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Ashok Singhal Biography Hindi: विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल की बायोग्राफी
हरजिंदर की टिपण्णी
Ashok Singhal Biography Hindi: किसी भी तरह से देखें वर्तमान दौर पर आपको उनकी सबसे गहरी छाप दिखाई देगी। अयोध्या में राम मंदिर का जो निर्माण चल रहा है उसकी पृष्ठभूमि में सबसे सबसे बड़े और सबसे निरंतर प्रयास अशोक सिंघल के ही दिखाई देते हैं। भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार अगर आज दूसरा कार्यकाल पूरा करने की ओर बढ़ रही है तो इसके पीछे जो जनमत तैयार हुआ उसमें सबसे बड़ी भूमिका भी शायद अशोक सिंघल की ही है। और अगर आपको देश में लगातार बढ़ रही सांप्रदायिकता या उसकी हर ओर फैलती नफरत परेशान करती है तो बहुत मुमकिन है कि आपको इसके मूल में कहीं न कहीं अशोक सिंघल ही खड़े दिखाई देंगे। आपको वे अच्छी लगें या बुरी, एक सबसे महत्वपूर्ण दौर में विश्व हिंदु परिषद के अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल ने अपनी प्रतिबद्धताओं को न कभी छुपाया और न ही कभी उनसे डिगे। उन्होंने कभी विनम्रता का ढोंग नहीं किया और न ही कभी ऐसे किसी आदर्श की आड़ ली जो उनका था ही नहीं।
आगरा में जन्में अशोक सिंघल ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के आईआईटी में की। वहां उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली, लेकिन पढ़ाई के दौरान ही वे खुद उस दहन भट्टी में शामिल हो गए जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता ढाले जाते थे। यही वजह है कि डिग्री लेने के बाद उन्होंने खनिज और धातु के कैरियर में किस्मत आजमाने के बजाए खुद को पूर्णकालिक रूप से संगठन से ही जोड़ लिया।
अशोक सिंघल ने संगीत की शिक्षा भी ली। उन्होंने ग्वालियर घराने के सुप्रसिद्ध गायक पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के शिष्य बनकर पूरे छह साल तक अपने सुर को साधा। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कला संकाय के डीन थे। लेकिन अशोक सिंघल ने इसे भी अपना कैरियर नहीं बनाया। वे शायद राजनीति के आरोह और अवरोह के लिए ही बने थे।
वाराणसी में ही उनका संपर्क राजेंद्र सिंह यानी रज्जू भइया से हुआ। उन्हीं की तरह रज्जू भइया की बैकग्राउंड भी विज्ञान की ही थी और उसी दौर में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर भी बने थे। रज्जू भइया उनसे चार साल बड़े थे और तब तक संघ के प्रचारक बन चुके थे। अशोक सिंघल ने रज्जू भइया के संरक्षण में ही गणवेश धारण किया और संघ की दीक्षा ली। रज्जू भइया के साथ ही उनके बौद्धिक हुए और आपातकाल में दोनों जेल में भी रहे। 1980 में जब रज्जू भइया को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सर कार्यवाह बनाया गया उसी के आसपास अशोक अशोक सिंघल दिल्ली और हरियाणा में संघ के प्रांत प्रचारक बने। बाद में उन्हें विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त सचिव पद की जिम्मेदारी दी गई।
अशोक सिंघल के सक्रिय हो जाने के बाद विश्व हिंदू परिषद के तेवर बहुत तेजी से बदलने शुरू हुए। उसके पहले तक परिषद का नेतृत्व मैसूर के राजा जय चमराज वडियार, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सीपी रामास्वामी अय्यर जैसे उन लोगों के पास रहा जिन्हें बहुत हद तक एलीट माना जा सकता है। बहुत सारे साधु सन्यासी भी उसके साथ जोड़े गए थे लेकिन उसका कार्यक्षेत्र काफी कुछ सेवा और संस्कृति तक ही सीमित था। परिषद हालांकि गोहत्या और धर्म परिवर्तन जैसे मसलों को अक्सर उठाती रहती थी लेकिन उसका एजेंडा इन मुदृदें पर राजनीति करना कभी नहीं था। अशोक सिंहल के आने के बाद इसमें बड़ा बदलाव आया। उन्होंने इस संगठन को जमीन से जोड़कर और सक्रिय बनाने की कोशिश की।
