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- क्या आदिवासी आपके...
वह कोई बड़ी खबर नही थी!इसीलिए मीडिया की सुर्खियों में नही आई! न ही चुनावी मोड में चल रही राज्य सरकार को यह लगा कि आदिवासियों की बेटियां भी "लाडली" की श्रेणी में आ सकती हैं।यही वजह है कि सरकारी अफसरों की सनक में सार्वजनिक घृणित अपमान की शिकार हुई दो सौ से ज्यादा किशोरियों के मुद्दे पर सब मौन से हैं।
सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकार और उसके अफसर आदिवासी समाज की रवायतों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।साथ ही यह भी कि क्या यह सब किसी एजेंडे के तहत किया जा रहा है!क्या उन्हें पता नही है कि आदिवासी हिंदू पर्सनल लॉ के दायरे में नहीं आते हैं।
पहले बात आदिवासी युवतियों के अपमान की!आखातीज के दिन राज्य के अन्य जिलों की तरह आदिवासी बहुल डिंडोरी जिले में भी मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना के तहत सामूहिक विवाह का
आयोजन किया गया था।इस योजना के तहत सरकार नव विवाहित जोड़े को 6 हजार रुपए का घरेलू सामान और 49 हजार रुपए नकद देती है।यह राशि नवदंपति के बैंक खाते में जमा की जाती है।
बताते हैं गड़ा सराय इलाके में हुए इस आयोजन में कुल 224 जोड़े शामिल हुए!अफसरों ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई विवाहित जोड़ा इस योजना का लाभ न उठा ले,सभी 224 लड़कियों का प्रेगनेंसी टेस्ट करा डाला।टेस्ट के बाद 5 लड़कियों को शादी से रोक दिया गया क्योंकि जांच में वे गर्भवती पाईं गईं।उन्हें बिना विवाह के घर भेज दिया गया!
हालांकि उन लड़कियों ने यह माना कि वे जिन युवकों से शादी करने जा रही हैं,उनके साथ कुछ महीनों से रह रही हैं।आदिवासी समाज में यह आम रिवाज है।उनके मां बाप को उस पर आपत्ति नहीं थी।लेकिन शादी कराने वाले अफसरों को हो गई।
इस घटना को खुद जिले के कलेक्टर ने स्वीकार किया।उन्होंने कहा कि 5 गर्भवती लड़कियों को विवाह स्थल पर योजना से बाहर किया गया।प्रेगनेंसी टेस्ट को उन्होंने एक शानदार कहानी से जोड़ा।साथ ही यह भी बताया कि आदिवासियों में सिकल सेल एनीमिया की बीमारी होती है।इसी वजह से सभी जोड़ों के स्वास्थ्य की जांच कराई गई।
विवाह आयोजन से जुड़े दूसरे अधिकारियों ने यह साफ कहा कि विवाह के पहले प्रेगनेंसी टेस्ट कराना अनिवार्य है।ताकि कोई विवाहित जोड़ा योजना का गलत लाभ न ले ले!
कांग्रेस के स्थानीय आदिवासी विधायक ने इस जांच का विरोध किया।प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने भी इस टेस्ट पर आपत्ति जताई।लेकिन सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया।
यह भी पता चला है कि 2013 में भी अधिकारियों ने आदिवासी युवतियों के इसी तरह के टेस्ट कराए थे।यह टेस्ट आदिवासी बहुल बैतूल और डिंडोरी जिले में ही कराए गए था।तब यह मामला देश की संसद तक पहुंचा था।राज्य सरकार ने मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश भी दिए थे।लेकिन जांच रिपोर्ट का दस साल बाद भी कहीं पता नही है।
अब बात आदिवासी समाज की!आदिवासियों की जितनी भी तरह की जातियां पाई जाती हैं उन सभी में बहुत ही खुलापन है।खास तौर पर सेक्स को लेकर लड़की या महिला को लांक्षित करने या प्रताड़ित करने का रिवाज आदिम समाज में नही है।उनकी एक अलग जीवन शैली है। हर साल होने वाले भगोरिया मेले इसका जीवंत उदाहरण हैं।
अभी भी एक आदिवासी पुरुष दो तीन पत्नियां रख सकता है।वह उनसे बच्चे पैदा करने के बाद कभी भी अपनी सुविधा से शादी कर सकता है।पिछले साल इन्ही दिनों अलीराजपुर जिले के नानपुर गांव के पूर्व सरपंच समरथ मौर्या (भिलाला) ने अपनी तीन प्रेमिकाओं के साथ एक ही मंडप में शादी की थी।वह 15 साल से इन तीनों महिलाओं के साथ रह रहा था।उसके इनसे 6 बच्चे भी हैं।वह भी अपने मां बाप की शादी में शामिल हुए थे।
समरथ ने तब कहा था - पहले पैसे नहीं थे।इसलिए शादी नही कर पाया था।अब संपन्नता आ गई है तो धूमधाम से शादी कर ली।यह शादी पूरे प्रदेश में चर्चा का विषय रही थी।
आदिवासी समाज के अपने नियम हैं।उनकी अपनी मान्यताएं हैं।सेक्स और महिलाओं को लेकर हिंदू समाज जैसी धारणा और कट्टरता उनमें नही है।इसी वजह से अक्सर लड़के लड़कियां साथ रह कर बच्चे तो पैदा कर लेते हैं।लेकिन समाज को दावत देने के लिए पर्याप्त धन न होने की वजह से वह शादी नही कर पाते हैं।
डिंडोरी में आखातीज को जो हुआ उसने सबसे बड़ा सवाल यही उठाया है कि क्या राज्य सरकार आदिवासी समाज पर अपने नियम थोप रही है।जब लड़का और लड़की के एक साथ एक घर में रहने पर आदिवासी समाज को आपत्ति नहीं है तो अधिकारियों ने उनके विवाह में टांग क्यों अड़ाई?क्या उनके पास उनकी शादी का कोई प्रमाण था?या फिर कोई गर्भवती युवती अपनी पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?जब लड़के को आपत्ति नहीं तो अफसरों को क्यों!सिर्फ इसलिए कि उन्हें सरकारी विवाह योजना का लाभ न मिल सके!
