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डी एम मिश्र की नयी किताब " समकाल की आवाज़ " प्रकाशित
साल 2022 बीतते - बीतते वरिष्ठ ग़ज़लकार डी एम मिश्र की नयी ग़ज़ल की किताब " समकाल की आवाज़ " - न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली " से छपकर आ गयी और अमेज़न पर धूम मचा रही..
वरिष्ठ आलोचक नचिकेता जी का इस किताब को लेकर कहना है कि " डीएम मिश्र का रचना - कर्म बहुत ही असमतल , ऊबड़ - खाबड़ और कंटकाकीर्ण रहा है । जहाँ तक मेरी जानकारी है , उसके अनुसार वे पहले छंदमुक्त गद्य कविताएँ लिखा करते थे , उनके चार या पाँच कविता संग्रह प्रकाशित भी हो चुके हैं । लेकिन शीघ्र ही उन्हें अपनी सीमा का अहसास हो गया । वे , दरअसल , जिस सामाजिक सरोकार और कविता के प्रभाव - संगठक उद्देश्य की पूर्ति अपनी छंदमुक्त कविताओं के जरिये करने की इच्छा रखते थे और वर्तमान में हिमायती हैं , के मार्ग में एक बड़ा व्यवधान आ गया । उनकी अभीप्सा रही है कि कविता व्यापक जन - मन के अंतरंग में घुल - मिल जाये । कविता व्यापक जन - मन की जुबान पर चढ़े और उनकी स्मृति में आसानी से दीर्घकाल के लिए अंकित हो जाय । उनकी इस अभीप्सा की पूर्ति उन्हें समकालीन गीत या गजल के रचना - संसार से जुड़कर ही हो सकती थी । नतीजतन वे गद्य कविता के चंगुल से बाहर निकल कर समकालीन गजल की रचना के साथ पूरी शिद्दत के साथ रचनात्मक तौर पर संबद्ध हो गये । उन्हें काफी हद तक इस दिशा में सफलता भी मिली । आज वे समकालीन गजल के चुनिंदा नामों में से एक हैं । कभी उनके अग्रज कवि अदम गोंडवी ने यह संकल्प लिया था कि " भूख के अहसास को शेरो - सुखन तक ले चलो / या अदब को मुफलिसों के अंजुमन तक ले चलो / जो गजल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी / उसको अब वेबा के माथे के शिंकन तक ले चलो । " अदम गोंडवी की इस आकांक्षा को डीएम मिश्र ने पूरी संजीदगी के साथ सुना और उसे आगे बढ़ाने के काम में पूरे प्राणपन से जुट गये । डीएम मिश्र अदम गोंडवी के पास ही रुके नहीं रहे , बल्कि गजल के रचनात्मक उद्देश्य को और अधिक विस्तार देने की भरपूर चेष्टा की है । उनकी दृष्टि में ' गजल ऐसी कहो जिससे कि मिट्टी की महक आये / लगे गेंहूँ में जब बाली तो कंगन की खनक आये ... नजर में ख्वाब वो ढालो कि उड़कर आसमाँ छू लें / जलाओ वो दिये जिनसे सितारों में चमक आये ' । गजल को वे सिर्फ मनोरंजन की वस्तु नहीं मानते , अपितु सामाजिक बदलाव का एक पुरअसर हथियार मानते हैं , तभी वे कह पाते हैं कि " अब ये गजलें मिजाज बदलेंगी / बेईमानों का राज बदलेंगी .... ख़ूब दरबार कर चुकीं गजलें / अब यही तख्त - व- ताज बदलेंगी । "
गजल को विषय बनाकर गजल लिखने या कहने की परंपरा अत्यधिक पुरानी है । यह कोई नई बात नहीं है । गजल जहाँ कहीं भी और जिस भाषा में भी लिखी गयी हो , या लिखी जा रही हो ; यह परंपरा सर्वत्र जीवित मिलती है । पहले की गजलों में गजल- रचना के गुण - धर्म और परिवर्तन प्रक्रिया को रेखांकित करने की कोशिश होती थी। डी एम मिश्र ने भी गजल को विषय बनाकर अनेक गजलें कही हैं , लेकिन इनकी गजलों में सिर्फ गजल के गुण - धर्म और सामाजिक सरोकार या परिवर्तन प्रक्रिया की ही व्याख्या नहीं की गयी है । उन्होंने ' गजल ' को प्रतीक बनाकर अपने समय , समाज , संस्कृति और राजनीतिक चेतना के अंतर्विरोधों से हिंस्र संघर्ष किया है । इस संग्रह में भी इस विषय पर अनेक गजलें मौजूद