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वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे पर नहीं दिखा कोई उत्साह, गंभीर समस्या पर किसी ने नहीं की कोई बात

Shiv Kumar Mishra
11 Sep 2020 4:28 AM GMT
वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे पर नहीं दिखा कोई उत्साह, गंभीर समस्या पर किसी ने नहीं की कोई बात
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जरूरत है परिवार, पड़ोस व परिचय वालों से हम सकारात्मक संवाद बनाये रखे जिससे एकदूसरे से मानसिक सम्बल मिले। इसप्रकार देश मन से मन की बात करने में आत्मनिर्भर हो सकेगा।

रामभरत उपाध्याय

मानव जीवन की व्याधियों में से एक आत्महत्या के मामलों में व्रद्धि भी शुमार है। विगत दिवस वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे गुजरा, मगर इस गम्भीर समस्या पर जितनी बातचीत मुख्यधारा में होनी चाहिए दुर्भाग्यवश उतनी से आधी भी नहीं हो रही।

दुनियाभर में हर 40 सेकण्ड में, भारत में हर 4 मिनट में व अपने आगरे में हर 36 घण्टे में एक आत्महत्या का मामला दर्ज किया जाता है। ये मामले ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अंधाधुंध प्रगतिपथ पर हम मानसिक स्वास्थ्य को खोते जा रहे हैं नतीजतन इस अनमोल जीवन को स्वयं ही खत्म कर देते हैं।

अगर इस मुद्दे पर समाज, सत्ता व मीडिया थोड़ा चैतन्य हो जायें तो आत्महत्या के मामलों में उल्लेखनीय गिरावट हो सकती है।मनोचिकित्सक बताते हैं कि आत्महत्याओं को पूरी तरह खत्म तो नहीं किया जा सकता लेकिन काफी हद तक इसका ग्राफ कम किया जा सकता है।

कोरोनाकाल में अधिकांश लोगों का आर्थिक गणित बेहद खराब हो चुका है। देश की अर्थव्यवस्था रसातल में है, बेरोजगारी चरम पर है व महंगाई पसीने में तरबतर किये हुए है। इस सबके ऊपर टीवी के प्राइम शो विविध प्रकार से थरथराने का काम बखूबी कर रहे हैं। नतीजा पहले से जख्मी कमजोर दिल मुक्ति का रास्ता फंदे में तलाशने लगता है।

सहनशक्ति नहीं बची :

भारतीय मानस पहले इतना कमजोर कभी नहीं था जितना अब दिखाई पड़ रहा है। कम सुविधा व सीमित संसाधन में भी संतोष और सुख से रहने का गुण इस देश की संस्कृति में रचा-बसा है है। इसका सबसे बड़ा आधार हमारी आध्यात्मिकता रही है। आम भारतीय की सोच ईश्वर में विश्वास कर हर परिस्थिति में हिम्मत और धैर्य रखने की है। जैसे-जैसे 'लक्जरी' ने जरूरतों का रूप धारण आरंभ किया है। आर्थिक उदारीकरण और टेक्नोलॉजी ने चारों दिशाओं में पंख पसारे हैं, वैसे-वैसे तेजी से एक साथ सब कुछ हासिल करने की लालसा भी तीव्रतर हुई है।

साधन और सुविधा पर सबका समान हक है मगर उस हक को पाने में क्यों कुछ लोगों को सब कुछ दाँव पर लगा देना पड़ता है और क्यों कुछ लोगों के लिए वह मात्र इशारों पर हाजिर है। जीवन स्तर की यह असमानता ही सोच और व्यक्तित्व को कुंठित बना रही है।

जबकि सोच की दिशा यह होना चाहिए कि मेहनत और लगन से सब कुछ हासिल करना संभव है बशर्ते धैर्य बना रहे। लेकिन विडंबना यह है कि समय के साथ सहनशक्ति और समझदारी विलुप्त हो रही है।

सामाजिक-पारिवारिक संरचना ध्वस्त

बदलते दौर में टीवी-संस्कृति ने परस्पर संवाद को कमतर किया है। परिणाम-स्वरूप माता-पिता के पास बच्चों से बात करने का समय नहीं बचा है। यह स्थिति दोनों तरफ है। आज का किशोर और युवा भी व्यस्तता से त्रस्त है। कंप्यूटर-टीवी ने खेल संस्कृति को डसा है। आउटडोर गेम्स के नाम पर बस क्रिकेट बचा है। टीम भावना विकसित करने वाले, शरीर में स्फूर्ति प्रदान करने वाले और खुशी-उत्साह बढ़ाने वाले खेल अब विलुप्त हो रहे हैं।

