो जिस तरह से अंतिम संस्कार करना चाहे, वह कर सकता है। ज्यादातर लोग दफनाते ही हैं क्योंकि सनातन परंपरा में भी जिनका विवाह नहीं होता उन्हें दफनाया ही जाता है। विविधताओं वाले देश में अलग-अलग क्षेत्रों में भी किन्नरों की परंपराएं अलग हैं। मसलन उनके विवाह के संदर्भ में ही। उत्तर भारत के तमाम किन्नर अपने गुरु को ही अपने पति के भी रूप में पूजते हैं। वे बहुचरा देवी को अपनी कुलदेवी मानते हैं। इनके कई मंदिर हैं, लेकिन सबसे प्रसिद्ध गुजरात के मेहसाणा में है, जिसे वडोदरा के राजा मानाजीराव गायकवाड ने बनवाया था। जबकि दक्षिण भारत में आराध्य अरावन से शादी की परंपरा है। शादी के ही अगले रोज वे स्वयं को विधवा मान लेती हैं। शादी से पहले यहां मेला लगता है। मेले में देश-विदेश के किन्नर हिस्सा लेते हैं। अरावन गांडीवधारी अर्जुन और नागकन्या उलूपी के पुत्र माने जाते हैं। उत्तर भारत के किन्नरों की इस मेले में शामिल होने की कोई मनाही नहीं है।
किन्नरों की अजब दुनिया में मैं
कम आबादी वाले समाज के इस तबके की तमाम मान्यताएं, क्षेत्रवार बदलती जाती हैं। लेकिन जो एक बात नहीं बदलती, वह है गुरु-शिष्य परंपरा। यही इनके समाज का आधार भी है और सार भी।
रोहित उपाध्याय का NBT में लिखा गया लेख साभार