भोपाल

क्या उपचुनावों में जीत कांग्रेस को फिर सत्ता में ला सकती है?

Shiv Kumar Mishra
27 March 2020 7:37 PM IST
क्या उपचुनावों में जीत कांग्रेस को फिर सत्ता में ला सकती है?
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कुछ ऐसा ही ट्वीट अगले दिनों में पूर्व मंत्री जीतू पटवारी ने भी किया और उन्होंने भी कांग्रेस के सत्ता से जाने को अल्पविराम बताते हुए जल्द ही वापसी की उम्मीद जताई.

दीपक गोस्वामी

मध्य प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई है. बीते सप्ताह गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमलनाथ सरकार को अगले दिन यानी शुक्रवार शाम पांच बजे तक फ्लोर टेस्ट के माध्यम से विधानसभा में बहुमत साबित करने का अल्टीमेटम दिया गया था. लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले ही मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया था.

इस तरह 15 सालों बाद प्रदेश में लौटी कांग्रेस सरकार महज 15 महीनों का ही कार्यकाल पूरा कर पाई. नई सरकार बनाने वाली भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान को चौथा मौका दिया है. कांग्रेस सरकार गिरने के हालात तब बने जब पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी के चलते राज्य में पार्टी के एक धड़े के मुखिया ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ बगावत कर गये.

सिंधिया भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गये और उक्त 22 बागी विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. तब से ही एक सवाल हर तरफ तैर रहा है कि बागी विधायकों के इस्तीफे के बाद अब राज्य में उन सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी तो क्या कांग्रेस उन सीटों पर जीत दर्ज करके फिर से सत्ता में वापसी कर सकती है?

इस सवाल को बल कमलनाथ के इस्तीफे वाले दिन ही मध्य प्रदेश कांग्रेस के ट्विटर हैंडल द्वारा किए गए उस ट्वीट से मिला जहां लिखा गया था कि यह अल्प विराम है और आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर कमलनाथ ही मुख्यमंत्री के तौर पर झंडा फहराएंगे.

कुछ ऐसा ही ट्वीट अगले दिनों में पूर्व मंत्री जीतू पटवारी ने भी किया और उन्होंने भी कांग्रेस के सत्ता से जाने को अल्पविराम बताते हुए जल्द ही वापसी की उम्मीद जताई.

कांग्रेस के इस आत्मविश्वास को समझने के लिए पहले विधानसभा के वर्तमान गणित को समझना होगा. राज्य में 230 सदस्यीय विधानसभा है.

जौरा और आगर-मालवा सीट पिछले कुछ महीनों से खाली हैं क्योंकि इन सीटों के निर्वाचित विधायकों का बीते दिनों निधन हो गया था. जिसके चलते इस महीने की शुरुआत में विधानसभा में मौजूदा सदस्यों की संख्या 228 थी, जिनमें से सिंधिया खेमे के 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद सदन में सदस्यों की संख्या 206 पर ठहर जाती है.

बीते गुरुवार देर रात ही भाजपा के एक अन्य विधायक शरद कौल का इस्तीफा भी विधानसभा स्पीकर द्वारा स्वीकार कर लिया गया था.

शरद कौल के इस्तीफे पर विवाद कायम है क्योंकि राज्य सरकार में भाजपा को वापसी करते देख शरद दावा कर रहे हैं कि उनका इस्तीफा कांग्रेस द्वारा दबाव में लिखवाया गया था.

लेकिन अब तक इस इस्तीफे पर स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है. बहरहाल, तत्कालीन स्पीकर नर्मदा प्रसाद प्रजापति ने तो शरद कौल का इस्तीफा स्वीकार कर लिया था लेकिन विधानसभा के सचिव द्वारा इस संबंध में कोई नोटिफिकेशन जारी नहीं हुआ.

इसलिए भाजपा शरद कौल की सदस्यता बचाने में जुट गई है. विधायक कौल और भाजपा ने इस संबंध में राज्यपाल लालजी टंडन को भी सूचित किया है कि तत्कालीन स्पीकर ने द्वेषपूर्ण कार्रवाई करके शरद कौल का इस्तीफा मंजूर किया था.

इस तरह शरद कौल के इस्तीफे के कारण वर्तमान सदन संख्या 205 मानी जाएगी और भाजपा विधायकों की संख्या 106. जो किसी वर्तमान हालातों में बहुमत के लिए आवश्यक 103 सीटों से अधिक है और भाजपा अकेले दम पर ही बहुमत के आंकड़े पर है.

शरद कौल के इस्तीफे पर अभी असमंजस बना हुआ है. लेकिन सदन में विश्वास मत की कार्रवाई में वे जरूर शामिल हुए थे.

वहीं, बागी 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के पास 92 विधायक बचे हैं. इसके अलावा सदन में 4 विधायक निर्दलीय हैं, 2 बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और एक समाजवादी पार्टी (सपा) से है.

भविष्य में इन खाली 25 सीटों पर उपचुनाव के बाद सदन संख्या फिर से 230 हो जाएगी और बहुमत का आंकड़ा होगा 116 सदस्य. कांग्रेस के पास 92 सदस्य हैं.

