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- यह चुनाव लोकतंत्र का...
मनीष सिंह
भारतीय राजव्यवस्था आपको यह ताकत देती है कि आप पांच साल में अपने नौकरों का अप्रेजल करें। उसे रिक्रूट करें, योजना बनाने और काम करने का वक्त दें। सरकार की दिशा, नतीजे और विजन का असर जमीन पर दिखने में वक्त लगता है। यह वक्त सम्विधान ने पांच साल का मुकर्रर किया है।
पांच साल, इतिहास का बेहद छोटा हिस्सा होता है। इतने में विकास औऱ एस्पिरेशन की मुकम्मल तसवीर नही बनती। मगर फिर भी सम्विधान आपको ताकत देता है, की आप लक्षण देखकर, हर पांच साल बाद आप नौकर बदलने का फैसला कर सकें।
... और फैसला हुआ था। 15 साल के नौकर की जगह दूसरे को मौका देने का। वह बदलाव हमने अपनी मर्जी से किया था। वह लोकतंत्र का उत्सव था। सरकारें बदल डालने की, फैसला करने की यही ताकत, आजादी है। वह आजादी का उत्सव था...
जो मृत्युभोज में तब्दील कर दिया गया है। यह ताकत, वह आजादी जो हमारे पुरखों ने, हमारे हाथ मे दी थी.. विदेशियों से छीनकर। वह आजादी बंधक बना ली गयी है। इस आजादी को नोटों की पोटलियों में बांधकर फुटबॉल खेला जा रहा है। हमे इस मैच में चीयरलीडर होने के लिए जबरन बुलाया गया है।
यह चुनाव प्रतिनिधि चुनने को नही है। यह चुनाव सरकार बनाने को नही है। यह चुनाव एक अधीर लड़के की निजी महत्वाकांक्षा से पैदा हुई आपदा है। आपसे ही, आपका मख़ौल बनाने की इजाजत लेने का यत्न है।
सवाल किसी पार्टी की सरकार बनने गिरने का नही है। सवाल जनता के मत के प्रति उस हिकारत का है, जो सत्ता, लालच औऱ पैसे की गर्मी से पैदा हुई है। तो यह चुनाव दो पार्टियों के बीच भी नही है। यह बतौर जनता हमारी सुप्रीमेसी को दी गयी चुनौती का है, तो वोट हमे अपने समर्थन या अपने खिलाफ देना है।
तो मजमा लगेगा, लोग जुटेंगे, माल बटेगा। मगर याद रहे, यह चुनाव हमारी लोकतंत्र का उत्सव कतई नही है। यह जनमत का मृत्युभोज है।