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- साड़ी पहने स्त्रियों को...
साड़ी पहने स्त्रियों को या तो यौन कुंठित दिखाना या फिर संवेदनहीन दिखाना, बहुत ही सूक्ष्मता से गढ़ा हुआ नैरेटिव है
अनुवाद में एक बहुत महत्वपूर्ण शब्द होता है विध्वंसात्मक अनुवाद! और जब भी हम अनुवाद की बात करते हैं, तो इसे बहुधा एक भाषा से दूसरी भाषा में भाषांतरण तक सीमित कर देते हैं. जबकि यह बहुत बढ़कर है. इसमें एक शब्द आता है विध्वंसात्मक अनुवाद. अब आप सब फिर से किताबों तक पहुँच जाएँगे. यह उससे और बहुत आगे है. इस विध्वंसात्मक अनुवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है "इन दिनों ओटीटी में साड़ी पहने स्त्रियों को या तो यौन कुंठित दिखाना या फिर संवेदनहीन दिखाना." यह बहुत ही सूक्ष्मता से गढ़ा हुआ नैरेटिव है.
दरअसल जिस प्रकार लिखने का प्रयोजन होता है उसी प्रकार अनुवाद का प्रयोजन होता है कि वह उस स्थिति या व्यक्ति को अपने अनुसार लक्ष्य पाठकों के लिए प्रस्तुत करना चाहता है और उनकी धारणा अपनी धारणा के अनुसार बनाना चाहता है. इसी प्रकार जो भी सीरीज बनाता है, उसका भी कोई प्रयोजन है. जब वह किसी साड़ी पहने स्त्री को और वह भी चालीस पार की स्त्री को यौन कुंठित दिखाता है, तो उसका उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है. जितनी भी इन दिनों हमें सीरीज देखने को मिलती है, वह और कुछ भी नहीं हैं, बस हम साड़ी पहनने वाली स्त्रियों का यौन कुंठित के रूप में अनुवाद हैं.
Gentzler & Tymoczko के अनुसार अनुवाद भाषांतरण नहीं बल्कि एक विषम प्रक्रिया है। अनुवाद करते समय अनुवादक न केवल समय, स्थान, विवाद, ऐतिहासिक और अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता है, अपितु वह यह भी ध्यान रखता है कि उसकी अपनी विचारधारा क्या है और उसका जो सोर्स अर्थात संसाधन है उसकी विचारधारा क्या है और वह किस प्रयोजन के लिए अनुवाद कर रहा है। फ़िल्में, धारावाहिक या कोई भी दृश्य माध्यम मात्र विचारों और स्थितियों का अनुवाद है। अब यह निर्भर करता है कि एक ही स्थिति को दो लोग कैसे भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं, अपनी अपनी विचारधारा के अनुसार देखते हैं और फिर उसीके आधार पर अपनी कृति का निर्माण करते हैं। जैसे एंद्रे लेफ्रे (Lefevere) का भी कहना है कि अनुवादक अनुवाद को अपनी विचारधारा या राजनीति के अनुसार मनचाहा रूप दे सकता है। और यह तनिक भी गलत नहीं होगा और लगेगा। वहीं बेकर का कहना है कि यदि वैचारिक आधार पर अनुवाद को बदला जाता है तो अनुवादक छवि की एक अलग ही कहानी प्रस्तुत कर देगा।
ओटीटी पर दिखाई जाने वाली फ़िल्में और सीरीज महिलाओं को लेकर यही कर रही हैं, क्योंकि भारतीय समाज को लेकर एक तो इन निर्माताओं की सोच विकसित नहीं हुई है और जो थोड़ी बहुत विकसित हुई है, वह एक आयातित अर्थात वामपंथी सोच से प्रेरित है या कहें वही है। हालिया रिलीज़ बॉम्बे बेगम्स की औरतें हों या फिर पगलैट की साड़ी और बिंदी लगाने वाली औरतें. जहां बॉम्बे बेग्म्स में एक उम्र के बाद की यौन कुंठा है, तांडव में राजनीति में औरतों को महज शो पीस और पुरुष राजनेताओं के बिस्तर पर लेटने वाली बना दिया गया है, और सभी के "बिंदी है" और सभी साड़ी पहने हैं.
हालिया रिलीज़ पगलैट में तो मध्यवर्गीय साड़ी पहनने वाली स्त्री को स्वार्थी, बेकार माँ, और बेटे के गुजर जाने पर ईएमआई के लिए रोने वाली माँ बता दिया है. किसी भी बेटी की माँ सहज ऐसी नहीं होगी जो पति के देहांत के बाद उसे ले जाने से इंकार करे और जब पचास लाख का चेक मिल जाए तो वह बेटी को ले जाने के लिए तैयार हो जाए. हो भी तो हो सकता है कि एक आध प्रतिशत हो भी, पर एक विधवा माँ की बेटी होने के नाते, मैंने अपने परिवार में देखा कि कैसे मेरे मामा, मामी, चाचा चाची, ताऊ ताई आदि सभी ने मेरी माँ को बहुत प्यार से अपनाया था.
यह साड़ी पहनने वाली स्त्रियों की छवि को नष्ट करने का एक प्रोपोगैंडा है, जिसमें हमारी स्त्रियाँ न केवल फँसती हैं, बल्कि ताली भी बजाती नज़र आती हैं. जबकि जो एक समय के बाद वाली ऊब है, वह वर्णाश्रम जैसी व्यवस्थाओं से कटने के कारण उपजी ऊब है, जिसमें समाज के प्रति सृजनात्मक करने के स्थान पर यौन कुंठा को शांत करने का हल बता दिया जाता है. सृजन और सौन्दर्य से भरे हुए "काम" का कुंठा में "विध्वंसात्मक" अनुवाद है!
थप्पड़ फिल्म में केवल एक ही स्त्री सुखी दाम्पत्य जीवन जी रही है और वह दिया मिर्जा, जिन्होनें ईसाई स्त्री का चरित्र निभाया है,
इसी प्रकार पगलैट में केवल नाजिया ही एकमात्र संवेदनशील लड़की है, यहाँ तक कि उस लड़की की माँ भी स्वार्थी हैं, शेष परिवार की स्त्रियाँ तो हैं हीं स्वार्थी और संवेदनहीन
मैं साड़ी और बिंदी प्रतीकों के साथ सुसज्जित स्त्री के इस विध्वंसात्मक अनुवाद के विरोध में हूँ, और सदा रहूँगी