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- चुनावी वैतरणी और...
यह चुनावी साल है!इसलिए खैरात बंटना लाजमी है।लेकिन करीब दो दशक पुरानी हो चली बीजेपी सरकार जिस तरह समाज के अलग अलग तबकों को लुभाने की कोशिश कर रही है उससे खुद उस पर सवाल उठ रहे हैं!
सबसे अहम सवाल यह है कि जो सरकार चुनाव के कुछ दिन पहले अलग अलग समाजों के उत्थान के लिए नए बोर्ड और आयोग बना रही है उसने इतने सालों में इन समाजों के बारे में क्या किया? क्या सरकार ने पहले कभी इनके बारे में सोचा था।या फिर अब ऐन चुनाव के वक्त समाज के नाम पर अपने किसी चहेते को लाल बत्ती देकर वह पूरे समाज को मूर्ख बनाना चाह रही है।
सरकारी घोषणाओं को देखें तो पिछले एक पखवाड़े में दो दर्जन से ज्यादा पद जाति और समाज के नाम पर बांटे गए हैं।इनमें सबसे ताजा मामला ब्राह्मण समाज का है।मुख्यमंत्री ने परशुराम जयंती पर ब्राह्मण कल्याण बोर्ड के गठन का ऐलान किया।साथ ही यह भी कहा की परशुराम की जन्मस्थली जानापाव में सरकार परशुराम लोक भी बनवाएगी!अभी बोर्ड के गठन की प्रक्रिया शुरू होने की कोई जानकारी नहीं है।लेकिन इस बोर्ड में पद हथियाने के लिए ब्राह्मण नेताओं में गला काट प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है।
इससे पहले सरकार मछुआ कल्याण बोर्ड, राज्य सफाई कर्मचारी आयोग,भारिया जनजाति विकास प्राधिकरण,राज्य प्रवासी श्रमिक आयोग,हज कमेटी,श्रम कल्याण मंडल, माटी कला बोर्ड, बांस विकास प्राधिकरण के गठन का ऐलान कर चुकी है।
16 अप्रैल को ग्वालियर में आयोजित आंबेडकर महाकुंभ में मुख्यमंत्री ने यह ऐलान किया था कि उनकी सरकार अनुसूचित जाति समाज की उपजातियों के लिए अलग अलग कल्याण बोर्ड बनाएगी।इनके अध्यक्ष को मंत्री का दर्जा दिया जायेगा।ये बोर्ड समाज की समस्याओं को जानेंगे और उन्हें सरकार को बताएंगे।
इसके अलावा सरकार ने तमाम निगम मंडलों में राजनैतिक नियुक्तियां की हैं।ऐसा करके या तो अपने चहेतों को उपकृत किया है या फिर नाराज लोगों को पद देकर मनाने की कोशिश की है।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक अब तक राज्य में 70 से ज्यादा लोगों को मंत्री दर्जा दिया जा चुका है।जबकि मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या 30 ही है।नियम के हिसाब से मंत्रिमंडल में अभी 4 नियुक्तियां और हो सकती हैं।इनके लिए भी लंबी लाइन लगी हुई है।
सरकार का दावा है कि जो बोर्ड ,आयोग और प्राधिकरण गठित किए गए हैं वे विभिन्न समाजों और सरकार के बीच सेतु का काम करेंगे।