यही वजह है कि ना बाहरी रिश्तों में सुकून है ना घर के रिश्तों में शांति। दोस्ती व संबंधों का सुगठित ताना-बाना अब उलझता नजर आ रहा है। कल तक जो संबल और सहारा हुआ करते थे आज वे बोझ और बेमानी लगने लगे हैं।

युवा, क्यों है बिखरा हुआ

देश की युवा शक्ति आज के हाँफते-भागते दौर में अस्त-व्यस्त-त्रस्त है या फिर अपनी ही दुनिया में मस्त है। आत्मकेन्द्रित युवा अपने सिवा किसी को देख ही नहीं रहा है। जब उसे पता ही नहीं है कि दुनिया में उससे अधिक दुखी और लाचार भी हैं तब वह अपने दुख-तकलीफों को ही बहुत बड़ा मान लेता है। घर आने पर कोई उससे यह पूछने वाला नहीं है कि उसके भीतर क्या चल रहा है। हर कोई टीवी के कार्यक्रमों के अनुसार अपनी दिनचर्या निर्धारित करने में लगा है। किसे फुरसत अपने ही आसपास टूटते-बिखरते अपने ही घर के युवाओं को जानने-समझने की। उनकी भावनात्मक जरूरतों और वैचारिक दिशाओं की जाँच-पड़ताल करने की?

एक दिन जब वह आत्मघाती कदम उठा लेता है तब पता चलता है कि ऊपर से शां‍त और समझदार दिखने वाला युवा भीतर कितना आँधी-तूफान लिए जी रहा था। वास्तव में माता-पिता को समय के साथ बदलना होगा। कब तक सारी की सारी अपेक्षाएँ संतान से ही की जाती रहेगी। ढेर सारे सामाजिक दबाव, सारी जिम्मेदारियाँ उसी की क्यों, सारे समझौते वही क्यों करें? दबाव की इस स्थिति को माँ-बाप, निकट रिश्तेदार और मित्र ही कुशलता से निपटा सकते हैं, अगर वे चाहें।

समाधान हमारे भीतर है :

जी हाँ, समाधान कहीं और से नहीं हमारे ही भीतर से आएगा। खुद को खत्म कर देने की बात जब आती है तो दूसरों को दोष देने में थोड़ा संकोच होता है। वास्तव में हम स्वयं ही हमारे लिए जिम्मेदार होते हैं। कोई भी दुख या तकलीफ जिंदगी से बड़ी नहीं हो सकती। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा दौर आता है जब सबकुछ समाप्त सा लगने लगता हैं लेकिन इस का यही तो सार नहीं कि खुद ही खत्म हो जाएँ।

हर आत्महत्या करने वाले को एक बार, सिर्फ एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या उसकी जिंदगी सिर्फ उसकी है। इस जिंदगी पर कितने लोगों का कितना-कितना हक है क्या उसे पता है? क्या वह जानता है कि उसकी मौत के बाद उसका परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, करीबी लोग कितनी-कितनी मौत मरेंगे। हमें कोई हक नहीं उस जिंदगी को समाप्त करने का जिस पर इतने सारे लोगों का अधिकार है।

जब रोशनी की एक महीन लकीर अंधेरे को चीर सकती है। जब एक तिनका डूबते का सहारा हो सकता है और एक आशा भरी मुस्कान निराशा के दलदल से बाहर ला सकती है तो फिर भला मौत को वक्त से पहले क्यों बुलाया जाए? जिंदगी परीक्षा लेती है तो उसे लेने दीजिए, हौसलों से आप हर बाजी जीतने का दम रखते हैं, यह विश्वास हर मन में होना चाहिए।

जरूरत है परिवार, पड़ोस व परिचय वालों से हम सकारात्मक संवाद बनाये रखे जिससे एकदूसरे से मानसिक सम्बल मिले। इसप्रकार देश मन से मन की बात करने में आत्मनिर्भर हो सकेगा।

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