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- चकरघिन्नी: राजा जी के...
चकरघिन्नी: राजा जी के लिए सजी थाली या भाजपा की हार स्वीकारोक्ति...!
अपनी सुरक्षित सीटों में शुमार करने वाले शहर के लिए केंडिडेट तय करने में देरी की इंतेहा... लगा था दिल्ली में फिर डंका बजाने की चाह रखने वाली उत्साहित पार्टी कोई बड़ा बम फोड़ेगी... लेकिन हुई पहाड़ और चूहे की कहावत.. साढ़े छह लाख से ज्यादा मुस्लिम वोटर वाले शहर के लिए एक ऐसा उम्मीदवार, जिसके माथे पर लिखा है कि मैं तुम्हारी गुनाहगार हूँ, तय कर समझदार पार्टी के बुद्धजीवियों ने ऐलान कर दिया है कि हमें तुम्हारे वोटों की जरूरत नहीं है! दूसरे लफ़्ज़ों में इसको राजा साहब की थाली में सजाकर जीत दे दिया जाना भी कहा सकता है... एक दुनिया त्यागी राजनीतिज्ञ ने राजा की राह कांटे बिखेरे थे, ये सच है... पन्द्रह साल के सियासी वनवास की वजह भी बन गई थीं.. लेकिन साधु-संतों से राजा जी हमेशा चोट खाएं ये भी जरूरी नहीं है..
साध्वी के मैदान में आने से जहां राजा जी को चुनाव आसान लग रहा है, वहीं चुनावी चटखारे लेने वालों के लिए अगले 25 दिन फन-डेज बन गए हैं... बोलने के माहिर इधर भी, आग उगलने की ताकत रखने वाली उधर भी... इनके लिए भी कहने के दस मामले, उनके लिए गिनाने को सैकड़ों बातें... जिस हिंदुत्व की पिपड़ी बजाती हुई साध्वी देरी से मैदान में उतरी हैं, हिंदूवाद के उस परचम को राजा जी नाम ऐलान होने से पहले ही सारी लोकसभा फहरा कर आ चुके हैं... गैर हिंदुत्व की बात करने वाले मतदाता खामोश होकर तमाशा देख सकते हैं, उनके लिए इस चुनाव तीसरे विकल्प का कोई चमत्कार होने वाला नहीं है और इनमें से कोई नहीं का विकल्प चुनने का शऊर उनमें अब तक आया नहीं है...
पुछल्ला: फिलर से चुनाव लड़ाई की रस्म अदायगी क्यों....?
साथ जुड़ा एक बार पार्षद चुनाव जीत का तमगा। उसके बाद लाइन साफ। इस चुनाव से उस चुनाव तक हिस्से में सिर्फ हार। मप्र की कमर्शियल कैपिटल के लिए केंडिडेट का इतना टोटा की एक थके हारे नेता पर फिर दांव लगा दिया गया। शुक्र ये है कि सामने वाले भी भाईगिरी के दबाव से बाहर ऐसे प्रत्याशी को मैदान में ले आए हैं, जिसमें भी जीत के हौसले कम ही हैं।
यह लेख चकरघिन्नी .कॉम के लेखक आशु खान द्वारा लिखा गया है