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- अपना एमपी गज्जब...
अपना एमपी गज्जब है..18: ये "एटीएम" ब्यूरोक्रेसी है.."ला" और "ऑर्डर" का सही मतलब जानती है....
अरुण दीक्षित
एमपी के सीएम इन दिनों खासे सक्रिय हैं।अपने स्वभाव के विपरीत गुस्से से लाल पीले हो रहे हैं।पिछले एक पखवाड़े में उन्होंने नायक फिल्म के "नायक" की तरह ब्यूरोक्रेसी की लगाम कसने की कोशिश की है।उन्होंने एक एसपी और एक जिला आपूर्ति अधिकारी को निलंबित किया है।एक कलेक्टर साहब को कलेक्टरी से हटाकर मंत्रालय में बाबू बना दिया है।जिला आपूर्ति अधिकारी को तो उन्होंने पूरे फिल्मी स्टाइल में भरी सभा में मंच से निलंबित किया।साथ ही जनता की तालियां भी सुनी।
इससे पहले झाबुआ के एस पी को इसलिए निलंबित किया था क्योंकि उन्होंने सुरक्षा मांग रहे छात्रों से फोन पर पुलिसिया भाषा में बात की थी।उसके दो दिन बाद कलेक्टर को भी हटा दिया था।कहा यह गया था कि उन्होंने भी छात्रों के मामले में लापरवाही बरती थी।इसलिए मामा गुस्सा हो गए थे।शुक्रवार को निलंबित किए गए डिंडोरी के आपूर्ति अधिकारी पर लापरवाही का आरोप खुद मुख्यमंत्री ने लगाया और फिर हटाया।
वर्तमान मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं।उन्होंने कांग्रेस के चर्चित नेता दिग्विजय सिंह का रिकॉर्ड तोड़ा है।अब यह माना जा रहा है कि वे दिग्विजय को "हर क्षेत्र" में पछाड़ना चाहते हैं।यहां यह भी बताना मौजूँ होगा कि 2003 के विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा ने दिग्विजय को "मिस्टर बंटाधार" की उपाधि दी थी।साथ ही उन पर 15 हजार करोड़ का घोटाला करने का आरोप भी लगाया था।हालांकि दिग्विजय ने आरोपों के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया था।आज भी यह मुकदमा अदालत में चल रहा है।दिग्विजय कहते हैं कि भाजपा और उमा भारती उनके खिलाफ एक भी सबूत अदालत में पेश नही कर पाई हैं।अब वे माफी मांगकर बचना चाहती हैं।सबूतों को लेकर उमा भी कुछ इसी तरह की बात कर रही हैं।
फिलहाल मुख्यमंत्री के "नायक" की भूमिका में आने पर चारो ओर चर्चा हो रही है।चूंकि इससे पहले भी वे ऐसा ही रोल कर चुके हैं इसलिए इस बार चर्चा कुछ ज्यादा हो रही है और उनके रोल पर सवाल भी उठ रहे हैं।
इस बीच राजधानी भोपाल में एक नए तरह की ब्यूरोक्रेसी की चर्चा हो रही है।यह ब्यूरोक्रेसी है - एटीएम ब्यूरोक्रेसी!
इसकी व्याख्या से पहले कुछ घटनाओं पर नजर डाल लेते हैं।वैसे तो हर रोज अखबारों खबरें आती हैं कि लोकायुक्त पुलिस ने फलां कर्मचारी को घूस लेते रंगे हाथ पकड़ा। ईओडब्ल्यू ने फलां अफसर के घर छापा मारा।सीबीआई की नजर भी प्रदेश के अफसरों पर।आदि आदि! खबरें रोज आती हैं। लोग इनके आदी हो गए हैं।इसलिए इन पर ज्यादा चर्चा नही होती है।शायद एक वजह यह भी होगी कि पूरी राजधानी में मंत्रियों और अफसरों की बड़ी बड़ी अवैध संपत्तियां ,माल, अस्पताल और फार्म हाउस उनकी नजरों में रहती हैं। इसलिए वे छोटे लोगों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं।
अभी पिछले सप्ताह ही धार जिले में शराब माफिया द्वारा एक एसडीएम और तहसीलदार की पिटाई की खबर आई थी।ताजा आईएएस अफसर पिटा था इसलिए सरकार हरकत में आई।एक जांच समिति बनाई गई है।साथ ही फरार शराब व्यापारी पर दस हजार का इनाम घोषित कर दिया है।पुलिस और जांच समिति अपना काम कर रही है।
उधर खुफिया खबर यह है कि मामला "महसूल" से जुड़ा है।साहब ठेकेदार से अपना अलग नजराना लेना चाहते थे। जबकि ठेकेदार अपने स्थाई चैनल से अलग कोई कुलाबा खोलने को तैयार नहीं था।मामला बिगड़ा तो नजराने में साहब लोगों को "लात जूते" दे दिए।अब साहब के "सार्वजनिक सम्मान" पर सरकार को चेतना था सो चेत गई।जांच हो रही है।और क्या चाहिए आपको?
