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- आखिर कब तक सब्र करेंगे...
भोपाल।आखिर कब तक सब्र करेंगे ज्योतिरादित्य सिंधिया? आजकल यह सवाल मध्यप्रदेश के राजनीतिक गलियारों में बहुत तेजी से गूंज रहा है। खासतौर पर यह सवाल उनके ही समर्थक पूछ रहे हैं।लेकिन इस सवाल का जवाब शायद खुद सिंधिया के पास नही है।हालत यह है कि एक ओर समर्थकों का धैर्य चुक रहा है और दूसरी तरफ खुद सिंधिया को समझ नही आ रहा है कि वे अपने समर्थकों को क्या कह कर दिलासा दें!कैसे समझाएं!
उल्लेखनीय है कि ठीक सवा साल पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजनीतिक पंडितों को चौंकाते हुए कांग्रेस छोड़ दी थी।वे अपनी चिरविरोधी पार्टी - भाजपा में शामिल हो गए थे।सिंधिया जब कांग्रेस से गये तो वे मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को भी अपने साथ ले गए थे।कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गयी थी।सवा साल पहले कमलनाथ से विधानसभा चुनाव हारे शिवराज सिंह चौहान को चौथी बार प्रदेश की कमान मिल गयी थी।
कमोवेश तब से ही सिंधिया और उनके समर्थक अपने पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।उनके साथ कांग्रेस छोड़कर आये उन विधायकों का तो पुनर्वास हो गया था जो उपचुनाव जीत गए थे।खुद सिंधिया को भी राज्यसभा की सीट मिल गयी थी।लेकिन उन लोगों को अभी तक कुछ नही मिला है जिन्होंने सिंधिया के कहने पर मंत्री पद और विधायकी छोड़ी लेकिन भाजपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव नही जीत पाए।
यह किस्सा अब पुराना हो चुका है कि आखिर सिंधिया ने कांग्रेस क्यों छोड़ी?ग्वालियर के महाराज सिंधिया अपने राघोगढ़ के जागीरदार दिग्विजय सिंह की चालों में ऐसे फंसे कि कांग्रेस छोड़ने में ही उन्हें अपनी भलाई नजर आयी।
पहले बात सिंधिया की! जिस 1971 में भारत ने पाकिस्तान को हरा कर बांग्लादेश नामक नए देश का गठन कराया था उसी साल के पहले दिन ग्वालियर के पूर्व शासक माधवराव सिंधिया के घर ज्योतिरादित्य का जन्म हुआ था।वह मुम्बई में जन्मे थे।उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है।वे अचानक राजनीति में आये थे।उनके पिता माधवराव सिंधिया की एक विमान दुर्घटना में अचानक मौत के बाद उन्हें उनकी जगह लेनी पड़ी।2002 में उन्होंने गुना लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव लड़ा।भारी अंतर से जीते।उसके बाद 2004,2009 और 2014 का लोकसभा चुनाव भी उन्होने गुना से ही जीता।लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उनकी ऐसी घेराबंदी की कि वे अपने ही एक पूर्व सहायक से,एक लाख मतों से भी ज्यादा मतों के अंतर से हार गए।
यहीं से सिंधिया की राजनीतिक जिंदगी का टर्निंग पॉइंट शुरू हुआ।मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उनकी उपेक्षा शुरू की।धीरे धीरे तनाव बढ़ता गया।बाद में बात राज्यसभा सीट पर आई।यहां भी दिग्विजय ने कमलनाथ से मिलकर अपना नाम पहले नम्बर पर करबा लिया।
फिर जो हुआ वह इतिहास बन गया।सिंधिया ने 10 मार्च 2020 को कांग्रेस छोड़ दी।वे अपने साथ अपने विधायकों के साथ साथ दिग्विजय के करीबी माने जाने वाले आधा दर्जन कांग्रेस विधायकों को भी ले गए। देशव्यापी राजनीतिक ड्रामा हुआ।कमलनाथ की सवा साल पुरानी सरकार गिर गयी।