हैं , जिनके अंतर्जगत में संजीदगी के साथ प्रवेश करके हम अपने समय , समाज और राजनीतिक अंतर्विरोधों का मुकम्मल जायजा ले सकते हैं । बतौर बानगी उनकी एक ही गजल के कतिपय शेरों में व्यक्त वैचारिक अंतर्वस्तु की द्वन्द्वात्मक गति की पड़ताल कर सकते हैं । यथा- " चलो गुनगुनायें गजल के बहाने / जरा मुस्कुरायें गजल के बहाने / मजा तो तभी जब तुम्हारे दिये गम / तुम्हीं को सुनायें गजल के बहाने ..... जमाना हकीकत से महरूम क्यों है / उसे सच बतायें गजल के बहाने / रहें ना रहें हम यही एक ख्वाहिश /
तुम्हें याद आएं ग़ज़ल के बहाने । " बेशक आज का समय बहुत कठिन दौर से गुजर रहा है और आज का सामाजिक यथार्थ भी अत्यंत ही संश्लिष्ट है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश तरक्की पर है , जी . डी . पी . लगातार बढ़ रही है , देश का विकास दर तेरह प्रतिशत से ऊपर जा रहा है , देश के विदेशी मुद्रा भंडार में गुणात्मक इजाफा हो रहा है , लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत है । लगातार बढ़ती महँगाई आसमान छू रही है , रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं , जन - साधारण को दो जून की राटी जुटाने में दाँतों से पसीना आ जा रहा है , नौकरियों में निरंतर कटौती हो रही है , मजदूर और किसान काम न मिल पाने के कारण भुखमरी , मुफलिसी और बदहाली की त्रासदी झेलने के लिए मजबूर हैं , अपराध लगातार बढ़ रहे हैं ; कहने का मतलब है कि सामान्य लोगों को भयंकर गरीबी के दलदल में ढकेला जा रहा है । भुखमरी , मुफलिसी और बदहाली की चपेट में आकर आम आदमी और हाशिए के लोगों का जीना दूभर हो गया है । हालाँकि कॉर्पोरेट पूँजी तथा बड़े - बड़े पूँजीपतियों का दिन दूना , रात चौगुना विकास हो रहा है । इस राष्ट्रीय और सामाजिक विरोधाभास को डी एम मिश्र की गजलों में काव्यात्मक और संवेदनात्मक अभिव्यक्ति मिली है , जिसे सपाट ढंग से नहीं महसूसा जा सकता । समकाल की पहली ही गजल इसी प्रवृत्ति की चुगली खाती प्रतीत होती है- " बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है / मिटे न धुंध तो फिर रोशनी हुई क्यों है .... कहीं छलकते हैं सागर तो कहीं प्यास - ही - प्यास / तेरे निजाम में इतनी बड़ी कमी क्यों है ...... अभी - अभी तो गये उड़ के इधर से बादल / लगी है आग मगर आग ये लगी क्यों है " । आज आम लोगों के ऊपर जबरदस्ती तोहमत लगायी जा रही है , उन्हें जिस जुर्म की सजा दी जा रही है , उसे उन्होंने किया ही नहीं है । जिस जुर्म के विरुद्ध उन्होंने अदालत में अपील कर रखी है , जिसकी जाँच - पड़ताल अभी जारी है , उसी जुर्म के लिए उन्हें सजायाफ्ता बनाया जा रहा है ।
इस षड्यंत्र में सारे सरकारी संस्थान , कानून और अदालतें बराबर की हिस्सेदार हैं । आम मनुष्यों के इस दुख - दर्द की डी एम मिश्र की गजलें बेवाक् अभिव्यक्ति हैं - " मारा गया इंसाफ माँगने के जुर्म में/ इंसानियत के हक में बोलने के जुर्म में / मेरा गुनाह ये है कि मैं बेगुनाह हूँ / पकड़ा गया चोरों को पकड़ने के जुर्म में " । यह एक अमानवीय विडंबना है कि इतने अन्यायपूर्ण जुल्मों - सितम को सहकर भी लोग खामोश हैं । प्रतिरोध में या तो आवाजें उठती ही नहीं हैं या उन्हें सरकार द्वारा दबा दिया जाता है । डी एम मिश्र इस विरोधाभास के विरुद्ध भी अपनी आवाज बुलंद करते नजर आते हैं । वे लोगों के सामने अपनी ओर से सवाल खड़ा कर देते हैं और प्रकारांतर उन्हें प्रतिरोध