एक बात और!वह भी बहुत ही मजेदार!इन दिनों देश और प्रदेश में सत्तारूढ़ दल आदिवासियों को लेकर बड़े बड़े दावे कर रहा है।आदिवासी महिला को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाने का श्रेय बड़े बड़े विज्ञापन देकर,बड़ी बड़ी सभाओं में बड़े बड़े कर्णधारों द्वारा लिया जा रहा है। आदिवासी समाज के शिखर पुरुषों को लेकर बड़ी बड़ी घोषणाएं की जा रही हैं।खुद मुख्यमंत्री "पेसा" योजना का प्रचार करते गांव गांव घूम रहे हैं।लेकिन क्या उन्होंने और उनके अफसरों ने आदिवासियों और उनकी सामाजिक रवायतों को समझने की कोशिश की है?
आदिवासियों के बीच उनकी मातृ संस्था लंबे समय से काम कर रही है।आजादी से पहले ईसाई मिशनरियों ने जो काम शुरू किया वही अब किया जा रहा है।उन्होंने लालच देकर आदिवासियों को ईसाई बनाया।अब उन्हें "संघी हिंदू" बनाने की मुहिम चल रही है।
खासतौर पर 2003 के बाद यह मुहिम एक साथ कई स्तरों पर चल रही है।देश में रहने वाले हर व्यक्ति को हिंदू बताते हुए आदिवासियों को "राम" और कृष्ण से जोड़ने का काम युद्धस्तर किया जा रहा है।इस काम में मातृ संस्था की पूरी मदद राज्य सरकार और उसकी मशीनरी कर रही है।
अब तो उन आदिवासियों से आरक्षण और अन्य सुविधाएं छीनने की भी मुहिम चलाई जा रही है जो ईसाई बन गए हैं।इसके लिए एमपी और छत्तीसगढ़ में बड़े प्रदर्शन भी किए जा चुके हैं।
आदिवासियों को "हिंदू खांचे" में फिट करने की चौतरफा मुहिम चल रही है। डिंडोरी के अधिकारियों द्वारा प्रेगनेंसी टेस्ट भी इसी अभियान का हिस्सा तो नही है?
क्योंकि जिस राज्य में अफसर मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना के नाम पर खुद करोड़ों खा जाएं वे कुछ भी कर सकते हैं।मजे की बात यह है अफसरों द्वारा फर्जी विवाह खुद मुख्यमंत्री के अपने जिले विदिशा में कराए गए थे।इस घोटाले का खुलासा भी बीजेपी के ही एक विधायक ने विधानसभा में सवाल उठाकर किया था।
हंगामे के बाद जांच हुई।घोटालेबाज अफसर और सरकारी कर्मचारी पकड़े गए।जेल भेजे गए।मामले की जांच अभी भी चल रही है।
उधर जेल गए अफसरों के करीबी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने जो कुछ किया था वह सब "ऊपर" के आदेश पर किया था।आदेश के मुताबिक सरकारी खजाने से पैसा निकालना था!इसलिए जो लोग अपने खर्चे पर अपने बच्चों की शादियां कर चुके थे।उन्हें खोजा गया।उन्हें लालच देकर उनके खाते में 51 हजार डाल कर उनसे पैसे वापस ले लिए गए।इस तरह कुछ 6000 शादियां सरकारी आंकड़ों में हुईं।करीब 30 करोड़ रुपए की चपत सरकारी खजाने को लगी।यह भी बताया जाता है कि इसमें से 25 करोड़ तो सीधे ऊपर पहुंचा दिए गए थे।मामला इस लिए खुला क्योंकि एक नेता जी "ऊपर" की तर्ज पर अपनी भी सेवा चाहते थे।यह खेल 2018 और 2019 में किया गया था।उसके बाद क्या हुआ राम जाने।
जो सरकारी मशीनरी इतना बड़ा खेल कर सकती है वह सिर्फ सरकार के 51 हजार रुपए बचाने के लिए प्रेमी से शादी रचाने आई आदिवासी युवती का प्रेगनेंसी टेस्ट नही करा सकती।या तो वह आदिवासी समाज परंपराओं को नही समझती है या फिर वह निर्देशित एजेंडा चला रही है।
सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि चुनावी नैया पार करने के लिए पूरे प्रदेश में घर घर में "लाड़ली बहनों " की खोज करा रहे प्रदेश के मुखिया भी इस मुद्दे पर मौन हैं।ऐसा लगता है कि सरकारी खजाने से हर महीने एक हजार रुपए देने के वायदे के आगे आदिवासी बहनों का अपमान बहुत हल्का है।रुपया इस अपमान की भरपाई कर देगा?
कुछ भी इतना तो तय है कि "भाई के राज" में सरकारी मशीनरी बहनों की अस्मिता से खेल रही है!लेकिन अजन्मे बच्चों के "मामा" को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है।
इसीलिए तो कहते हैं कि अपना एमपी गज्जब है।है की नहीं?