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मध्यप्रदेश उप चुनाव आयातित नेताओं की असलियत आएगी सामने, पढिये उप चुनाव की असली हकीकत
विनोद कुमार उपाध्याय
मप्र में 28 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को अगर आयातितों का उपचुनाव कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह यह है कि इस उपचुनाव में भाजपा की तरफ से जहां 25 सीटों पर आयातित उम्मीदवार हैं, वहीं कांग्रेस और बसपा ने भी दूसरी पार्टियों से आए कुछ नेताओं को उम्मीदवार बनाया है। यानी इस बारी चुनावी मैदान में कई प्रतिद्वंदी हैं जिनकी पार्टी और विचारधारा बदल गई है। इन आयातित प्रत्याशियों की हार-जीत पर पार्टियों के साथ ही दिग्गज नेताओं को भविष्य दांव पर लगा हुआ है। ये उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए अहम है। भाजपा को सत्ता में बने रहने के लिए कम से कम 9 सीटें जीतनी पड़ेगी, जबकि कांग्रेस को सभी 28 सीटें। मप्र के इतिहास में यह पहला उपचुनाव है जो सरकार की दिशा और दशा का निर्धारण करेगा। इसलिए भाजपा और कांग्रेस अधिक से अधिक सीटों को जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका सहारा ले रही हैं।
ये उपचुनाव कितने महत्वपूर्ण हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब तक कैबिन की राजनीति करने वाले कमलनाथ मीटिंग छोड़ मैदान में उतर गए हैं। प्रदेश की सत्ता से हाथ धो लेने वाले कमलनाथ इस बार लीक से हटकर रणनीति करते नजर आ रहे हैं। यानी कॉन्फ्रेंस हॉल और राउंड टेबल की पॉलिटिक्स करने वाले कमलनाथ अब जमीनी प्रचार करते देखे जा रहे हैं। रैली और सभाओं से दूर रहने वाले कमलनाथ अब भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं।
उधर, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उपचुनाव वाले जिलों के लिए खजाना खोल दिया है। यही नहीं पार्टियों ने जातिगत आधार पर भी चौसर बिछाई है। उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस की नजर उन 11 सीटों पर है जो एससी और एसटी कोटे की हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग बहुल वाली इन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस ने फोकस बढ़ा दिया है। 2018 के चुनाव में ये सीटें भाजपा के लिए हानिकारक साबित हुई थीं। उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस के लिए कोविड-19 भी बड़ा विलेन बनकर सामने आया है। क्योंकि उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण अगर बड़ी संख्या मतदाता वोट डालने के लिए घर से नहीं निकले तो वोटकटवा प्रत्याशी उनकी जीत का गणित बिगाड़ सकते हैं। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि उपचुनाव वाली सीटों पर मतदान के लिए जो 63.51 लाख मतदाता सूची में हैं, उनमें से बमुश्किल 50 प्रतिशत ही वोट डालने अपने घर से निकलेंगे। चुनाव आयोग भी मान रहा है कि कोरोना संकट का असर मतदान पर भी पड़ेगा।
उपचुनाव में सभी 28 सीटों पर मुख्य मुकाबला वैसे तो भाजपा और कांग्रेस के बीच होना है, लेकिन कुछ सीटों पर बसपा भी अपना दम दिखाएगी। लेकिन वोटकटवा उम्मीदवार भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों की जीत का गणित बिगाड़ेंगे। इसको देखते हुए राजनीतिक पार्टियां जातिगत आंकड़ों के हिसाब से वोटकटवा उम्मीदवार खड़ा कर रही हैं, ताकि उनके प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित हो सके। उन्हें धन और बल देकर विपक्षी के खिलाफ उनका उपयोग किया जाएगा। इस कारण उपचुनाव में वोटकटवा उम्मीदवारों की भरमार रहेगी। वहीं अधिकांश पर भाजपा-कांग्रेस के प्रत्याशियों को अपनों की बगावत और भितरघात का डर सता रहा है। इस कारण 18 सीटों पर कांटे का मुकाबला होता दिख रहा है। कई सीटों पर स्थिति यह है कि माहौल होने के बाद भी प्रत्याशियों को अपनी हार का डर सता रहा है। टिकट वितरण के साथ ही बगावत का रंग सुर्ख हो गया है। 28 सीटों में से शायद ही कोई ऐसी सीट है जहां भाजपा और कांग्रेस में प्रत्याशी का विरोध न हो। लेकिन भाजपा को 19 सीटों पर तो कांग्रेस को 7 सीटों पर सबसे अधिक खुलाघात और भितरघात का सामना करना पड़ रहा है। स्थिति यह है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के हस्तक्षेप के बाद कुछ नेता मान गए हैं तो कुछ चुनौती बने हुए हैं।
विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने वाले छह पूर्व मंत्रियों समेत 22 विधायकों के चलते कमलनाथ की सरकार तो पलट गई, लेकिन अब खुद इनके सियासी भविष्य पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है।
इस उपचुनाव में भाजपा, कांग्रेस के प्रत्याशियों का वोटकटवा उम्मीदवारों के साथ ही बसपा से भी डर है। इसलिए दोनों ही पार्टी एड़ी-चोटी का जोर इस चुनाव में लगा रही हैं। लेकिन इस उपचुनाव में बसपा बड़ा किरदार निभा सकती हैं, इस बात को नजरअंदाज भी नही किया जा सकता है कि ग्वालियर-चंबल में दलित मतदाताओं को काफी निर्णायक माना जाता हैं। यह ही नहीं यहां की दो सीटों पर बसपा 2018 विधानसभा चुनाव में प्रदेश में दूसरे नम्बर पर रही थीं। ग्वालियर चंबल की 16 में से 7 सीटों पर बसपा के प्रत्याशियों ने काफी निर्णायक व सम्मान जनक वोट हासिल किए थे। इसी बात से बसपा को इस उपचुनाव का गेम चेंजर माना जा रहा हैं। भले ही वह चुनाव न जीत सकें लेकिन दोनों पार्टियों के वोट जरूर काट सकती हैं।
उपचुनाव में इस बार दलित और किसान किंगमेकर बनेंगे, क्योंकि ये विधानसभा क्षेत्र किसान और दलित समुदाय बहुल हैं। इसलिए भाजपा और कांग्रेस के नेता चुनावी क्षेत्रों में दलित समुदाय और किसानों को साधन में जुट गए हैं। इसका असर यह देखने को मिल रहा है कि चुनावी क्षेत्रों में विकास का मुद्दा पूरी तरह गायब है। भाजपा और कांग्रेस के नेता एक-दूसरे पर आरोप लगाकर अपने आप को किसान और दलित हितैषी बताने में जुटे हुए हैं। यूपी के हाथरस में दलित युवती के साथ हुई घटना के बाद दलित मतदाता एकजुट होता दिख रहा है। कांग्रेस और आम जनता दोनों ही हाथरस कांड को लेकर यूपी की भाजपा सरकार पर निशाना साध रही हैं। ऐसे में मप्र कांग्रेस भी हाथरस कांड को उपचुनाव में मुद्दा बनाने की तैयारी में हैं। चुनावी सियासत के तमाम चटख रंग, रणनीति के चोले से झांकती कूटनीति, पारिवारिक झगड़े के घात-प्रतिघात और हर दर्जे का रोमांच देखना हो तो 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव से बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता है। शह-मात के इस खेल में राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी चौसर पर अपनी मुहरें बिछा दी है। लेकिन उन मुहरों को मात देने के लिए विपक्षी ही नहीं बल्कि अपने भी घात लगाए हुए हैं।