भोपाल

कई सबक के साथ मध्यप्रदेश में शिवराज युग का समापन...

Shiv Kumar Mishra
15 July 2020 5:27 PM GMT
कई सबक के साथ मध्यप्रदेश में शिवराज युग का समापन...
x

नवनीत शुक्ला

अं तत: मंत्रालय बंटने के मामले का पटाक्षेप होने के साथ ही शिवराजसिंह चौहान को भी कई सबक सीखने को मिल गए, वहीं अब यह भी माना जाए कि पार्टी में शिव-युग समाप्त होने जा रहा है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पटवा और विक्रम वर्मा युग का समापन दिल्ली के इशारे पर शुरू हुआ था और नई टीम के रूप में कप्तानसिंह, अरविंद भदौरिया के साथ उमा भारती का आगमन हुआ था। इसी के साथ ही पटवा और विक्रम वर्मा समर्थकों की राजनीति का भी समापन शुरू हो गया था। वे अगले दौर में फिर स्थापित नहीं हो पाए। एक बार फिर यही इतिहास शिवराजसिंह चौहान के साथ दोहराया जा रहा है। शिवराजसिंह चौहान भी अब आने वाले समय में संगठन या दिल्ली की राजनीति में अपनी भूमिका तय कर पाएंगे। हालांकि उन्हें सिंधिया से कुछ सीखना चाहिए कि उन्होंने अपने समर्थकों को अकेला नहीं छोड़ा, जबकि शिवराज अपने हित को देखते हुए अपने समर्थकों को छोड़ते चले गए, इसीलिए अब उनके साथ खड़े होने वाली संख्या उनके पहले कार्यकाल की अपेक्षा बेहद कम हो गई है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आगमन के साथ ही दिल्ली बैठे नेताओं ने मध्यप्रदेश में एक नई इबारत भी लिखना शुरू कर दी। चूंकि सारे समझौते सिंधिया ने दिल्ली में किए थे, इसलिए हर समझौते की जवाबदेही दिल्ली को ही तय करना है, परंतु जब घर बैठे लॉटरी खुली तो शिवराजसिंह चौहान को भी लगा कि एक पारी और खेली जा सकती है। वे सर्वेसर्वा दिखाई देने लगे, परंतु हो नहीं पाए। अपने लोगों को मंत्री बनवाने के लिए उन्हें ऐसा लगा कि पूर्व ताकत के अनुसार वे जो सूची देंगे, वह अंतिम होगी, परंतु इस बार पासे पलट चुके थे। पहली बार शिवराजसिंह चौहान को अपने समर्थकों को धीरे-धीरे दरकिनार करना पड़ा। आखिरी में वे इस स्थिति में आ गए कि उनके दो समर्थक भी मंत्री बन जाएं तो बहुत है। वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया को मानना पड़ेगा कि उन्होंने अपने साथ कांग्रेस छोड़कर आए उन बाईस विधायकों को अकेला नहीं छोड़ा और समझौते भी पूरे बाईस विधायकों के लिए किए, यानी जो विधायक बचेंगे, वे निगम-मंडलों में स्थापित हो जाएंगे। वहीं दूसरी ओर शिवराजसिंह चौहान जब ताकतवर थे, तब भी अपने समर्थक को लेकर कभी ऐसा नहीं लगा कि वे अड़े हों। इसी का परिणाम यह रहा कि आज जब वे पूरी पार्टी में अकेले दिखाई दे रहे हैं तो विधायक उनके साथ खड़े होने को तैयार नहीं दिखाई दे रहे हैं। इससे दिल्ली हाईकमान भी यह समझ रहा है कि पार्टी में उनकी क्या हैसियत रह गई है, जबकि दूसरी ओर कर्नाटक हो या राजस्थान, दोनों मुख्यमंत्रियों ने अपनी भाषा में हाईकमान को अपनी ताकत दिखाते हुए यह बता दिया था कि कोई और प्रयास किया गया तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। जब तक वसुंधरा राजे राजस्थान में रहीं, नरेंद्र मोदी तक दूरी बनाए हुए थे।

अपने ही समर्थक कम करते गए....