बाद में दिग्विजय और सिंधिया साथ साथ राज्यसभा पहुंचे।लेकिन एक दूसरे के विरोधी बन कर। प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुये।शिवराज सरकार को तो बहुमत मिल गया।लेकिन सिंधिया के कहने पर अपनी विधायकी छोड़ने वाले 5 लोगों को उनके मतदाताओं ने भाजपा प्रत्याशी के रूप में नही चुना।वे चुनाव हार गए। ये पांच और उनके ही जैसे अन्य सिंधिया समर्थक इस समय अधीर हो रहे हैं।
सच तो यह है कि खुद सिंधिया भी अब अधीर हो चुके हैं।लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे अपनी अधीरता किसी के सामने जाहिर नही कर सकते हैं।उनके पास अपने पिता की तरह योग्य नेताओं की टीम नही है।यही उनकी कमजोरी सावित हो रही है।
सिंधिया जब कांग्रेस छोड़ भाजपा में गए थे तब यह माना गया था कि सरकार गिराने के एवज में उन्हें राज्यसभा की सीट के साथ साथ मोदी मंत्रिमंडल में भी सीट मिलेगी।वाकी लोगों का पुनर्वास तो तय ही था।
लेकिन ऐसा हो नही पाया।ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा सीट तो मिल गयी लेकिन मंत्रिमंडल में जगह आज तक नही मिली है।हालांकि कहा यह जा रहा है कि कोरोना की बजह से मोदी अपने मंत्रिमंडल का विस्तार नही कर पाए हैं।इसी बजह से सिंधिया मंत्री नही बन पाए हैं।लेकिन मोदी को नजदीक से जानने वाले लोग यह कहते हैं कि मोदी ने जानबूझ कर सिंधिया को मंत्री नही बनाया है। वे ऐसा करके एक संदेश देना चाहते थे।वह संदेश उन्होने दे दिया है।अगर वे चाहते तो 10 मार्च 2020 को जब सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी थी उसी दिन उन्हें अपने मंत्रिमंडल में ले सकते थे।यह सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी का फैसला है कि आजतक सिंधिया मंत्रिमंडल से बाहर हैं।
इधर मध्यप्रदेश में भी सिंधिया की राह आसान नही है।कांग्रेस की सरकार गिराकर वे भाजपा में आ जरूर गए हैं।लेकिन अब भाजपा में वे इस स्थिति में भी नही हैं कि किसी का कुछ बिगाड़ सकें।अगर वे अपने समर्थक विधायकों के साथ एक वार फिर वही कदम उठाए तब भी शिवराज सरकार पर कोई फर्क नही पड़ने वाला।
सिंधिया को सबसे बड़ी चुनौती अपने ग्वालियर चंबल क्षेत्र से ही मिल रही है।उस क्षेत्र में भाजपा के एक से एक दिग्गज नेता मौजूद हैं।मुरैना से सांसद नरेंद्र तोमर मोदी सरकार में कृषि मंत्री हैं।वह सिंधिया की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं।तोमर के अलाबा ग्वालियर के सांसद विवेक शेजवलकर और गुना के सांसद के पी सिंह भी सिंधिया के भाजपा में आने से खुश नही हैं।सबसे बड़ी समस्या क्षेत्र में विकास कार्यों के श्रेय को लेकर है।यह सच है कि सिंधिया से ग्वालियर और ग्वालियर से सिंधिया की पहचान जुड़ी है।लेकिन अब जनता उनका साथ छोड़ चुकी है।माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर संसदीय क्षेत्र सिर्फ इसलिये छोड़ा था क्योंकि 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में जयभान सिंह पवैया ने उन्हें तगड़ी टक्कर दी थी।इन्ही पवैया ने 2014 के लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को नाकों चने चबबा दिए थे।सिंधिया को 2019 का लोकसभा चुनाव हराने वाले के पी सिंह राजनीति में नए खिलाड़ी हैं।लेकिन वे भी नही चाहते कि भविष्य में वे मात्र भूतपूर्व सांसद के तौर पर जाने जाएं।इसलिए अपने स्तर पर वे भी कोशिश कर रहे हैं।
