- होम
- राष्ट्रीय+
- वीडियो
- राज्य+
- उत्तर प्रदेश
- अम्बेडकर नगर
- अमेठी
- अमरोहा
- औरैया
- बागपत
- बलरामपुर
- बस्ती
- चन्दौली
- गोंडा
- जालौन
- कन्नौज
- ललितपुर
- महराजगंज
- मऊ
- मिर्जापुर
- सन्त कबीर नगर
- शामली
- सिद्धार्थनगर
- सोनभद्र
- उन्नाव
- आगरा
- अलीगढ़
- आजमगढ़
- बांदा
- बहराइच
- बलिया
- बाराबंकी
- बरेली
- भदोही
- बिजनौर
- बदायूं
- बुलंदशहर
- चित्रकूट
- देवरिया
- एटा
- इटावा
- अयोध्या
- फर्रुखाबाद
- फतेहपुर
- फिरोजाबाद
- गाजियाबाद
- गाजीपुर
- गोरखपुर
- हमीरपुर
- हापुड़
- हरदोई
- हाथरस
- जौनपुर
- झांसी
- कानपुर
- कासगंज
- कौशाम्बी
- कुशीनगर
- लखीमपुर खीरी
- लखनऊ
- महोबा
- मैनपुरी
- मथुरा
- मेरठ
- मिर्जापुर
- मुरादाबाद
- मुज्जफरनगर
- नोएडा
- पीलीभीत
- प्रतापगढ़
- प्रयागराज
- रायबरेली
- रामपुर
- सहारनपुर
- संभल
- शाहजहांपुर
- श्रावस्ती
- सीतापुर
- सुल्तानपुर
- वाराणसी
- दिल्ली
- बिहार
- उत्तराखण्ड
- पंजाब
- राजस्थान
- हरियाणा
- मध्यप्रदेश
- झारखंड
- गुजरात
- जम्मू कश्मीर
- मणिपुर
- हिमाचल प्रदेश
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
- उडीसा
- अरुणाचल प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- चेन्नई
- गोवा
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- पश्चिम बंगाल
- उत्तर प्रदेश
- शिक्षा
- स्वास्थ्य
- आजीविका
- विविध+
- Home
- /
- राज्य
- /
- मध्यप्रदेश
- /
- भोपाल
- /
- तीन राज्यों में आपसी...
तीन राज्यों में आपसी द्वंद से जूझती बीजेपी, जहाँ 65 लोकसभा सीटों में से 63 सीटें जीती थी !
दो महीने पहले जिन तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से बीजेपी को बेदखल होना पड़ा. वहां 2019 को लेकर उसकी चुनौती सरकार रहने के दौरान उपजी नाराजगी खत्म करने से कही ज्यादा आपसी गुटबाजी से पार पाने की होगी. तीनों राज्यों का सूरते-ए-हाल यह है कि पार्टी के भीतर तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी है. जबकि पूर्व मुख्यमंत्रियों को ठिकाने लगाने की कवायद भी शुरू हो चुकी है. इन राज्यों में कुल 65 लोकसभा सीटें आती है जिनमें 63 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की है.
अकेले पड़ते शिवराज
बहुत करीबी अंतर से प्रदेश में सत्ता से दूर होने वाले नेता शिवराज सिंह ने राज्य में ही पार्टी के चेहरा बने रहने की हर छोटी बड़ी जुगत की लेकिन आलाकमान ने उनकी एक नहीं चलने दी और उनकी चाल को बड़े ही शांति से ढंग से नाकाम करता चला गया. उनकी आभार यात्रा को अनुमति नहीं दी गई. इसके बाद उनकी नेता प्रतिपक्ष बनने की भी इच्छा पर कुठाराघात किया गया. उसके बाद उनकी प्रदेश अध्यक्ष बनने की अंतिम इच्छा को दरकिनार कर दिया गया. उनके न चाहते हुए भी उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर केंद्र की राजनीति में खीचनें का प्रयास किया गया. जबकि उनकी अपनी इच्छा प्रदेश में सक्रिय राजनीत करने की थी.
जबकि आलाकमान ने उन्हें प्रदेश से बाहर की राजनीत का रास्ता दिखा दिया था. यही वजह रही कि उनके तेरह वर्ष के कार्यकाल के दौरान जो उनके करीबी नेता रहे थे उन्होंने भी जान बुझकर उनसे दूरियां बनाना शुरू कर दिया है. राज्य में पार्टी उनकी जगह पर किसी नए चेहरे को मुस्तकबिल कर देना चाहती है. जिससे उनका प्रदेश की राजनीत में पदार्पण न हो सके. पार्टी आलाकमान विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र में मंत्री बनाकर प्रदेश में किसी अन्य नेता के नेत्रत्व में चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पार्टी चुनाव हार गई जिससे उनकी सांख पर भी बन आई. पार्टी अब उन्हें लोकसभा चुनाव लडाना चाहती है ताकि आगर केंद्र में फिर से सरकार बने तो उन्हें मंत्री बनाकर केंद्र की राजनीत में लाया जाय.
