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एडवोकेट सतीश सिरपुरकर जी ऐसी न्यायपालिका चाहते थे, जो संविधान के लिए जीये और संविधान के लिए मरे,
एडवोकेट आराधना भार्गव
एडवोकेट सतीश सिरपुरकर जी ने मुझे लाॅ कालेज, छिन्दवाड़ा में भारत का संविधान पढ़ाया। जब मैं छिन्दवाड़ा में विधि की पढ़ाई कर रही थी उस वक्त कोई शासकीय काॅलेज नही था, जिसमें कानून की पढ़ाई हो। मेरे लाॅ कालेज का नाम सतपुड़ा विधि महाविद्यालय था, जो डाॅ. हरिसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय से संलग्न था। मेरा कालेज शाम को 07 बजे से 09 बजे रात्रि तक चलता था, उसी वक्त रात्रि में लाईट की कटौती होती थी। हमें तीन साल में लाॅ कानून के 18 विषय पढ़ाये गये थे। लालटेन की रोशनी में एड. सतीश सिरपुरकर जी ने राज टाकीज के पास स्थित मथुरा प्रसाद स्कूल में भारत का संविधान पढ़ाया था।
आदरणीय सतीश सिरपुरकर जी के संविधान पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि संविधान में रूचि अपने आप बढ़ने लगी। उन्होंने उस समय जो पढ़ाया वह बात दिल और दिमाग में इस तरह बैठ गई की संविधान की पुस्तक खोलने के पहले उससे संबंधित अनुच्छेद अच्छे तरीके से समझ में आ चुके है। आज मेरी सबसे छोटी बहन श्रीमती उपसना शर्मा की बेटी खुशी शर्मा विधि की पढ़ाई भोपाल में कर रही है जब वह छिन्दवाड़ा आती है तो मैं खाना व नाश्ता बनाते बनाते उसे संविधान पढ़ाती हँू और खुशी सबसे कहती है कि मेरी मौसी को तो संविधान रटा हुआ है, और वे पुस्तक देखे बिना ही मुझे पढ़ाती और समझाती है। उसी तरह मेरा इकलौता छोटा भाई असिस्टेंट सेलटेक्स कमिश्नर इंदौर, आनंद भार्गव जब कोचिंग क्लास में पढ़ने छिन्दवाड़ा से बाहर गया तो उसने भी कहा कि कोचिंग क्लास से अच्छा तो मेरी दीदी पढ़ाती है, इस सबका श्रेय मैं अपने गुरू सतीश सिरपुरकर जी को देती हूँ।
सिरपुरकर सर हमेशा कहते थे संविधान के मूल स्वरूप यानि मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला देश में कोई कानून नही बनाया जा सकता, और उसके बारे में वे बताते थे कि इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 13 में किया गया है। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे विधायक हो या सांसद बहुत कम भारत के संविधान को पढ़ते है इसका खमियाजा हम यह भुगत रहे हैं। कि मौलिक अधिकारों के खिलाफ कानून बनते जा रहे है और हमारी न्यायपालिका मूक दर्शक बनकर सब देख रही है। सिरपुरकर सर कहते थे कि संविधान के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता वाली न्यायपालिका हम नही बना सके जिसका उन्हें अत्यंत खेद था। वे कहते थे कि ऐसा इसलिए है क्योकि न्यायपालिका के लिए प्रतिबद्ध समाज नही बना है। जब मैं उनसे प्रश्न करती थी सर ऐसा क्यो है ? तो वे कहते थे सरकार की प्राथमिकता में भारत के लोग भारत के संविधान को समझें यह नही है। वे कहते थे कि संविधान न्यायाधीश और वकीलों की मुट्ठी में सिमट कर रह गया है। उनका यह भी कहना था कि जिस तरीके से गीता प्रेस वालों ने 1 रूपये में भागवत गीता आम व्यक्तियों के पास पहुंचा दी, उसी तरह भारत सरकार 1 रूपये में भारत के संविधान की प्रति हर नागरिक तक क्यों नही पहुंचा सकती ? सर कहते थे कि जिस तरीके से समाज में प्रतिदिन रामायण, हनुमान चालीसा, देवी मंत्र आदि पढ़ने का चलन है, उस तरीके का चलन अगर भारत के संविधन को पढ़ने का होता तो आज भारत की तस्वीर ही अलग होती। हमारे संविधान की विशेषता ही यह है कि ( यदि इसका आत्मतः पालन और पूर्ण सम्मान किया जा रहा हो तो इसके किसी भी खम्भे को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नही पढ़ती)। वे कहते थे लोकतंत्र जब राष्ट्र जीवन की रंगों में बहता होता है तो वह अपनी तरफ से रोज ही संविधान की व्याख्या करता चलता है। अगर सर आज हमारे बीच होते तों मैं प्रतिदिन बार रूम के सेन्टल टेबिल पर बैठकर उनसे चर्चा करती, सर अब तो लोकतंत्र जुमला बना दिया गया है और उसके सारे खम्बे तहस नहस होकर चरमराकर गिरने लगे हैं। मैं उनसे यह भी चर्चा करती की सर केन्द्र सरकार द्वारा जो तीन किसान विरोधी कानून बनाए गए है, वे भी संविधान की आत्मा को कुचल रहे हैं, ठेका खेती के कानून में न्यायपालिका के पास जाने से किसानों को रोक दिया है इस पर वे अपनी प्रतिक्रिया देते और कहते यह कानून तो संविधान के खिलाफ है। संविधान इसी की घोषणा करता है, और इसके लिए न्यायपालिका नाम का एक तंत्र बनाया है जिसके होने का एक मात्र औचित्य यह है कि वह संविधान के लिए ही जीयेगा और संविधान के लिए ही मरेगा।