के लिए उकसाते दिखाई देते हैं- " उट्ठे नहीं क्यों हाथ गिरेबान की तरफ / खायी है लात पाँव पकड़ने के जुर्म में / कब तक रहूँ मैं चुप कोई मुझको तो बताये / बढ़ती गयी सजा मेरे सहने के जुर्म में " । जन आम धारणा है कि मौजूदा दौर की सामाजिक समस्याएँ , राजनीतिक विद्रूपता और मनमानेपन से निजात पाने के लिए लोगों को लामबंद होकर दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा । आँखें चुराकर भागने का अब समय नहीं है अन्यथा शोषण , दमन और उत्पीड़न का खूँखार जबड़ा उन्हें डकार जायेगा । क्योंकि शोषक - शासक वर्ग , राजसत्ता , न्याय व्यवस्था और सरकारी मशीनरी में एक गँठजोड़ हो गयी शोषण , दमन और उत्पीड़न की जमीन पर सभी बराबर के हिस्सेदार हैं । डी एम मिश्र की गजलें इस मनुष्य - विरोधी वातावरण से सीधा साक्षात्कार करती हैं और परोक्ष रूप से इन अमानुषिक अत्याचारों की मुखालफत के लिए जन - मानस को आगाह भी करती हैं - " तूफानों से बचने का अब समय नहीं है / खतरे हैं पर डरने का अब समय नहीं है / भलमनसाहत की भी कोई हद होती है / उसके आगे झुकने का अब समय नहीं है । ऐसे तो फिर कायर ही कहलाएँगे / यूँ चुप बैठे रहने का अब समय नहीं है / दुश्मन ने दरवाजे पर दस्तक दे दी / घर के भीतर छुपने का अब समय नहीं है .... आँसू को बनकर अंगार धधकने दो / भीतर - भीतर कुढ़ने का अब समय नहीं है " । हिंदी में गजल - रचना के इतिहास और भूगोल पर सर्वाधिक आलोचना कर्म वरिष्ठ गजलकार ज्ञान प्रकाश विवेक ने किया है और हिंदी गजलों पर अपने ढंग से गंभीर विचार - विमर्श भी । उनके विचार परस्पर विरोधी नजर आते हैं , साथ ही उनके विचार समकालीन हिंदी गजलों के कला - प्रतिमान नहीं बन सकते , मूल्यांकन के औजार तो हर्गिज नहीं ; क्योंकि उनके विचार गजल की समकालीन चिंता के विरुद्ध दिखाई देते हैं । उनकी एक विचारोत्तेजक निष्पत्ति है कि " गजल का बेहतरीन शेर एक आख्यान की रचना करता है । बिंब की रचना करता है । एक सशक्त शेर , दो मिसरों का जोड़ या लफ्जों का जमघट नहीं होता । वो सूक्ष्म अनुभूतियों की सघन अभिव्यक्ति होता है - जहाँ शब्दों की फिजूलखर्ची बिल्कुल नहीं होती । बहुत अच्छा शेर अपने भीतर कई पाठ रखता है और बाहर वो किसी ' संवाद ' की भाँति प्रतीत होता है । बहुत अच्छा शेर प्रेम की और जीवन की और मनुष्यों की और समाज की प्रार्थना बनकर उभरता है- एक ऐसी प्रार्थना जिसमें विनम्रता का भी एक कोना होता है " । इस लिहाज से देखें तो गजल मात्र एक शाश्वत संवेदना की अभिव्यक्ति होती है । यह अलग बात है कि आज की वैज्ञानिक जीवन - दृष्टि की निगाह में कुछ भी शाश्वत नहीं है । जीवन जगत के सारे जीवन - मूल्य , नैतिकता और मनुष्यों के मनोभाव कोई स्थिर विचार न होकर निरंतर परिवर्तनशील और विकासशील प्रत्यय हैं । ये शाश्वत और अपरिवर्तनीय कदापि नहीं हैं । समाज और समय जब जटिलताओं का एक जखीरा होता है । जब शोषक - शासक वर्ग बिल्कुल अमानवीय और खूँखार और रक्तपिपासु हो और जनहित की सरकारी योजनाएँ भी सामान्य मनुष्यों के शोषण , दमन और अन्याय का अग्निकुंड बन गयी हों , तब सार्थक गजलें एक प्रार्थना जैसी विनम्र हर्गिज नहीं हो सकती । वे प्रतिरोध और आक्रोश की एक धधकती अग्नि होती हैं । डी एम मिश्र की गजलें प्रेम की चाशनी में डूबी हुई नहीं , वरन् प्रतिरोध की धधकती आग बनकर सर्वत्र गूंजती रहती हैं । इस सत्य को दकियानूस खयालों से बाहर निकलकर समकालीन समस्याओं से हिंस्र मुठभेड़ करके ही समझा जा सकता है- " दरिया में मत आग लगाओ नई नीति से/ कोई फिर न सुनामी लाओ नई नीति से / कहते हो तुम निजीकरण जनहित में है / मड़ईलाल को महल दिलाओ नई नीति से ... चोर , लुटेरे , ठगीकरण से जेबें भरते / ओ जल्लादों , बाज भी आओ नई नीति से / फिर भी लोग कहेंगे बगुला भक्त ही तुम्हें /कितने रूप बदलकर आओ नई नीति से । " निर्विवाद है कि रचना , रचना तभी बनती है जब उसमें विचार , अनुभव और कलात्मक संवेदना का समानुपातिक समन्वय और सामंजस्य हो । इकहरी रचना प्रभावहीन होती है , लेकिन अत्यधिक कालात्मक रचनाएँ भी केवल सहलाने - गुदगुदाने का ही काम कर सकती हैं , खरोंचें नहीं लगा सकतीं , पाठक या श्रोताओं को बेचैन नहीं कर सकतीं । ऐसी कलात्मक रचनाएँ प्रभावहीन और सामाजिक दायित्वों से रिक्त होती हैं । डी एम मिश्र की सकारात्मक गजलें एक जरूरी सामाजिक सरोकार से जुड़ी होती हैं । दकियानूस खयाल वालों को उनकी युगसापेक्ष गजलें अकलात्मक , सपाट और इकहरी दृष्टिगोचर हो सकती हैं । इन गजलों का सामाजिक सरोकार इतना प्रबल है कि ये अपने समय की सच्ची आवाज बन जाती हैं । वर्ण व्यवस्था पर आधारित सनातन संस्कृति और मनुवादी सामाजिक संरचना , इसके विरोध में कानून बना दिये जाने के बावजूद दलितों , स्त्रियों और आदिवासियों को मानव मानने से ही इन्कार कर देती हैं । हालाँकि लोकतंत्र की समाज व्यवस्था ने उनके विकास और हिफाजत के लिए कुछ कानूनी और संवैधानिक अधिकार भी मुकर्रर किये हुए हैं । किंतु सवर्णों द्वारा दलितों की अवमानना , शोषण , दमन , उत्पीड़न , बलात्कार , व्यभिचार आदि अमानवीय हरकतें की बाढ़ थमने का नाम ही नहीं ले रही है । जब तक सामाजिक चेतना नहीं बदलती , सवर्णों का दलितों , स्त्रियों और आदिवासियों के प्रति दृष्टिकोण नहीं बदलता है।
स्थितियाँ भी नहीं बदलेंगी । केवल संवेदना व्यक्त करने , कानून और संविधान बदल देने से जुल्मो - सितम की बाढ़ नहीं रुकने वाली नहीं है । डी एम मिश्र ने अपनी गजलों में दलित - जुल्म के खिलाफ अपनी मार्मिक आवाज उठायी है ; मुआयना कीजिए- " वक्त ही बदला है केवल और क्या बदला है आज / चल रहा मनुवादियों के नियम से अब भी समाज / आज भी दर्जा बराबर का नहीं पाता दलित / जिस तरफ भी देखिए फैला सवर्णों का है राज / प्रश्न यह जितना सरल दिखता है उतना है नहीं / भिक्षु बाभन को भी अपनी बभनई पर क्यों है नाज / प्यार उसका जुर्म , पंचायत में ठहराया गया / मर गयी छमिया बेचारी , पर नहीं बदला समाज / दूर क्यों इंसान से इंसान है , बनकर अछूत / सब वही पीते हैं पानी , सब वही खाते अनाज / धर्म , मजहब , जातियों में लोग कैसे बँट गये / इस पुराने कोढ़ का अब मुस्तकिल ढूँढो इलाज " । आजकल के दिखावटी और छद्म जीवन जीने वाले समाज में सामाजिक विषमता , आर्थिक दवाब , राजनीतिक विसंगति और सांस्कृतिक विडंबना की त्रासदी को सभी लोग देखते और महसूस करते हैं , परंतु बदलने की जद्दोजहद कोई नहीं करते । क्रांतिकारी चेतना वाले भी तटस्थ दर्शक बने रहते और यथास्थिति को कायम रखने के लिए , उसकी जड़ों को मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं , सक्रिय संघर्ष की दिशा में अग्रसर नहीं होते । इस सामाजिक अंतर्विरोध को डी एम मिश्र ने अपनी गजल में बखूबी उजागर किया है । गौर कीजिए- " जानते सब हैं बोलता नहीं है कोई / आँख सबके हैं देखता नहीं है कोई ..... दूर से देखते हैं लोग पाप होते हुए / यूं मगर खून खौलता नहीं है