जहा तक नरेन्द्र तोमर का सवाल है,वह सिंधिया से अपना मनमुटाव छिपा भी नही रहे हैं।यही हाल सिंधिया का भी है।पिछले महीने दोनों ने ग्वालियर में एक बैठक में एक साथ शिरकत की।इस बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिह भी मौजूद थे।शिवराज ने बैठक के बाद ट्वीट करके बैठक की जानकारी दी।उन्होंने अपने ट्वीट में तोमर और सिंधिया की उपस्थिति का जिक्र किया।लेकिन तोमर और सिंधिया ने अपने ट्वीट में एक दूसरे के नाम का जिक्र तक नही किया। तोमर इस बात से नाराज है कि सिंधिया उनके क्षेत्र में दखल दे रहे हैं।शिवराज मजबूरी में उनका साथ दे रहे हैं।अब दोनों की नाराजी सतह पर आ चुकी है।
पिछले दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया भोपाल आये थे।वे तब प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह दोनों से ही मिले थे।इन मुलाकातों की खासी चर्चा भी रही थी।माना गया था कि सिंधिया अपने समर्थकों की सूची लेकर आये थे।
विष्णुदत्त शर्मा ने तो अपनी जम्बो कार्य समिति में सिंधिया समर्थकों के नाम शामिल कर लिये लेकिन शिवराज सिंह ने आज तक कोई फैसला नही किया है।
हालांकि सिंधिया के समर्थक यह कह रहे हैं कि सब तय हो गया है और सभी का पुनर्वास होगा।लेकिन वे यह भी मान रहे हैं कि जैसे जैसे समय गुजर रहा है लोगों का धैर्य भी चुक रहा है।
सबसे बुरी हालत तो उन पूर्व विधायकों की है जिन्होंने सिंधिया के कहने पर अपनी विधायकी छोड़ दी थी।लेकिन वे उपचुनाव में हार गए। इनमें महाराज सिंधिया की सबसे प्रिय इमरती देवी भी शामिल हैं।इमरती के साथ साथ गिरिराज दंडोतिया,एदल सिंह कंसाना,मुन्नालाल गोयल और रणवीर जाटव भी अपने पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।
सिंधिया दोतरफा दवाब में हैं।एक तरफ तो वे खुद मोदी मंत्रिमंडल में जगह का इंतजार कर रहे हैं और दूसरी तरफ उन लोगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिन्होंने उनके कहने पर कांग्रेस और विधायक पद छोड़ा था। भाजपा प्रत्याशी के तौर पर वे जीत नही पाए। न ही भाजपा उन्हें अपना पायी है।
सिंधिया की एक मुश्किल और भी है।उनकी दो बुआएँ उनसे पहले से भाजपा में हैं।बड़ी बुआ बसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं।छोटी बुआ यशोधरा राजे सिंधिया मध्यप्रदेश में शिवराज मंत्रिमंडल की सदस्य हैं।इन दोनों की मौजूदगी उनके लिए सहायक नही है।
फिलहाल हालत यह है कि सिंधिया समर्थकों का धैर्य चुक रहा है।खुद सिंधिया को मंत्री न बनाये जाने का भी विपरीत असर उन पर पड़ रहा है। भाजपा के भीतर भी उन्हें अभी तक पूरी तरह स्वीकार नही किया गया है। कहा कुछ भी जाये लेकिन यह साफ है कि सिंधिया के भाजपा में आने से कम से कम ग्वालियर चंबल इलाके के भाजपा नेता तो खुश नही ही हैं।
ऐसे में नरेन्द्र मोदी ने उन्हें अभी तक अपने मंत्रिमंडल में न लेकर एक अलग संदेश दिया है।इसी की बजह से सिंधिया की राह आसान नही हो पा रही है।
हालांकि ज्योतिरादित्य अपनी ओर से कोशिश कर रहे हैं।पिछले दिनों वे अपने चिर विरोधी जयभान सिंह पवैया के घर उनके पिता के निधन पर शोक व्यक्त करने भी गए थे। भोपाल में भी वे कई नेताओं से मिले थे। लेकिन कांग्रेस जैसे हालात भाजपा में नही बन पाए हैं।
हो सकता है कि आने वाले दिनों में सिंधिया मोदी मंत्रिमंडल में शामिल भी हो जाएं।प्रदेश में भी उनके समर्थकों को सत्ता में हिस्सा मिल जाये लेकिन इतना तय है कि पिछले सवा साल में सिंधिया का वह "मान" स्थापित नही हो पाया है जिसके लिये उन्होने कमलनाथ की सरकार गिराई थी।