सभी सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार चलाने वाली कांग्रेस का साथ अब ये विधायक भी नहीं दे रहे हैं. सरकार बदलते ही इन विधायकों के सुर भी बदल गये हैं.

कमलनाथ सरकार में खनिज मंत्री निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल कहते हैं कि पहले कांग्रेस सरकार में थी तो उसके साथ थे, अब क्षेत्र के विकास के लिए भाजपा के साथ काम करेंगे.

वहीं, एक अन्य निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा ने कमलनाथ के इस्तीफे के बाद कह दिया था कि क्षेत्र की जनता से चर्चा करके भाजपा के साथ जाने और न जाने का फैसला लेंगे.

सिंधिया के बागी होने से पहले जब मार्च माह के शुरुआत में दिग्विजय सिंह ने सरकार में शामिल जिन दस विधायकों के लापता होने और भाजपा से सौदेबाजी में शामिल होने की बात कही थी, उनमें प्रदीप जायसवाल को छोड़कर उक्त बाकी विधायक भी शामिल थे.

वहीं, मुख्यमंत्री पद की शपथ के बाद जब शिवराज ने 24 तारीख को सदन में विश्वास मत पेश किया था तब कांग्रेसी विधायकों ने तो सदन की कार्रवाई से वॉक आउट किया था. लेकिन उक्त सात में से पांच विधायक भाजपा के पक्ष में सदन में मौजूद रहे.

उनमें सपा विधायक राजेश शुक्ला, बसपा विधायक रामबाई और संजीव कुशवाह तथा निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा और विक्रम सिंह राणा शामिल थे.

इसलिए ऐसी संभावना भी नहीं कि विपक्ष में बैठने जा रही कांग्रेस के साथ सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों का साथ बना रहेगा. तय है कि वे भी सत्ता के साथ ही सुर मिलाना चाहेंगे.

इन हालातों में भाजपा और मजबूत होगी और उसकी वर्तमान सदस्य संख्या 113 पहुंच जाएगी, जो कि 230 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत की संख्या 116 से महज तीन कम होगी.

इस तरह सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों के भी पाला बदलने से कांग्रेस का 2023 के पूर्णावधि चुनावों से पहले सत्ता वापसी का रास्ता मुश्किल नजर आता है.

क्योंकि सरकार बनाने के लिए उसेअब उपचुनावों वाली 25 में से 24 सीटों पर जीत दर्ज करनी होगी. जो कि कांग्रेस के केंद्रीय और प्रादेशिक संगठन की वर्तमान हालात देखते हुए असंभव जान पड़ता है.

जबकि भाजपा को उपचुनाव वाली 25 सीटों में से अकेले दम पर बहुमत पाने के लिए दस सीटें और गठबंधन के साथ बहुमत पाने के लिए 25 में से केवल 3 सीटें जीतनी होंगी.

वहीं, सत्ता परिवर्तन के बाद से ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस के एक और वरिष्ठ विधायक अपना इस्तीफा सौंपकर भाजपा में शामिल हो सकते हैं.

केपी सिंह पिछोर से विधायक हैं और कमलनाथ सरकार के दौरान वरिष्ठ होने के बावजूद मंत्री न बनाए जाने के चलते लगातार खफा रहे थे. अगर उनका भी इस्तीफा होता है तो सदन संख्या 204 पर ठहर जाएगी और 26 सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी.

इस स्थिति में सदन में कांग्रेस के विधायक 91 रह जाएंगे और उसे बहुमत हासिल करने के लिए उपचुनाव में 26 में से 25 सीटें जीतनी होंगी.

यहां एक संभावना और बनती है कि यदि शरद कौल यह साबित करने में कामयाब हो गए कि उनका इस्तीफा जबरन लिखवाया गया था, तो उस स्थिति में 24 सीटों पर उपचुनाव होगा. कांग्रेस सभी 24 सीटें जीतनी होंगी.

कांग्रेस के लिए चिंता की बात ये है कि इन 24 सीटों में से 16 सीटें तो ग्वालियर-चंबल अंचल की हैं. सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद यहां पार्टी अनाथ सी होने की स्थिति में आ गई है. क्योंकि कांग्रेस की सभी नीतियों का निर्धारण यहां सिंधिया ही करते थे.

छह महीने के अंदर होने वाले उपचुनाव से पहले अंचल में नया नेतृत्व खड़ा करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.

जबकि अंचल में भाजपा के पास ज्योतिरादित्य सिंधिया, जो इस क्षेत्र में कांग्रेस को अपने दम पर जिताते आए थे, के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और नरोत्तम मिश्रा जैसे नाम हैं.

भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा भी इसी अंचल से हैं. इसलिए 2023 के अगले पूर्णावधि चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस की वापसी के दूर-दूर तक कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं.

संभावना सिर्फ तभी बनती है जब कांग्रेस भी भाजपा की तरह कोई बड़ा जोड़-तोड़ करे. लेकिन कांग्रेस ऐसा करने की स्थिति में भी नजर नहीं आती.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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