कोई भी / सब परेशान भेड़िये के खौफ से हैं मगर / सामना करना चाहता नहीं है कोई भी / कैसे दंगा हुआ यह राज ही रहा अब तक / उसके बारे में पूछता नहीं है कोई भी / जिसको भी देखिए वो है छुपा मुखौटों में / अस्ल चेहरे में दीखता नहीं है कोई भी " । सच्चाई है कि जैसे - जैसे मनुष्यों पर उपभोक्तावादी संस्कृति , सुख - सुविधा की अधिक से अधिक सामग्री इकट्ठा कर लेने की होड़ के प्रति आकर्षण में वृद्धि होती जायेगी मनुष्य उतनी ही तेजी से अमानवीय और असामाजिक होता जायेगा । सारे समाजिक संबंधों और घर - परिवार के नितांत आत्मीय रिश्ते - नातों की मिठास भी घटती जायेगी । उसकी जगह गलाघोंटू स्पर्द्धा , स्वार्थ - लोलुपता और व्यक्तिवादी सामाजिक चेतना लेती जायेगी । सारे आत्मीय संबंध तिरोहित हो जायेंगे । पिता - पुत्र , भाई - भाई , पति - पत्नी और भाई - बहन के रिश्तों के बीच में उपभोक्तावादी सामग्री आती जायेगी । सारे रिश्ते अविश्वास और लालच के घेरे में आते जायेंगे | इन स्थितियों पर डी एम मिश्र की गजलें करारा चोट करती हैं । यथा , " जिसे भाई समझता था वही मुझको दगा देगा / नहीं सोचा था कि गर्दन पर मेरी छूरा चला देगा / मैं बिल्कुल बेखबर था , क्या वह ऐसा भी है कर सकता / भरोसे को हमारे इस तरह जिन्दा जला देगा / कभी बातों से उसकी इस तरह की बू नहीं आयी / हजारों साल के रिश्तों को मिट्टी में मिला देगा .... किसी को भी न आइंदा किसी पर भी यकीं होगा / कोई माहौल दहशत का अगर ऐसा बना देगा " । अजब इत्तिफाक है कि हर मनुष्य पहले पुत्र और फिर पिता ही बनता है । पिता बनने के बाद वह अपनी संतान के उज्जवल भविष्य की सुरक्षा के लिए , उसकी समुचित देख - भाल के लिए , उसकी समृद्धि के लिए अपनी तमाम सुख - सुविधाओं , इच्छाओं और अभिलाषाओं - आकांक्षाओं की बलि चढ़ा देने में कभी गुरेज नहीं करता , बल्कि इसके लिए पर्याप्त संसाधन जुटाने के लिए जीवन संघर्ष की त्वरा को और अधिक तेज कर देता है । यह अलग तथ्य है कि ज्यादातर वही संतान बड़ा होने पर , अपने पैरों पर खड़ी हो जाने पर , अपने वृद्ध माता - पिता को ठोकरें मार देती है , अपने वृद्ध माता - पिता के शरीर से खून चूसकर अपनी संतानों की नसों में प्रवाहित करने का प्रयास भी करती है । यही जगत की रीति है । इस मार्मिक संवेदना को व्यक्त करता डी एम मिश्र का एक शेर देखिए- " पिता बनना बहुत आसाँ , पिता होना बहुत मुश्किल / गमों का बोझ यह हँसते हुए ढोना बहुत मुश्किल " । अगर पिता एक गरीब व्यक्ति है जिसके घर में अपने लिए तो दूर , बच्चों का पेट भरने भर की चीजें भी उपलब्ध नहीं हैं , तो उसकी बेपनाह पीड़ा का अहसास तो कोई संवेदनशील व्यक्ति ही कर सकता है । यह गजल ऐसी गरीबी की भयंकर मार झेलते एक पिता की अंतस्पीड़ा का मार्मिक बयान है ।
मुलाहिजा फरमाइए- " यहाँ किससे कहूँ बच्चे मेरे भूखे कई दिन से / अमीरों की यह महफिल है यहाँ रोना बहुत मुश्किल / सुबह से शाम तक जब काम करके लौटता हूँ घर / वही चिंता का बिस्तर हो तो फिर सोना बहुत मुश्किल ...... मेरी उम्मीद भी मेरे लिए संतान जैसी है / जिसे बचपन से पाला हो , उसे खोना बहुत मुश्किल " । ऐसे ही मुश्किल क्षणों के द्वारा जीवन संघर्ष का ही नहीं , गजल का भी इतिहास लिखा जाता है । मनुष्यों का इतिहास तो लिखा ही जाता है । सभी लोगों पर सामाजिक समस्याओं , राजनीतिक विसंगतियों और सांस्कृतिक विद्रूपताओं को देख और महसूस करने के बाद भी एक बर्फीली चुप्पी तारी