अशोक सिंघल अभी विश्व हिंदू परिषद में सक्रिय हुए ही थे कि तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में एक बड़ी घटना हो गई। वहां के एक गांव तिरुनलवेली में तकरीबन 1200 दलितों ने फरवरी 1981 में इस्लाम स्वीकार कर लिया। अशोक सिंहल ने इस मसले को पुरजोर ढंग से उठाया। हालांकि उपरी तौर पर संघ परिवार की प्रतिक्रिया वही थी जो ऐसे मसलों पर होती है। कहा गया कि यह हिंदू धर्म के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का ही एक हिस्सा है। यह भी कि लोग गांव को चारो ओर से घेरकर उसमें घुसे और लोगों को जबरन धर्म परिवर्तन करा दिया गया।
विश्व हिंदु परिषद उस इलाके में एक स्थानीय संगठन हिंदु मुन्नानी के साथ इन लोगों की अपने धर्म में वापसी के लिए सक्रिय हुई लेकिन इनमें से सिफ्र सात लोगों को ही वापस हिंदू धर्म में शामिल कर सकी। इस बीच कईं दूसरे अध्ययन दल भी उस इलाके में सक्रिय हुए और ज्यादातर में यह बात सामने आई कि दलितों की नाराजगी का एक बड़ा कारण यह भी है कि उनके साथ भेदभाव तो होता ही है साथ ही उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी जाती। इस तर्क को भले ही संघ परिवार ने खुले रूप में स्वीकार नहीं किया हो लेकिन अशोक सिंहल की अगुवाई में उस इलाके में बड़ी संख्या में ऐसे नए मंदिर बनवाए गए जहंा दलित भी बराबरी के साथ जा सकें। ऐसे दो सौ से ज्यादा मंदिर बनवाने का दावा किया गया और यह कहा गया कि इसके बाद से उस इलाके में धर्म परिवर्तन पूरी तरह रुक गया।
इस दौरान अशोक सिंघल ने बड़े पैमाने पर साधु, संतों और धर्मगुरुओं से संपर्क किया और अपने साथ जोड़ा। अशोक सिंघल के साथ साधु समाज का यह जुड़ाव उनके पूरे जीवन रहा। इसने संघ परिवार को एक ऐसी नई ताकत दी जो अभी तक उससे दूर थी।
इसी के बाद 1984 में अशोक सिंघल ने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पहली धर्म संसद का आयोजन किया। जिसमें देश भर के सैकड़ों साधु-संत शामिल हुए। इसी सम्मेलन में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का संकल्प लिया गया। यहां राम मंदिर आंदोलन का जन्म हो चुका था, जिसके मुख्य कर्ताधर्ता थे अशोक सिंघल।
इसे लेकर कुछ और सम्मेलन और जन जागरण के कार्यक्रम भी किए गए। लेकिन साल का अंत आते-आते हालात एकदम से बदल गए। दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई और कांग्रेस के प्रति एक सहानुभूति की लहर चली जिसमें परिषद की सारी योजनाएं कुछ समय के लिए धरी की धरी रह गईं। बदले मिजाज का असर कुछ दिन बाद हुए आम चुनावों में भी दिखा। चुनाव नतीजे आए तो भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ दो सीटों से संतोष करना पड़ा।
अब ऐसा दौर आ गया था जब पुरानी जगह पर लौटने के लिए भाजपा को परिषद की भी जरूरत थी और राम मंदिर आंदोलन की भी। अधिकारिक रूप से भाजपा अभी भी भले ही कहती रही हो कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण उसके एजेंडे में नहीं है लेकिन यह उसकी जरूरत बनता जा रहा था। इस सबसे अशोक सिंघल की अहमियत बढ़ने लगी।
परिषद के इस्तेमाल की कोशिश सिर्फ भाजपा ही नहीं कर रही थी केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने भी इस बहती गंगा में हाथ धोने की ठानी। विवादित बाबरी मस्जिद के पास की जमीन पर केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सहयोग से विश्व हिंदू साल 1889 में मंदिर के लिए शिलान्यास कर दिया। देश में कईं जगह सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, इनमें सबसे भयानक था भागलपुर का दंगा।
अगले ही साल आम चुनाव हुआ तो भाजपा की सीटें दो बढ़कर 58 हो गईं। जनता दल की गंठबंधन सरकार में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो भाजपा को लगा कि इस मसले को गर्माने का वक्त आ गया है। 1990 में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी राम मंदिर के मुद्दे पर पूरे देश की रथा यात्रा पर निकल पड़े। रथ यात्रा जब बिहार पहंुची तो लालू यादव की सरकार ने रथ को रोक कर लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया। भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और वह सरकार गिर गई। इसके बाद चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई सिर्फ 40 दिन ही चली। इस बीच अशोक सिंहल ने अयोध्या में कार सेवा का आयोजन किया। बड़ी संख्या में कार सेवक वहां पहंुचने लगे तो मुलायम सिंह यादव की सरकार ने वहां निषेधाज्ञा लागू कर दी। सरकार और कार सेवकों में टकराव हुआ और कईं जाने गईं।