सतीश सिरपुरकर जी का खानदान न्यायपालिका के इर्दगिर्द ही रहा उनके पिता श्री आर.बाय. सिरपुरकर वे छिन्दवाड़ा बार के अध्यक्ष रहे और सतीश सिरपुरकर जी भी छिन्दवाड़ा बार के निर्विरोध अध्यक्ष रहे। दोनो पिता पुत्र छिन्दवाड़ा के ही नही बल्कि देश के विद्वान अधिवक्ताओं में गिने जाते थे। उनके भतीजे जस्टिस चन्द्रहास सिरपुरकर जी जो लाॅ कालेज में मेरे सीनियर रहे, उनकी विद्वता को भी मैंने निकटता से देखा था। और आज भी उनके अन्दर उतनी ही सादगी एवं बड़प्पन देखने को मिलता है। एक बार मैं भोपाल से जबलपुर जा रही थी ओवरनाईट ट्रेन में मेरे साथ पूर्व विधायक डाॅ. सुनीलम् जी भी थे उनकी सीट के सामने ही जस्टिस चन्द्रहास सिरपुरकर जी की सीट थी मेरी सीट अलग जगह पर थी। दोनों का आपस में परिचय हुआ जस्टिस चन्द्रहास सिरपुरकर जी ने डाॅ. सुनीलम् जी को बताया कि वे छिन्दवाड़ा से है, तो डाॅ. सुनीलम् जी ने मेरे बारे में जस्टिस सिरपुरकर जी से बात की, उन्होंने कहा उन्हें तो मैं जानता हँू, वे तो मेरी जूनियर रही है, और उन्होंने मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा उस वक्त वे जबलपुर में न्यायधीशों को ट्रेनिंग देने का काम कर रहे थे, और अपने जैसे असंख्य जज उन्होंने बनाए, उन्हें मैं प्रमाण करती हँू। सतीश सिरपुरकर जी के एक भतीजे एड. जयदीप सिरपुरकर जी जबलपुर में वकालत करते है जनहित याचिका दायर करने में माहिर है क्योकि उन्हें संविधान की अच्छी समझ है। एड. सतीश सिरपुरकर जी, जस्टिस चन्द्रहास सिरपुरकर जी, एड. जयदीप सिरपुरकर जी और मेरे जैसे असंख्य वकीलों के रूप में समाज में जिन्दा है, और सतीश सिरपुरकर जी के सपनों को साकार कर रहे हैं।
वकालत शुरू करने के पश्चात् मेने एड. सतीश सिरपुरकर जी की व्यस्तता को देखा, डब्लुसीएल, रेमोंड तथा सभी बड़ी बडी कम्पनीयों के वे अधिवक्ता थे इनशोरेन्स कम्पनी के जाने माने वकील थे, इस कारण उनका ज्यदातर काम लेबर कोर्ट में रहता था। उस वक्त लेबर कोर्ट की बिल्डिग अदालत से दूर प्रथम या द्वितीय मंजिल पर किराये से होती थी। और सर कभी भी अदालत जाने से कतराते नही थे। मुझे टी टाईम में ही बार रूम में उनसे चर्चा करने का समय मिलता था। एक बार उनके साथ बैठकर चर्चा कर रही थी कि इतने में उनकी नाक से खून निकला, जाँच करने पर डाॅक्टरों द्वारा उन्हें ब्लड कैंसर होने की घोषणा की। मुम्बई में जाकर ईलाज करने के पश्चात् सर एक दम स्वस्थ्य हो गये मन बहुत खुश हुआ, पुराने तरीके से पुनः उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। लेबर कोर्ट में दूसरे मंजिल की बिल्डिंग में पहुँचकर बराबर काम करने लगे, उसके पश्चात् सर मुझसे और ज्यादा बातें करते और कानून की बहुत सारी बारीकियाँ मुझे समझाते, मुझे बहुत अच्छा लगता पर प्रकृति को कुछ और ही मंजूर था। कैंसर दुबारा लौट कर आया और सर फिर बम्बई ईलाज के लिए गए, पर टी टाईम के समय मेरी टेलिफोन से उनसे बात करने का सिलसिला जारी रहा, मैं बार रूम में ही बैठकर उनसे फोन पर बात करती थी तो कई सीनियर कहते थे तुम उन्हें क्यों तकलीफ देती हो, पर मेरे गुरू सिरपुरकर सर मुझसे कहते थे, आराधना जब तुम मुझसे टी टाईम में बात करती हो तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बार रूम की यादें और गुलाब दादा की चाय की यादें मुझे फिर से तरोताजा कर देती है। अन्तिम समय में सर कहते थे बेटा अब मुझे बहुत तकलीफ होती है अब मैं छिन्दवाड़ा वापस नही आ पाऊंगा, और वही हुआ, सर हम लोगों को छोड़कर अलविदा हो गये। अन्तिम समय में सर ये भी कहते थे ऐसे नागरिकों को ऐसी ही न्यायपालिका मिल सकती है कि जो संविधान की किताब बन्द कर किसी सरकारी निर्देशन या संकेत पर सुनती - बोलती और फैंसला करती है, सर आपने अक्षरशः सही कहा, हम न्यायपालिका का यही स्वरूप वर्तमान में देख रहे हैं।
आईये हम सब मिलकर भारत के संविधान को रामायण, गीता, बाईबिल और कुरान की तरह प्रतिदिन अध्ययन करें, इस पर बहस करें तभी लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी। लोकतंत्र को बचाना ही सही मायने में मेरे गुरू एड. सतीश सिरपुरकर जी को सही श्रृद्धान्जली होगी।