चूँकि वो राज्य में तेरह साल से लगातार मुख्यमंत्री थे तो पार्टी उन्हें नाराज करके भी चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी. अब वो चुनाव की बाजी हार गये है तो ऐसे में उन्हें बिलकुल पैदल कर पार्टी अपनी पुरानी गुस्सा भी बराबर करना चाहती है. अब बीजेपी पुरानी बीजेपी नहीं है अब पार्टी में बदले की भावना से काम होता है. फिलहाल शिवराज सिंह की हालत बीजेपी मध्यप्रदेश में काफी कमजोर हो गई है. देखते ही देखते एक झटके में दो महीने के अंदर उनका सब कुछ प्रदेश में समाप्त सा लग रहा है जबकि मामा अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं है.
अपनों सी घिरती वसुंधरा राजे
जब अपनी जिद के चलते पार्टी की हार बात को नजरअंदाज करने वाली राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कहा कि पार्टी ने भले ही उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया हो लेकिन प्रदेश की राजनीत को छोड़कर वो कहीं नहीं जाने वाली है. उनके इस बयान से एक बार आलाकमान की भोंये फिर से टेढ़ी होने की आशंका नजर आती है लेकिन अपनी शर्तों पर राजस्थान में बीजेपी को चलाकर पांच साल मुख्यमंत्री बने रहना वास्तव में एक बड़ा कार्य नहीं एक चमत्कार ही होगा. पूरे सरकार के कार्यकाल के दौरान पार्टी का शीर्षस्थ नेत्रत्व अपने को असहाय मानकर चुपचाप उनकी बातें मानता रहा, लेकिन अब उनको ठंडे बसते में डालने के उद्देश्य से ही उन्हें केंद्र की राजनीत करने के लिए पार्टी के राष्ट्रीय नेत्रत्व में जिम्मेदारी दे दी गई है.
हालांकि इस निर्णय से वो खुद को भी सहज नहीं कर पा रही है. पार्टी नेत्रत्व ने उनके धुर विरोधी रहे पूर्व मंत्री गुलाबचन्द्र कटारिया को पार्टी का नेता प्रतिपक्ष बना दिया. जबकि उनको दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल होने के बाबजूद भी नेता प्रतिपक्ष नही बनाया गया. नेत्रत्व पार्टी को और ज्यादा हाइजैक होना देना नहीं चाहता है जैसा होता आया है. संकेत तो यही मिल रहे है कि मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह की तरह उन्हें भी लोकसभा चुनाव हरहाल में लड़ना होगा. जिससे उन्हें भी आने वाली सरकार में मंत्री बनाया जा सके और बेटे को उनकी जगह पर विधानसभा का चुनाव लड़ाकर प्रदेश की राजनीत में शामिल किया जा सके.
राजस्थान में अब तक जो हुआ वो उनकी शर्तों के आधार पर हुआ है.यही वजह रही की राज्य में बीजेपी नहीं सत्ता का केंद्र बिंदु राजे के इर्द गिर्द घुमता नजर आया. बीजेपी को कई मौकों पर यह भी लगा कि पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी तो बगावत का भी सामना करना पड सकता है. इससे भयभीत बीजेपी उनकी हर शर्तों को जानते हुए भी मानती रही ताकि बीजेपी को कोई भी झटका न लगे. जिसका राजे नाजायज फायदा उठती रही.
छत्तीसगढ़ में जातीय कसौटी पर खरे नहीं उतरे रमन
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की शानदार जीत और बीजेपी के पराजय में जातीय समीकरण की बड़ी भूमिका देखी गई है. जिसमें कांग्रेस ने वैकवर्ड चेहरे को आगे करके पूरे प्रदेश में बीजेपी का सफाया कर दिया है. उसके बाद पार्टी ने कांग्रेस की प्रष्ठभूमि पर चलते हुए पिछड़े वर्ग के चेहरे को आगे करना शुरू किया है. जिसके चलते पार्टी ने पन्द्रह साल तक सत्ता में रहने वाले रमन सिंह जैसे नेता को भी किनारे से लगा दिया है.