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- प्रकृति की प्रकृति को...
शंभूनाथ शुक्ल
जनवरी २०१९ में गुजरात के कच्छ इलाक़े में धौलावीरा स्थित सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों के बीच भ्रमण करते हुए मैंने महसूस किया था, कि प्रकृति के समक्ष मनुष्य कितना बौना है। खूब उन्नत सभ्यताएँ बस पल भर में नष्ट हो जाती हैं। सिंधु घाटी में स्थित अन्य सभ्यताएँ- मोआनजोदड़ो, हड़प्पा तथा उसी काल की दूसरी सभ्यताएँ, मिश्र, बेबिलोन, ग्रीक आदि सब यूँ ही नहीं ख़त्म हुई होंगी। या तो युद्ध की विभीषिकाओं अथवा प्रकृति के प्रकोप के चलते ही ये सब पृथ्वी की गोद में समा गयी होंगी। इस सृष्टि में मनुष्य अकेला प्राणी नहीं है। और भी लाखों प्राणी हैं। लेकिन लालच, संग्रह और पूँजी के उदय ने उसको ही नष्ट किया। इटावा के बीहड़ों का अध्ययन करते हुए मैंने पढ़ा था, कि आगरा के बाद यमुना तेज़ी से ढाल पर आती है, इसलिए वह ज़मीन को काटती चलती है। यहाँ जो पौधे उगते हैं वे तीन फ़ीट तक ही पहुँचते हैं। इनकी पत्तियाँ बकरियाँ चट कर जाती हैं। और यह पूरा इलाक़ा वनस्पति विहीन होता गया। नतीजा हर साल किनारे की ज़मीन यमुना, चम्बल, पहुज और क्वारी की भेंट चढ़ती गई। कई हज़ार वर्ग किमी का इलाक़ा बीहड़ बन गया। ऊँट और बकरियाँ दो ऐसे प्राणी हैं, जिनकी खाऊ प्रवृत्ति के चलते पृथ्वी का कई लाख किमी का क्षेत्र ऊसर, दलदल और रेगिस्तान में तब्दील हुआ। ऊँट की ही प्रजाति का जानवर जिराफ़ है, जिसकी गर्दन इसीलिए ऊँची होती गई, क्योंकि वृक्ष अपनी पत्तियों को बचाने के लिए थोड़ा ऊपर उठाते गए। किंतु मनुष्य ने इन निष्कर्षों से कुछ नहीं सीखा।
वैश्वीकरण की हमारी चाहत ने दुनियाँ को क़रीब तो ला दिया, लेकिन प्रकृति के सूत्र को काट दिया। हम 2013 में हुए केदार हादसे से भी नहीं सीखे और प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करते रहे। कोरोना के रूप में जो महामारी आई है, वह उसी का रूप है। अब हमें न रेमिडिसिवीर बचा सकता है, न हाइड्रो क्लोरोक्वीन। हमें सिर्फ़ हमारी अपनी आदतें बचा सकती हैं। प्रकृति को समझना। उससे छेड़छाड़ न करना। और दवाओं के लिए किसी दवा कंपनी की शरण में जाने से बेहतर है, अपने संचित ज्ञान को समझना। रसोई हमारे खानपान की जान है और वहां पर रखी हर चीज के कोई न कोई औषधीय गुण हैं पर हम उन्हें या तो जानते नहीं अथवा जानते भी हैं तो अनदेखी करते हैं। हमारा आयुर्वेद हमारी रसोई के अनुभव से ही बना है। अनुभव आवश्यकता के बूते पनपता है। जब भारत में जैनियों और बौद्घों की देखादेखी वैष्णव पंथ का चलन बढ़ा तब अहिंसा और जीवहत्या के विरोध में एक बड़ी जमात खड़ी हुई और उसने शाकाहार में ही तमाम ऐसी चीजें ईजाद कीं जो हमें हमारे शरीर को हर वह चीज मुहैया होने का भरोसा देती थी स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है। मसलन जाड़े में तामसी भोजन के स्थान पर कलौंजी अथवा काला जीरा का प्रचलन। गोंद, अलसी और आटे के लड्डू जाड़े में मुफीद माने जाते हैं और वह भी इसलिए क्योंकि जाड़े में व्यक्ति गर्मियों की तुलना में ज्यादा भोजन तो करता ही है साथ में ऐसा भोजन करता है जिससे उसके शरीर का संतुलन बिगड़ता है और वह कोलोस्ट्रोल आधिक्य का शिकार हो जाता है। ऐसे में अलसी उसके लिए रामबाण है। इसी तरह मक्के की रोटी के साथ सरसों का साग का संतुलन भी बेजोड़ है। मक्के का आटा वात बढ़ाता है यानी शरीर में वायुरोग गैस का प्रकोप करता है पर सरसों की तासीर गर्म है और वह इससे मुक्त देता है। इसी तरह बाजरे की रोटी को उड़द की दाल के साथ खाया जाता है। बाजरे की तासीर गर्म है और उड़द की ठंडी। इसलिए दोनों का मेलजोल शरीर को रोगों से मुक्त रखेगा। ऐसे एक नहीं हजारों उदाहरण हमारी रसोई में मिल जाएंगे। कढ़ी, कद्दू, कटहल और मशरूम तीनों चीजें वातरोगियों के लिए जहर के समान हैं पर इन रेसिपी को बनाने के लिए मेथी, लहशुन और अजवायन का इस्तेमाल होता है वह इसके जहर को कुंद कर देता है और वातरोगी भी इन रेसिपी का लुत्फ उठाता है।
कभी किसी जंगल में जाकर देखिए वहां पर जब भी कोई प्राणी घायल होता है या उसे चोट लगी होती है तो वह किसी न किसी झाड़ी के पास जाकर अपने उस घाव को घिसता है और थोड़ी देर बाद ही रक्त प्रवाह बंद हो जाता है और वह फिर से उछल-कूद करने लगता है। यानी उस वन्यप्राणी को यह अपने अनुभव और हेरिडिटी से पता होता है कि अमुक झाड़ी उसके इस रोग के लिए कारगर है। यह कला प्रकृति उसे सिखाती है और प्रकृति की यह देन उसकी आवश्यकता के अनुरूप हुई है। ठीक इसी तरह मनुष्यों के लिए भी प्रकृति ने अपने अनमोल तोहफे दे रखे हैं। पर उसे समझने की जरूरत है। फौरी निदान के लिए ये उपचार रामबाण बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त हमारा शरीर एक संतुलन की मांग करता है। अर्थात यदि हम अपने मनोवेगों पर काबू पा लें तो तमाम आधुनिक बीमारियों से दूर रह सकते हैं। मसलन उच्च रक्तचाप, हृदय रोग समस्या, मधुमेह और अवसाद आदि। आज ज्यादातर लोग उन समस्याओं से ग्रस्त हैं जिनका संबंध उसके अपने मनोवेगों से है। इसलिए अगर स्वस्थ रहना है तो अपना खानपान सुधारें और अपने आचार-विचार भी। और फ़ालतू में बाहर निकलने की आदत पर लगाम लगाएँ।