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कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजरें टिकी थीं।क्योंकि एक तरफ हर दृष्टि से शक्तिशाली साबित हो चुकी बीजेपी थी तो दूसरी ओर लगातार बिखर रही कांग्रेस।चूंकि विपक्ष "एक" नही हो पाया था इसलिए आमजन के मन में यह था कि जनता चाह भी ले तो भी चुनाव नतीजे तो वही होंगे जो बीजेपी के वर्तमान नेतृत्व ने सोच रखे हैं।
लेकिन कर्नाटक की जनता ने अन्य राज्यों में चल रही परंपरा को खत्म करते हुए जो स्पष्ट फैसला दिया उसने देश की राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया है।कर्नाटक ने बता दिया कि कोई अजेय नही है।
इस फैसले के साथ ही मध्यप्रदेश सुर्खियों में आ गया है।इसकी मुख्य वजह है कि यहां भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।हालांकि चुनाव राजस्थान और छत्तीसगढ़ में साथ ही होंगे लेकिन चर्चा मध्यप्रदेश की इसलिए ज्यादा है क्योंकि यहां भी बीजेपी ने कर्नाटक की तरह जोड़तोड़ करके ही सत्ता हासिल की थी।
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन के उभरी थी।लेकिन बहुमत का आंकड़ा नहीं छू पाई थी।उसने निर्दलीय और सपा बसपा के विधायकों की मदद से सरकार बनाई थी।कमलनाथ मुख्यमंत्री बने थे।लेकिन 15 महीने बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ सरकार गिरवा दी।वे अपने विधायकों के साथ बीजेपी में चले गए। हारे हुए शिवराज फिर से मुख्यमंत्री बन गए!
यही मुख्य वजह है कि अब सबकी नजर मध्यप्रदेश पर है।सवाल यह है कि क्या कांग्रेस कर्नाटक की तरह मध्यप्रदेश में भी बीजेपी से अपनी खोई सत्ता छीन पाएगी।
इस सवाल पर बात करने से पहले कर्नाटक और मध्यप्रदेश की राजनीतिक स्थिति और जनता के मूड पर एक नजर डालते हैं।कर्नाटक में दशकों पहले जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तब वहां बीजेपी नही थी। वहां क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को कमजोर किया।सत्ता से बाहर किया।
बाद में बीजेपी ने उग्र हिंदुत्व के सहारे कर्नाटक में अपनी जगह बनाई।लेकिन कर्नाटक की जनता ने उसे कभी पूर्ण बहुमत नही दिया।2008 के चुनाव में उसे 224 में से 110 सीटें जीती थीं।यह अब तक का उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था।इसके 10 साल बाद 2018 में पूरी ताकत लगाने के बाद भी सिर्फ 105 सीटें मिलीं।बाद में कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर के विधायकों के पाला बदल ने उसे सरकार बनाने का मौका दिया।लेकिन 2023 के चुनाव में कर्नाटक की जनता अपना स्पष्ट फैसला कांग्रेस के पक्ष में दिया।
बीजेपी मात्र 65 सीटें ही जीत पाई।
विधायकों की खरीद फरोख्त दोनों ही राज्यों में बड़ा मुद्दा रहा है।लेकिन जमीनी हालात में काफी अंतर है। जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, यह राज्य शुरू से ही कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही खेलता रहा है।आपातकाल के बाद जो सरकार बनी थी वह जनता पार्टी की थी।लेकिन उसमें भी तीनों मुख्यमंत्री जनसंघ (बीजेपी) के ही थे।