है , लेकिन डी एम मिश्र की समय सापेक्ष और समाज सापेक्ष गजलें चुप नहीं रहतीं । वे निदान ढूँढने का दुर्द्धर्ष प्रयास करती हैं तथा वे अपनी अन्य गजल में इस प्रश्न का उत्तर भी स्वयं ही देते हैं । वे महज दूसरों की गरेबान में झाँकने के वजाय अपने अंतर्लोक में झाँकते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि " जुल्म के इस दौर में बालेगा कौन / बढ़ रहा आतंक है रोकेगा कौन / इस तरह खामोश कैसे लोग हैं / हम रहे गर चुप तो फिर बोलेगा कौन / रोशनी करनी है तो खुद भी जलो / इस धधकती आग में कूदेगा कौन / क्या कोई ऊपर से टपकेगा हुजूर / बदमिजाजे वक्त को बदलेगा कौन / दिल बड़ा है गर तो आगे आइए / बेसहारों को सहारा देगा कौन / डर गए हम भी हुकूमत से अगर / इन्कलाबी शायरी लिक्खेगा कौन " । अभिप्राय है कि क्रांति की आग अगर जलानी है , व्यवस्था परिवर्तन की आँधी लानी है और वास्तविक उद्देश्य तक पहुँचने के लिए व्यापक जन - मानस को सचेत और जाग्रत रहने की प्रेरणा देनी है तो उन्हें स्वयं उठना होगा , जलती मशाल लेकर अग्रगामी दस्ता बनना होगा । इस जोखिम भरी चुनौती को कबूल करने में ये गजलें कोई कोताही नहीं बरततीं । डी एम मिश्र की गजलें इस दिशा में पहलकदमी लेती हैं , दम साधे हुए सब कुछ देखती- सुनती मात्र नहीं रहतीं , प्रत्युत स्वयं संघर्ष करने को उतारू हो जाती हैं । अदम गोंडवी , रामकुमार कृषक , कमल किशोर श्रमिक , महेश कटारे सुगम और डी एम मिश्र हिंदी गजल - रचना के क्षेत्र में ग्रामीण चेतना के पाँच बड़े रत्न हैं , ये सभी हिंदी गजल के पंचदेव का निर्माण करते हैं । इन लोगों ने गाँव की संवेदना को गाँव में रहकर , वहाँ ग्रामीण जीवन के कठोर ताप में तपकर हासिल की है , शहर में रहकर या केवल सुन - पढ़कर नहीं । अर्थात् इनकी ग्राम्य चेतना संवेदनात्मक ज्ञान उपज है , ज्ञानात्मक संवेदन की नहीं । गाँवों और वहाँ के संघर्षमय जीवन के तवे पर पककर ही इनकी रोटियाँ तैयार हुई हैं । लेकिन ग्रामीण चेतना से जुड़े कई गजलकारों की ग्राम्य चेतना वाली गजलें नास्टेलजियन प्रेम का शिकार रही हैं । डी एम मिश्र की गजलों में गाँव के प्रति नास्टेलजियन प्यार नहीं , वरन् वहाँ के सामाजिक जीवन में समय सापेक्ष बदलाव व्यक्त हुए हैं । विरोधाभास है कि इन सकारात्मक बदलावों को उनका ग्रामीण संस्कार उसे पूर्णतया स्वीकार नहीं करता , उसके प्रति उनके मन में परोक्ष रूप से कोफ्त विद्यमान होती है । एक उदाहरण यहाँ जरूरी होगा- " गाँव में रहना कोई चाहे नहीं / धूप में जलना कोई चाहे नहीं / संगमरमर का बिछा कालीन हो / धूप में चलना कोई चाहे नहीं / जंगली पौधे भी गमले ढूँढते / बाग में खिलना कोई चाहे नहीं / सेठ की जाकर करेंगे चाकरी / खेत में खटना कोई चाहे नहीं / गाँव में रहते नकारा लोग हैं / व्यंग्य यह सुनना कोई चाहे नहीं / घर के बच्चे भी लगे मेहमान से / चार दिन रुकना कोई चाहे नहीं / गाँव है तो पेट को रोटी मिले / गाँव को वरना कोई चाहे नहीं " यह गाँव और शहरी जिन्दगी का वास्तविक द्वन्द्व है , जिसे डी एम मिश्र की ये गजलें सवाक कर रही हैं ।