ऐसा ही एक मामला एक पटवारी साहब का भी सामने आया है। यह तो आप जानते ही होंगे कि अपने देश की व्यवस्था में पटवारी सबसे छोटा अफसर है।लेकिन उससे ज्यादा ताकतवर कोई नही होता।उसके लिखे को काट पाना मुख्यसचिव के भी बस की बात नही होती है।इसलिए हर पटवारी के बस्ते में बड़े बड़े अफसर भी लिपटे रहते हैं।
निबाड़ी जिले के एक पटवारी साहब अपने खिलाफ शिकायत पर ऐसे नाखुश हुए कि उन्होंने फोन पर एक हितग्राही को जमकर गालियां दीं।साथ ही यह भी बता दिया कि उनके आगे सब झुकते हैं।उनका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता है।खैर उनका यह "प्रेमालाप" हितग्राही के फोन में रिकॉर्ड हो गया।फिर वायरल भी हुआ।नतीजा यह हुआ कि साहब लोगों को उन्हें मजबूरन निलंबित करना पड़ा।
ऐसे किस्से रोज आते हैं।सरकार भी देखती सुनती होगी।लेकिन "नायक" की याद नहीं आती।
अपने एमपी की खासबात यह है कि पटवारी से प्रमुख सचिव और सिपाही से डीजी रैंक तक,ज्यादातर साहब लोग एक नाव में ही सवार हैं।एक आईएएस दंपत्ति के घर के नोटों के बिस्तर अभी भी चर्चा में रहते हैं।कुछ आईपीएस अफसरों के नाम भी सुर्खियों में रहे हैं।बहुत बड़ी सूची है। भोपाल के आसपास के इलाकों में "बड़े किसान" ऐसे ही कर्मचारी और अफसर हैं।कहते हैं कि एमपी की जमीन से उन्हें इतना प्यार हुआ कि वे उससे फेविकोल के जोड़ की तरह "जुड़" गए।
आजकल तो बड़े बड़े साहबों की चर्चा जमीनों और "महलों" को लेकर ही हो रही है।
अब बात करते हैं एटीएम ब्यूरोक्रेसी की। आम भाषा में एटीएम बैंक सेवा से जुड़ा शब्द है। बैंक की भाषा में ऑटोमेटेड टेलर मशीन को एटीएम कहते हैं।आम लोगों ने इसे "एनी टाइम मनी" माना और जब चाहे तब अपना पैसा निकाला।लेकिन मध्यप्रदेश सरकार के मंत्रालय भवन में इसकी परिभाषा कुछ और बताई जा रही है।
इस असरकारी परिभाषा के मुताबिक एटीएम का मतलब - एडवांस टोकन मनी! इस योजना का लाभ उठाने वाले अफसर और कर्मचारी एटीएम की भूमिका में रहते हैं।इनके एटीएम और बैंक के एटीएम की भूमिका में फर्क सिर्फ इतना है कि बैंक अपने ग्राहकों का पैसा अपने एटीएम में रखता है।जबकि इनके एटीएम में पैसा भरने वाले तो बहुत होते हैं।लेकिन निकालने वाले सिर्फ दो।एक जिसने "एटीएम" बनाया और दूसरे ये खुद। ला एंड आर्डर की भी इनकी अपनी परिभाषा है!
अब जब मशीन में पैसा भरा नही जायेगा तो निकलेगा कैसे? इसलिए ये "एटीएम" हर तरफ से "फिलिंग" की कोशिश में रहते हैं।फिर वह शराब ठेकेदार हो या माइनिंग का।सड़क बनाने वाला हो या बांध।इसका ज्वलंत उदाहरण पिछले दिनों जबलपुर और कारम बांध ने दिया।जबलपुर के सहायक आर टी ओ के घर छापे में उनकी आय से 700 गुना ज्यादा संपत्ति मिली। उनका शानदार महल आज भी चर्चा में है।लेकिन सरकार ने उनके खिलाफ कोई खास कदम नहीं उठाया।बस जबलपुर के ही दूसरे दफ्तर में अटैच कर दिया।ताकि वे वहीं रहकर आराम से अपना मामला निपटा सकें।
ऐसा ही कुछ कारम बांध के मामले में हुआ।तीन सौ करोड़ से भी ज्यादा लागत से बना नया बांध टूट गया।आसपास के गावों के लोग तबाह हो गए।सरकार ने रात दिन एक करके लोगों को मरने से बचा लिया।साथ ही अपनी पीठ भी ठोंक ली।
बाद में जांच आयोग बना दिया।कुछ इंजीनियर निलंबित कर दिए गए।लेकिन बांध बनाने वाले ठेकेदार से कुछ नही कहा।क्योंकि वह एक ताकतवर मंत्री का "मित्र" जो है।थोड़े दिन बाद इंजीनियर भी बहाल हो जायेंगे।
उधर हजारों गांव वाले परेशान हैं।उनकी खेती तबाह हो गई ।कोई सुनने वाला नहीं।अब वे अपने घर से भोपाल के लिए पैदल निकले हैं।
एटीएम के अलावा इन दिनों प्रदेश में चार तरह के स्पेशल टैक्स खासे चर्चा में हैं।इनमें तीन टैक्स "मेल" और एक "फीमेल" है।पूरे प्रदेश में इनका चर्चा है।इनका चैनल इतना मजबूत है कि ई डी और सीबीआई भी इनकी ओर देखने की हिम्मत नही कर सकती हैं।
एटीएम ब्यूरोक्रेसी भी इस "टैक्स चैनल" से होकर गुजरती है। सब जानते हैं लेकिन बोलता कोई नही है।
ऐसे में मुख्यमंत्री के "नायक" की भूमिका में आने से कुछ आस बंधी है।
इस "आस" फलीभूत होने की उम्मीद बस उम्मीद भर है।
इसीलिए तो कहते हैं कि अपना एमपी गज्जब है! है कि नहीं....?