दुबारा वह अपने दम पर 1990 में सत्ता में आई।सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने।अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद प्रदेश की पटवा सरकार बर्खास्त कर दी गई थी।बाद में 1993 के अंत में जो चुनाव हुए उनमें ,उम्मीद के विपरीत,कांग्रेस ने बीजेपी को हरा दिया था।
उसके बाद 10 साल तक दिग्विजय मुख्यमंत्री रहे।वे पहले कांग्रेसी थे जिन्होंने इतने लंबे समय तक राज किया।
2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बहुत ही बुरी हार हुई थी।उमा भारती की अगुवाई में लड़े गए उस चुनाव में बीजेपी ने दो तिहाई से भी ज्यादा सीटें जीती।कांग्रेस को 40 सीट भी नही मिल पाई थीं।
उसके बाद 2008 और 2013 के चुनाव भी बीजेपी ने भारी बहुमत से जीते।यह दोनों चुनाव शिवराज सिंह की अगुवाई में लड़े गए थे।2008 में उमा भारती की बगावत के बाद भी बीजेपी ने कांग्रेस को शिकस्त दी थी।
2018 के चुनाव तक जहां शिवराज सिंह सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बना चुके थे वहीं बीजेपी के भीतर "असंतोष" काफी गहरा गया था। उधर कांग्रेस भी सत्ता के लंबे "सूखे" का सामना कर चुकी थी।
नतीजा यह हुआ कि कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस ने बीजेपी को हरा दिया।प्रदेश में बीजेपी का यह सबसे लम्बा कार्यकाल था।लेकिन कांग्रेसी नेताओं में वर्चस्व की लड़ाई और अहम के टकराव ने बीजेपी को एक मौका दे दिया।
दूसरे दलों के विधायकों के "समर्थन" से सरकारें बनाने का प्रयोग उसने मध्यप्रदेश में भी किया।ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी से बगावत की।वे बीजेपी के हुए।बीजेपी को एक बार फिर एमपी की सरकार मिल गई।बदले में उन्हें राज्यसभा की सीट और फिर मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिल गई।उनके साथ बीजेपी में आए विधायको को भी मंत्री पद के अलावा बहुत कुछ मिला।कांग्रेस तो बहुत गंभीर आरोप लगाती रही है।
ज्योतिरादित्य के दलबद्ल के समय कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व बहुत ही लचर स्थिति में था।बीजेपी के राष्ट्रीय अभियान ने उसे और कमजोर किया।गांधी परिवार की पार्टी पर पकड़ उतनी सख्त नही रही जितनी हुआ करती थी। बाहर से टीम मोदी जहां लगातार हमला कर रही थी वहीं भीतर से ग्रुप 23 के बड़े कांग्रेस नेता अपने नेतृत्व पर सवाल उठा रहे थे।उसी दौर में राजस्थान में सचिन पायलट ने बगावती तेवर अपनाए।
उसके बाद राहुल गांधी ने जो सख्त तेवर अपनाए उनके नतीजे सामने हैं।सबसे बड़ी बात यह है कि आज सामने से कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के पास नही है।
इसी बदलाव का असर कर्नाटक में देखने को मिला है।हालांकि कांग्रेस अपने मूल चरित्र से ज्यादा हटी नही है लेकिन उसके नेताओं को यह समझ आ गया है सत्ता में लौटना है तो अपने मतभेदों को ताक पर रखना होगा।
जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है,यहां भी कांग्रेस की लगातार हार की मूल वजह नेताओं की आपसी लड़ाई ही रही है।2003 से 2018 तक कांग्रेस के नेता आपस में ही उलझे रहे।2018 में जीत गए लेकिन उसके बाद तो और बड़ा खेल हो गया।
2020 में सरकार गिरने के बाद से जहां कमलनाथ लगातार अपने स्तर पर कोशिश कर रहे हैं वहीं कुछ बड़े नेता अपने मूल चरित्र पर कायम हैं।