प्रसिद्ध रूसी कथाकार अन्तोन चेखब ने लिखा है कि जो चीज जितनी बढ़िया होती है , उसमें उतनी ही अधिक त्रुटियों के मौजूद होने की गुंजाइश होती है । सिद्धि के लिए हर जागरुक लेखक को जिसे सुधारना पड़ता है । डी एम मिश्र की गजल - रचनाशीलता और चेतना का निर्माण उर्दू गजल के प्रभाव के तहत हुई है , इसलिए उनकी राजनीतिक चेतना से जुड़ी गजलों में उर्दू भाषा का स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जा सकता है । उर्दू भाषा के वे शब्द जो आम बोल - चाल की भाषा में घुल - मिल गये हैं , के सार्थक प्रयोग से एतराज नहीं है । ध्यातव्य है कि उर्दू के शब्द जब हिंदी में समाहित होते हैं तो उन्हें हिंदी - संस्कार और व्याकरण में ढलकर व्यक्त होना हाता है । उर्दू के वही शब्द हिंदी में आकर सिर्फ लिंग बदल जाने की वजह से विपरीत या अलहदा अर्थ देने लगते हैं , मसलन तर्क , धारा , कलम आदि । ये ऐसे ही शब्द हैं जो उर्दू में तो पुल्लिंग हैं , किंतु हिंदी में आकर स्त्रीलिंग हो जाते हैं तथा इनका अर्थ भी बदल जाता है । डी एम मिश्र जैसे जागरुक गजलकार को एक ही जमीन पर , एक ही समय में उत्पन्न उर्दू और हिंदी के इन द्वान्द्वात्मक रिश्तों और द्वन्द्वों की पहचान होनी चाहिए और अगर नहीं है तो इस दिशा में सार्थक पहलकदमी लेनी चाहिए । किसी भाषा की विशिष्ट काव्य - विधा जब दूसरी भाषा में अंतरित होती है तो उसके संस्कार , शऊर , आस्वाद , बिंब , प्रतीक , मिथक , मुहावरे आदि में भी गुणात्मक तब्दीली आ जाती हैं । उर्दू - गजलों में प्रयुक्त मिथकीय प्रतीकों में अरबी - फारसी मिथकों का उपयोग किया जाता है और हिंदी के गजलकार यदि ऐसे मिथकों को हिंदी गजल में समाहित करते हैं तो वे खीर में पड़ी कंकड़ी की तरह दुखदायी लगती हैं और ये गजलें जन - साधारण के लिए लिखी गयी गजलों को भी अमूर्तन की गिरफ्त में ढकेल देती हैं , उनमें अर्थहीनता और अर्थबोझिलता का खतरा उत्पन्न हो जाता हैं । डी एम मिश्र को खास तौर पर इन बिन्दुओं पर गहराई से विचार करना चाहिए । उन्हें सबक भी लेनी चाहिए ।
काव्य - रचना के सामाजिक सरोकार और उसके राजनीतिक द्वन्द्व पर गहराई से विचार करते हुए मैनेजर पाण्डेय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि " सत्ता साहित्य से तब डरती है , जब वह सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की शक्ति बनने लगता है । सत्ता उन लेखकों की चिंता नहीं करती जो अपने व्यक्तिगत दुख - सुख तक सीमित होते हैं या वर्तमान से भागकर अतीत में भटकते हैं या यथार्थ से बचकर केवल स्मृतियों में खोये रहते हैं । सत्ता उन साहित्यकारों की भी चिंता नहीं करती जो साहित्य की स्वतंत्र दुनिया में ही क्रांति करते रहते हैं । लेकिन जब साहित्य के शब्द यथार्थ के दर्पण बनते हैं , तब यथार्थ को छुपाने और सच को झुठलाने के लिए सत्ता साहित्य पर आक्रमण करती है " । हिंदी गजलों की बनावट और बुनावट इसकी इजाजत नहीं देती कि सत्ता उसके प्रति आक्रमणकारी रुख अपनाये । अधिकांश गजलें जो यथार्थवादी दृष्टिगोचर होती हैं वे एक कलात्मक आवरण में छिपी होती हैं । लेकिन समकालीन गजल के क्षेत्र में ऐसे लेखक कई हैं जिनकी सच बयान करने वाली गजलें सत्ता
हिंदी के लिए खतरा बन सकती हैं । आज के अधिकांश गजलकार पुरस्कार और सरकारी मान - सम्मान पाने के लिए सत्ता के दलाल बन गए हैं , चाटुकारिता उनका परम धर्म बन गया है । परंतु डी एम मिश्र जैसे गजलकार समकालीन गजल के नाम पर की जा रही इन नापाक हरकतों , दलाल मनोवृत्ति और बिकाऊ चरित्र की तीव्र भर्त्सना करते हैं- " अँधेरा है घना फिर भी गजल पूनम की कहते हो / फटे कपड़े नहीं तन पर गजल रेशम की कहते हो " , क्योंकि उनकी नीयत सरकारी पुरस्कार पाने पर टिकी होती हैं- " ओ मेरी तालाब की भोली मछलियाँ सावधान / ये वही