अगले आम चुनाव में नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और भाजपा मुख्य विपक्षी दल बन गई। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश समेत कईं राज्यों में भाजपा की सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने जिन्होंने खुल कर राम मंदिर के निर्माण की बात शुरू कर दी। लेकिन इस सबका अर्थ यह नहीं था कि पूरा राम मंदिर आंदोलन भाजपा ने हाईजैक कर लिया हो। अशोक सिंघल ने परिषद की भूमिका को हमेशा महत्वपूर्ण बनाए रखा। तब तक उन्होंने आचार्य गिरीराज किशोर, रामचंद्र दास परमहंस, महंत अवैद्यनाथ, नृत्य गोपाल दास और साध्वी ऋतंभरा जैसे धार्मिक नेताओं को अपने साथ जोड़ लिया था। जो देश में घूम घूम कर माहौल बना रहे थे। उन्होंने 30 अक्तूबर 1992 को दिल्ली में धर्म संसद का आयोजन किया और इसे बाद घोषणा कर दी कि छह दिसंबर को अयोध्या में कार सेवा शुरू की जाएगी। जो बाद में पूरे मंदिर आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण तारीख साबित हुई।
छह दिसंबर से पहले जब कार सेवक बड़ी संख्या में अयोध्या की ओर रवाना होने लगे तो आशंकाएं हवा में तैरने लगीं। मामला सुप्रीम कोर्ट पंहुचा तो कल्याण सिंह ने वादा किया कि उनकी सरकार कानून व्यवस्था की स्थिति को बिगड़ने नहीं देगी। छह दिसंबर को वहां लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती समेत भाजपा के कईं बड़े नेता भी पंहुच गए। सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी ही नहीं गए। अनुमानों के अनुसार दो लाख के करीब कार सेवक वहां मौजूद थे। छह दिसंबर को ये लोग बाबरी मस्जिद की इमारत पर चढ़ गए और देखते ही देखते उसे ढहा दिया गया। देखने वालों में वहां मौजूद पुलिस बल भी था जो मूकदर्शक बना रहा। वहां जो कुछ भी हुआ उससे अशोक सिंघल के बारे में एक धारणा यह तो बन ही गई कि उनके आव्हान पर दो लाख से ज्यादा लोग जमा हो सकते हैं।
राम मंदिर को लेकर अशोक सिंघल की प्रतिबद्धता कितनी थी इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो वे इसे लेकर खुली नाराजगी जाहिर करते थे कि सरकार मंदिर बनाने के लिए कुछ नहीं कर रही है। यह नाराजगी इतनी बढ़ गई कि एक दिन वे इस मुद्दे को लेकर अनशन पर बैठ गए। जब उनकी तबीयत बिगड़ने लगी तो सरकार ने जबरन उनका अनशन तुड़वा दिया। कहा जाता है कि इसके बाद अशोक सिंहल ने जीवन भर कभी वाजपेयी से बात नहीं की। गोधरा कांड और फिर गुजरात में हुए दंगों के बाद वे खुलकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में आ गए। यह भी कहा जाता है कि गुजरात में मोदी ने परिषद की गतिविधियों को सीमित कर दिया था इसे लेकर परिषद के कईं नेता मोदी के खिलाफ हो गए थे, लेकिन अशोक सिंघल का समर्थन बना रहा।
यही वजह है कि 2013 के अगस्त में जब उन्होंने अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा का आयोजन किया तो यही माना गया कि वे अगले साल होने वाले उस आम चुनाव के लिए माहौल बना रहे हैं जिसमें नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। यह परिक्रमा आमतौर पर अप्रैल के आसपास होती है, जबकि उस बार इसका आयोजन चैमासे में किया गया जब ऐसी परिक्रमा नहीं की जातीं। हालंकि यह परिक्रमा सफल नहीं रही और इसे भाजपा के सामने परिषद के निस्त्वेज होने के रूप में भी देखा गया।
अशोक सिंघल ने जिस तरह से साधु समाज का विश्वास हासिल किया वैसा राजनीति या समाज में सक्रिय और कोई व्यक्ति नहीं कर सका। साधु संत जब भी किसी विवाद में फंसते वे उनकी मदद के लिए सबसे पहले पहंुचते और इसे हिंदू साधुओं को बदनाम करने का अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र बताते। हालांकि इसी चक्कर में वे एक बार आसाराम बापू जैसों के साथ भी खड़े दिखाई दिए। वे जीवन भर राम मंदिर के लिए लड़ते रहे लेकिन जब राम मंदिर वास्तव में बनना शुरू हुआ उसके कईं साल पहले ही हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले अशोक सिंहल हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हो गए।