कर्नाटक और मध्यप्रदेश में मूल फर्क यह है कि वहां जेडीएस अपनी पूरी ताकत से मौजूद था।यहां तीसरी ताकत बनने की कोशिश कई दल सालों से करते रहे हैं लेकिन सफल नही हो पाए।टक्कर कांग्रेस और बीजेपी में ही रही है।अब भी है।
कर्नाटक में जातीय गणित बहुत ही मजबूत है।वहां के स्थानीय समाज जिस तरह पूरी ताकत के साथ अपने नेताओं के साथ खड़े होते हैं वैसा मध्यप्रदेश में नही होता है।यहां समाज की ताकत पर कोई नेता राजनीति नही कर पा रहा है। हां यह जरूर है कि सभी समाजों को साधने की कोशिश बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही कर रहे हैं।
एक बात और है!कर्नाटक में डी के शिवकुमार जैसा ऊर्जावान नेता है लेकिन मध्यप्रदेश में नही है।यहां कमलनाथ को कमान दी गई है।लेकिन खुद कांग्रेसी कहते हैं कि उसकी मूल वजह उनका पैसा है ,ऊर्जा नही।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पतन का मुख्य कारण दिग्विजय माने जाते रहे हैं।और शायद वे हैं भी!क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने की मुख्य वजह उन्हें ही बताया जाता रहा है।यह सच भी है।
दिग्विजय कमलनाथ के साथ खड़े हैं।लेकिन वे अपनी लाइन भी बढ़ा रहे हैं।वे इस समय पूरी ताकत के साथ सक्रिय हैं।लेकिन यह भी साफ है कि कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी की तुलना सिद्धारमैया और शिवकुमार की जोड़ी से नही की जा सकती।
सरकार जाने के बाद कमलनाथ का भी यही हाल है।लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं है।सब जानते हैं कि दिग्विजय की पार्टी के भीतर एक वर्ग में काफी पकड़ है।लेकिन यह भी जानते हैं कि दिग्विजय पर भरोसा नहीं किया जा सकता।अर्जुन सिंह से लेकर खुद कमलनाथ उनकी इस खूबी का फल चख चुके हैं।
सतह पर कमलनाथ दिग्विजय की जोड़ी साफ दिखाई देती है।लेकिन इसके चलते अन्य नेता उनसे बहुत सतर्क रहते हैं।
हालांकि मध्यप्रदेश में कांग्रेस कर्नाटक से ज्यादा अच्छी स्थिति में है।लेकिन वह खुद को कर्नाटक की तरह पेश नही कर पा रही है।आज भी बिखराव साफ दिख रहा है।
उधर बीजेपी के हालात भी ठीक नहीं हैं।आंतरिक गुटबाजी और अस्तित्व की लड़ाई उसके नेता भी कांग्रेसियों की तरह ही लड़ रहे हैं।बड़े बीजेपी नेता खुल कर सवाल उठा रहे हैं।पार्टी छोड़ कांग्रेस में आ रहे हैं।
लेकिन नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर नेता के रहते बहुत बड़ी "क्रांति" की उम्मीद नहीं की जा सकती है। एक बात यह भी है कि कर्नाटक में करारी हार के बाद मोदी हर हालत में मध्यप्रदेश जीतना चाहेंगे।इसके लिए वे पार्टी के भीतर कुछ भी प्रयोग कर सकते हैं।
ऐसे में कांग्रेस की राह बहुत आसान नहीं होगी।राज्य की जनता वर्तमान सरकार से नाखुश है।उसकी इस "नाखुशी" को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस को बहुत ही होशियारी के साथ कड़ी मेहनत करनी होगी।अपनी कमजोर कड़ियों को संभालना होगा।
संभव है कि जब जनता वोट डालने जाए तब बीजेपी उसके सामने कोई नया चेहरा पेश कर दे।मोदी तो है हीं।इसके लिए भी कांग्रेस को तैयार रहना होगा।
अगर उसने सभी मोर्चों पर संगठित तैयारी की कर्नाटक जैसे मुद्दे गंभीरता से उठाए तो कर्नाटक जैसा परिणाम मध्यप्रदेश में भी हासिल हो सकता है।