अब जरा जमीनी हकीकत देखिए।विधानसभा चुनाव में अब कुल 185 दिन बचे हैं।इन दिनों में सरकार के ये आयोग जमीन पर उतर कर काम करने लगेंगे, इसमें संदेह है।अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति के साथ दफ्तर के लिए जगह और काम करने के लिए कर्मचारियों की जरूरत होगी।इतने दिनों में ये सब हो जायेगा,यह मान लेना मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसा होगा।सरकार कैसे काम करती है,यह सब जानते हैं। हां इतना हो जायेगा कि अध्यक्ष और सदस्यों को गाड़ी बंगला मिल जाए।वे अपने समाज में फर्राटा भरने लगें!लेकिन समाज को आयोग का कोई लाभ मिल पाएगा इसमें संदेह है।खुद मुख्यमंत्री भी यह जानते हैं।
वैसे अगर सरकार का पिछला रिकॉर्ड देखें तो पता चलेगा कि बोर्ड और आयोग पहले भी बने थे।लेकिन समाजों को उनका कोई लाभ मिला हो इसका कोई ब्यौरा सरकारी आंकड़ों में नही है।यह भी सर्वविदित है कि ज्यादातर आयोग और बोर्ड के पदाधिकारी अपनी सुविधाओं के चक्कर में ही उलझे रहे।कुछ के दफ्तर भी नही खुल पाए थे।
एक बार फिर सरकार उसी "सड़क" पर दौड़ पड़ी है। हर समाज के नाम पर बोर्ड और आयोग बनाकर अपने चहेतों को उपकृत कर रही है।उसकी यह मुहिम तब भी सार्थक मानी जा सकती जब वह इन समाजों के सर्वमान्य नेताओं को आगे लाती।लेकिन उसने गणेश परिक्रमा करने वाले नेताओं को ही लाल बत्ती से नवाजा है।आगे भी ऐसे ही लोग नवाजे जाएंगे!
सवाल यह भी है कि सरकार में हर विभाग होने के बाद समाज के तबकों को अलग अलग करके देखने की जरूरत क्यों पड़ी!क्या करीब 19 साल सत्ता में रहने के बाद भी वह अपनी वर्तमान व्यवस्था में इनके कल्याण का रास्ता नहीं खोज पाई या उनकी समस्याओं को नही जान पाई।
अब आयोग और बोर्ड बनाए जा रहे हैं।अगर 3 साल पहले भी इन समाजों के बारे में सोच लिया गया होता तो शायद आज इनकी जरूरत ही नही पड़ती।या फिर पहले जो पंचायतें मुख्यमंत्री निवास में होती थीं उनके फीडबैक पर ही ध्यान दे दिया जाता।तो बहुत कुछ हो सकता था या किया जा सकता था।
ऐसा नहीं है कि इस तरह की कोशिश पहली बार की जा रही है।बीजेपी हो या कांग्रेस सभी यही करती आई हैं।लेकिन सत्ता में बैठ कर सभी यह भूल जाते हैं कि अब सभी समाज सत्ता में अपनी पूरी हिस्सेदारी चाहते हैं।जातिगत जनगणना की मांग इसी का एक हिस्सा है।ऐसे में समाज के नाम पर कुछ लोगों को "रेवड़ियां" खिला देने भर से समाज किसी के साथ खड़े हो जाएंगे,इसमें संदेह है।आज समाज जागरूक हैं।उनके अपने सामाजिक संगठन भी मजबूत हैं।उन्हें यह मालूम है कि चुनाव के कुछ दिन पहले किसी एक को पद दे देने से समाज का कितना भला होगा!या फिर ऐसा करने के पीछे सरकार की असली मंशा क्या है।
इसलिए जो रेवड़ियां बंट रही हैं उनका "फल" मिलेगा ही, ऐसा दावा करना सिर्फ "दावा" भर होगा।वैसे भी अगर बोर्ड और आयोग ही वोट दिला सकते तो फिर तो शायद सरकारें बदलती ही नहीं।वैसे सत्ताधीशों को यह समझना चाहिए कि अब टोपी और बंदर की कहानी पुरानी हो गई है।यह चैट जीपीटी और एआई का जमाना है!समाज की सीमा रेखा पर बैठा आदमी भी वायदों की हकीकत बखूबी समझता है।
लेकिन सरकार तो सरकार है!वह कुछ भी कर सकती है।रेवड़ियों की पोटली लुटाए या फिर आसमानी सुलतानी वायदे करे!उसे कौन रोक सकता है भला!