बगुले हैं जो कहते हैं त्यागी हो गये " । यह स्वभाव - परिवर्तन अनायास नहीं हुआ है । उनमें पुरस्कार पाने की आकांक्षा ही इसमें क्रियाशील रहती है । डी एम मिश्र स्वयं से पूछते प्रतीत होते हैं कि " कैसे इंसान वो होंगे जो ईमान का सौदा करते हैं / जो शीश झुके उनके आगे हर दर पर वह झुक जाये क्यों / ये तोहफे , ये सम्मान सभी , ये पुरस्कार रक्खो सारे / मेरा मन संत कबीरा है , कुछ पाने को ललचाये क्यों । " अपने घोषित हलफनामें के अनुसार डी एम मिश्र एक प्रतिबद्ध और जनवादी गजलकार हैं । वे मानते हैं जनवाद एक व्यापक और संपूर्ण जीवन - दृष्टि है । मानव जीवन की सभी अनुभूतियाँ , जीवन - जगत की सभी समस्याएँ , उनके प्रति चिंता और जीवन संघर्ष की सभी सार्थक अभिव्यक्तियाँ समकालीन गजल की विषय - वस्तुएँ हैं , केवल संघर्षशील आंदोलनधर्मी चेतना , मुक्ति की कामना और आग्नेय अनुभूतियाँ ही नहीं । ये जनवाद की वस्तुगत दुनिया नहीं रचतीं । वे जानते हैं कि संघर्षशील - से - संघर्शशील व्यक्ति भी हर समय संघर्षरत नहीं रहता । कभी - कभी वह सहज भी होता है , उसकी आँखें करुणा से भींजती भी हैं , होंठों पर मीठी मुस्कान की किरणें भी छिटकती हैं , वह घर - परिवार , समाज और संसार को प्यार भी करता है , मनोरम प्रकृति में रमता भी है तथा उदात्त सौंदर्य को देखकर प्रफुल्लित भी होता है । इसलिए समकाल की आवाज में संकलित अपनी एक सौ चार गजलों में आज की सामाजिक समस्याओं , राजनीतिक चेतना व सांस्कृतिक विडंबना को उद्घाटित करने वाली गजलों के साथ प्रेम , प्रकृति और सौंदर्य एवं अन्य सामाजिक समस्याओं से सीधा साक्षात्कार करने वाली यथास्थितिवादी गजलें भी शामिल कर ली गयी हैं , जो उनके सकारात्मक सोच का नतीजा है । ये गजलें अत्यंत मुखर न होने के उपरांत भी वर्तमान समय और समाज के अंतर्विरोधों पर तल्ख टिप्पणी करती हैं ।
संक्षेप में कहा जाय तो डी एम मिश्र की इन गजलों में सामाजिक यथार्थ और राजनीतिक विसंगतियों को उजागर करने वाले अनेक शेर मौजूद हैं । कुछ शेरों को उद्धृत भी किया जा सकता है , यथा- " कौन मुसाफ़िर जाने कब जख्मी हो जाए / राहों में काँटे बेखौफ , न उगने देना " , "बेशक अपने दिल की खूब भड़ास निकालो / उसके दिल पर चोट न लेकिन लगने देना " , " दिल को अपने दीप बना दो और प्रेम को बाती / सच कहता हूँ फिर देखो रोशनी कहाँ तक जाती " , " रस्म निभाने की चिंता कितनी उस बुढ़िया को है / घर में भूँजी भांग नहीं पर घी के दीप जलाती " , " बस इतना ही कहना है जमाने से दोस्तों / घर जल रहा मिरा था , समंदर करीब था " , " पुरखतर यूँ रास्ते पहले न थे , हर कदम पर भेड़िये पहले न थे " , " वो और हैं कलम जो बेच करके पी गये / मस्ती हमारी और हैं , जलवे हमारे और / शब्दों की धार को कभी मरने नहीं दिया / गजलें हमारी और हैं , नगमें हमारे और " , " दम घुटता है मगर अभी तक जिन्दा हूँ / भीड़ खड़ी है साथ मगर मैं तन्हा हूँ " , " आग लगी है आप वहाँ एसी का लेते तुल्फ / सच से मुँह को मोड़ रखेंगे कब तक अच्छे लोग / समय सवाल करेगा इक दिन याद रहे यह बात / सुविधाभोगी कहलायेंगे कब तक अच्छे लोग " इत्यादि ।
वाकई डी एम मिश्र गजल के प्रति अपनी अंतर्निष्ठा और प्रतिश्रुति का इजहार अपनी गजल के एक शेर के जरिये ही करते हैं कि " गजल मेरी ताकत है , गजल ही जुनूँ है / जो गूँगे थे उनकी जुबाँ बन गया मैं "
नचिकेता
पटना , बिहार
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