वे खुद दिल्ली नहीं जाती थीं, उनके साठ विधायक जाते थे, तो दूसरी ओर कर्नाटक में येदुरप्पा पर भ्रष्टाचार के पूरे आरोप लगने और मुकदमा दर्ज होने के बाद भी अमित शाह उन्हें हिला नहीं पाए। राजनेताओं के लिए भी सिंधिया प्रकरण एक सीख भी है कि वे आगे बढ़ते समय अपने समर्थकों को छोड़ते न चलें। किसी जमाने में शिवराज को मुख्यमंत्री बनाने में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और अनूप मिश्रा की बड़ी भूमिका रही थी। आज दोनों ही शिवराज के धुर विरोधी माने जाते हैं। इसके साथ ही यह भी तय है कि भविष्य की राजनीति मध्यप्रदेश में सरकार आए या न आए, ज्योतिरादित्य सिंधिया ही भाजपा में करेंगे। सबसे बड़ा संकट उन नेताओं के सामने रहेगा, जो शिवराजसिंह चौहान के कट्टर समर्थक रहे थे, जैसे सुंदरलाल पटवा के हटने के बाद उनके कट्टर समर्थकों को मंत्री तो दूर की बात है, विधायक के टिकट के भी लाले पड़ने लगे। वहीं अब भाजपा के दिल्ली बैठे नेता भी यह मानने लगे है कि अब देश की जनता पूरी तरह उनके साथ है। उन्हें भाजपा कार्यकर्ताओं की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं रही है।

टाइगर या फिर लिप्टन टाइगर...

इन दिनों भाजपा के अंदरखाने में नई चर्चा शुरू हो गई है। पहले पूरी भाजपा में एक ही टाइगर जिंदा था, अब आठ दिनों से जंजीर डालकर दिल्ली-भोपाल घुमाए जाने के बाद अब टाइगर शर्मिंदा है। वहीं दूसरी ओर दूसरे टाइगर को लेकर भी पार्टी कार्यकर्ता यह कहने में नहीं चूक रहे हैं कि यह टाइगर नहीं लिप्टन टाइगर है। इस तरीके से लिपट गया है कि अब न तो छोड़ते बन रहा है, न पकड़ते बन रहा है। पूरी भाजपा के दिग्गज एक टाइगर के पीछे खंजरी बजा रहे हैं। आठ दिन से मंत्रिमंडल का बंटवारा नहीं होना भी दोनों टाइगरों के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। वहीं यह भी कहा जा रहा है कि टाइगर वही, जो रिंग मास्टर को भाए और इस समय लिप्टन टाइगर, रिंग मास्टर के सबसे करीब है। वह इस गाने पर बेहतर नाच भी कर सकता है- चल बैठ जा, बैठ गया, चल खड़ा हो जा, खड़ा हो गया, जरा घूम जा, घूम गया, वापस आ जा, आ गया राजा... आ गया राजा। इन दिनों नब्बे प्रतिशत भाजपा कार्यकर्ताओं के पास एक ही काम बचा है, जो एक-दूसरे से पूछ रहे हैं मंत्रालय बंट गए क्या?

इनको कोई समझाएगा क्या....

भाजपा के वरिष्ठ नेता विक्रम वर्मा को कोरोना ने पिछले दिनों अपनी आगोश में जकड़ लिया है। वे अस्पताल में भर्ती हैं। खबर ये नहीं है, खबर ये है कि उनके भर्ती होने के एक पूर्व ही इंदौर को दोनों संभागीय संगठन मंत्री और पूर्व संगठन महामंत्री मोघे उनके निवास पर अच्छी-खासी गलबहियां करके आए थे। इस दौरान गले मिलने से लेकर गले पड़ने तक की बात होती रही। एक ही थाली में नाश्ता भी लपड़-धपड़ किया गया। जैसे ही अगले दिन विक्रम वर्मा के कोरोना होने की जानकारी मिली तो मोघेजी ने सुरक्षा के हिसाब से खुद को क्वारंटाइन कर लिया। घर के लोगों से भी दूरी बना ली, परंतु दोनों चंगु-मंगु (संगठन मंत्री) अभी भी नहीं मान रहे हैं। एक तो महाराज को मुंह पर मास्क लगाने में ही वजन लगता है। अब ये कार्यकर्ताओं को बुला-बुलाकर ज्ञान भी दे रहे हैं। ऐसा लगता है पूरी बारात लेकर ही जाने की तैयारी है। कोई पढ़ा-लिखा हो, जिसकी सुनते हों तो समझाओ।

Next Story