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मध्यप्रदेश: दस साल में सरकारी स्कूलों में घट गए 40 लाख बच्चे... कहाँ गए किसी को पता नहीं...
भोपाल।मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने दस दिन पहले प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा के गिरते हुए स्तर पर चिंता जताते हुए प्राथमिक शिक्षकों को बेहतर वेतन और सुविधाएं देने की बात कही थी।कोर्ट ने कहा था कि शिक्षा में गुणवत्ता की कमी का सीधा असर बच्चों पर पड़ता है।अपरोक्ष रूप से इसका असर देश पर ही पड़ता है।
कोर्ट की इस गंभीर टिप्पणी के बीच एक ऐसा तथ्य सामने आया है जिसने सरकार पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। यह तथ्य है-पिछले 10 साल में मध्यप्रदेश में 40 लाख से भी ज्यादा बच्चे सरकारी स्कूलों से निकल गए हैं।सरकार को यही नही मालूम है कि यह बच्चे अब कहाँ है।वे पढ़ भी रहे हैं या नहीं।
उल्टे सरकार का दावा है कि पिछले दस साल में राज्य में साक्षरता दर 53 से बढ़कर 70 प्रतिशत हो गयी है।इस अवधि में सरकारी स्कूलों पर होने वाला खर्च करीब 1500 करोड़ से बढ़कर 5000 करोड़ पर पहुंच गया है।
सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि सरकार जो कह रही है वास्तव में स्थिति उसके उलट है।सरकार राज्य में साक्षरता की दर पढ़ने का दावा कर रही है पर उसके अपने स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार घट रही है।2010-11 में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में एक करोड़ से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे थे।यह संख्या सरकारी आंकड़ों में दर्ज है।लेकिन अब इसी सरकार के आंकड़े बता रहे हैं 2019-20 में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कुल 65 लाख 84 हजार बच्चे ही पढ़ रहे हैं।यह भी सिर्फ आंकड़ा है।वास्तविकता क्या है यह जांच का विषय है।
इस संख्या के हिसाब से देखें तो हर साल लगभग पौने चार लाख बच्चों ने स्कूल जाना बंद किया।लेकिन इस दौरान राज्य में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का बजट 1470 करोड़ से बढ़कर 5000 करोड़ पर पहुंच गया।सरकार यह दावा भी कर रही है कि पिछले दशक में राज्य में साक्षरता दर 53 से बढ़कर 70 प्रतिशत हो गयी है।लेकिन वह यह बताने की स्थिति में नही है कि जब हर साल पौने चार लाख बच्चों ने स्कूल आना बंद कर दिया तो फिर साक्षरता दर बढ़ कैसे गयी।
हमेशा की तरह नौकरशाही कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नही है।लेकिन प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार ने कहा है कि वे इस बात की जांच करबायेंगे कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम क्यों हो रही है।मंत्री के मुताविक जांच के बाद जो जानकारी सामने आएगी उसी के आधार पर आगे की रणनीति बनेगी।
लेकिन माध्यमिक शिक्षा विभाग के अफसर यह नही जानते कि हर साल सरकारी स्कूल छोड़ने वाले बच्चे आखिर हैं तो कहां।वे पढ़ भी रहे हैं कि नहीं।जब उनसे पूछा गया तो उनका उत्तर था- सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे शिक्षा का अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में पढ़ने चले गए हैं।
लेकिन उनके इस दावे की हकीकत भी कुछ और ही है।सरकारी आंकड़ों के मुताविक निजी स्कूलों में 2010-11 में कुल 47 लाख 27 हजार बच्चे पढ़ रहे थे।2019-20 में यह संख्या 50 लाख 80 हजार के आसपास थी।मतलब साफ है कि दस साल में करीब तीन लाख 53 हजार बच्चे ही सरकारी स्कूल छोड़ निजी स्कूलों में दाखिल हुए।फिर 37 लाख 50 हजार बच्चे कहाँ गए।
इसके बारे में न अफसरों को पता है और न मंत्री को।मंत्री तो आते जाते रहते हैं।उनसे क्या उम्मीद करनी।लेकिन शिक्षा विभाग को चला रहे अफसरों की अनभिज्ञता कई सवाल खड़े करती है।
अब एक और कारनामा देखिये!विधानसभा की लोकलेखा समिति की बैठक में विभाग के अफसरों ने यह माना था कि सरकारी स्कूलों में बच्चे कम ही आते हैं।जितनों के नाम दर्ज होते हैं उनमें से 20 से 25 प्रतिशत बच्चे ही औसतन स्कूल आते हैं।लेकिन फिर भी उन्होंने अपने रेकॉर्ड में 65 लाख बच्चों को 1100 करोड़ की किताबें,ड्रेस और दोपहर का भोजन बांट दिया।अब उनसे यह कौन पूछे कि जब बच्चे स्कूल आये ही नही तो खाना किसको खिलाया?कपड़े किसे पहनाए और किताबें किसको दे दीं।
अब एक और आंकड़ा देखिये!पिछले दस साल में प्रदेश की आबादी करीब 18 प्रतिशत बढ़ी है।इस हिसाब से करीब 20 लाख बच्चे बढ़ने चाहिए थे। 2010-11 में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में एक करोड़ 6 लाख बच्चे पढ़ रहे थे।इस स्थिति में 2019 -20 में यह संख्या एक करोड़ 26 लाख के आसपास रहनी चाहिए थी।लेकिन बढ़ने की बजाय यह संख्या 65 लाख 84 हजार ही रह गयी।
जनसंख्या बढ़ी।स्कूलों का खर्च बढ़ा।लेकिन सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या घट गई।आखिर 40 लाख से भी ज्यादा बच्चे गए तो कहां गए।निजी स्कूलों में पहुंचे नही।सरकारी में हैं नहीं।लेकिन उन पर होने वाला खर्च यथावत रहने की बजाय बढ़ गया।कागजों में पढ़े लिखे लोग भी बढ़ गए।लेकिन जमीनी सच्चाई किसी को पता नहीं।या फिर बताना ही नही चाहते।मुख्यमंत्री बड़े बड़े दावे करते हैं।अफसर उन दावों के अनुरूप खर्च कर रहे हैं।लेकिन बच्चे स्कूलों से गायब हो रहे हैं।है न एमपी गज्जब!
ऐसे में हाईकोर्ट स्कूलों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति और उन्हें बेहतर सुविधाएं दिए जाने को लेकर चिंतित है