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सुशांत मामले से खुली लोकतंत्र की पोल, राज्य और केंद्र सरकारों के पालतू बन चुके समूचे सरकारी तंत्र से ही जनता का भरोसा उठा
सुशांत / दिशा और कंगना मामले में महाराष्ट्र में पुलिस, बीएमसी आदि सभी संस्थाएं सरकार के पालतू की तरह व्यवहार कर रही थीं. जबकि सुशांत को न्याय दिलाने के लिए जांच करने के नाम पर ठाकरे को घुटने पर लाने की कवायद में जुटी सीबीआई भी साफ तौर पर केंद्र की पालतू संस्था के रूप में ही नजर आ रही है.
जांच में सुस्ती करने के साथ- साथ भारी आलोचना के बाद ऐम्स के साथ बैठक करने के बावजूद सीबीआई अभी तक खुल कर कुछ नहीं बता रही है. शायद वह भी शिव सेना के संजय राउत और देवेन्द्र फडणवीस की मीटिंग के वही नतीजे आने का इंतजार कर रही है, जो मोदी- शाह चाहते हैं....यानी ठाकरे घुटने पर आ जाएं और एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बना लें.
जाहिर है, अटकलों के मुताबिक सीबीआई के जरिए ही केंद्र ने ठाकरे की गर्दन दबोच तो ली है मगर संभवतः ठाकरे को मुख्यमंत्री पद देवेन्द्र फडणवीस को देने में उसी तरह तकलीफ हो रही है, जैसी कि पहले हो ही चुकी है. इसी तकलीफ के चलते तो ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी.
अब जब तक ठाकरे अपनी इस तकलीफ को भुलाकर मुख्यमंत्री पद भाजपा को नहीं सौंप देते , तब तक शायद सीबीआई भी इसी तरह किसी ठोस नतीजे पर न पहुंच पाने और जांच जारी रखने का नाटक केंद्र की पालतू संस्था की तरह करती रहेगी. हालांकि ठाकरे को घुटने पर ला कर महाराष्ट्र में सत्ता पलट व सीबीआई द्वारा सुशांत मामले को आत्महत्या करार दिए जाने का खुलासा बिहार में मतदान के बाद ही जनता के सामने लाए जाने के आसार है. क्योंकि मोदी- शाह महाराष्ट्र पाने की पिनक में बिहार की बाजी नहीं हारना चाहेंगे.
बहरहाल, राज्य और केंद्र सरकार के पालतू की तरह बर्ताव करने वाले हर महकमे या पूरे सिस्टम को देख कर यह सवाल भी उठता है कि फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता के लिए इस सरकारी तंत्र का मतलब ही क्या रह जाता है? क्या वाकई यह लोकतंत्र है या यह राजतंत्र है? जहां जिस पार्टी या नेता का राज होगा, वह अपनी मनमानी इन्हीं संस्थाओं को गुलाम बनाकर इसी तरह बड़ी आसानी से करते रहेंगे. संविधान में इन संस्थाओं का काम क्या है और इन्हें किस लिए बनाया गया है, यह सब कुछ ताक पर रखकर इन संस्थाओं से हर सरकार/ सत्तारूढ़ नेता/ दल केवल अपने हित साधते रहेंगे तो इसे लोकतंत्र की बजाय राजतंत्र या तानाशाही ही कहना बेहतर होगा.
वैसे भी, जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही अगर किसी राजा की तरह लोकतंत्र में बाकायदा संविधान रचकर जनता के लिए बनाए गए सिस्टम को भी अपना गुलाम बनाकर इसी तरह मनमानी करते रहेंगे तो भारत को लोकतंत्र कहने का कोई फायदा तो है नहीं. बेहतर तो यही होता कि हमारे देश में बनाए गए सिस्टम के तहत काम कर रही हर लोकतांत्रिक व सरकारी संस्था अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी पारदर्शिता, ईमानदारी और निष्पक्षता से करती.
जैसा उदाहरण हमें कभी चुनाव आयुक्त के पद पर आए टी एन शेषन ने चुनाव आयोग के जरिए दिखाया था. केंद्र की सीबीआई हो, इडी, एनसीबी या कोई और संस्था....किसी राज्य की पुलिस हो या नगर निगम आदि संस्था, सभी को नेताओं के भय, चंगुल और सत्ता के लालच से बचाने में अगर हम इसी तरह नाकाम होते रहे तो वह दिन दूर नहीं , जब यहां एक बार फिर राजशाही स्थापित हो जाएगी. रियासतों और राजाओं का युग देख चुके भारत के लिए वापस उसी तरफ बढ़ने के आसार स्पष्ट नजर आने भी लगे हैं...