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जन्मदिन विशेष : अटलजी, जिन्होंने कभी हार नहीं मानी - जानें, व्यक्तित्व से जुड़ी ख़ास बातें

Special News Coverage
25 Dec 2015 7:42 AM GMT
Happy BirthDay Atal Bihari Vajpayee




आज देश के पूर्व प्रधानमंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी 91 वर्ष के हो गए। भारत रत्न से सम्मानित, लोकप्रिय कवि और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। लोग उन्‍हें बधाइयां और ढेर सारी शुभकामनाएं दे रहे हैं। ऐसे में आज Special Coverage News आपको अटल जी के जन्मदिन उनके जीवन के सफर के कुछ अंश के बारे में बताने जा रहा है।

अटलजी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर के शिंके का बाड़ा मुहल्ले में हुआ था। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं। अटलजी अपने माता-पिता की सातवीं संतान थे। उनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं।

अटलजी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है। अटलजी बचपन से ही अंतर्मुखी और प्रतिभा संपन्न थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में हुई। यहां से उन्होंने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा।

उन्हें विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाख़िल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की। इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता। उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था।

आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी बाजपेयी का संपूर्ण व्यैक्तिक विकास शिखर पुरुष के रुप में दर्ज है। भारत में ही नहीं अपितु दुनिया में उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिक राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद्, कवि, पत्रकार व लेखक के रूप में है। स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आपातकाल एवं आधुनिक भारत की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी एक अटल योद्धा की धुरी हैं।

राजनीति में उदारवाद के सबसे बड़े समर्थक हैं। वे विचारधारा की कीलों से कभी अपने को नहीं बांधा। राजनीति को दलगत और स्वार्थ की वैचारिकता से अलग हट कर अपनाया और उसको जिया। जीवन में आने वाली हर विषम परिस्थितियों और चुनौतियों को स्वीकार किया। नीतिगत सिद्धांत और वैचारिकता का कभी कत्ल नहीं होने दिया। राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव में उन्होंने आलोचनाओं के बाद भी अपने को फिट किया।

राजनीति में धुर विरोधी भी उनकी विचारधाराओं और कार्यशैली के कायल थे। आपातकाल के दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर में मौत के बाद राजनीति में अपनी सक्रिय भूमिका आए। वे संघ के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। 1951 में संघ की स्थापना की गई थी।


कविताओं को लेकर उन्होंने कहा था, 'मेरी कविता जंग का ऐलान है। पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है।'

उनकी कविताओं का संकलन 'मेरी इक्यावन कविताएं' खूब चर्चित हुईं जिसमें 'हार नहीं मानूंगा, रारा नहीं ठानूंगा' खास चर्चा मंे रही। राजनीति में संख्या बल का आंकड़ा सर्वोपरि होने से 1996 में उनकी सरकार सिर्फ एक मत से गिर गई और उन्हें प्रधानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। यह सरकार सिर्फ तेरह दिन तक रही। बाद में उन्होंने प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई। इसके बाद हुए चुनाव में वे दोबारा प्रधानमंत्री बने।

संख्या बल की राजनीति में यह भारतीय इतिहास के लिए सबसे बुरा दिन था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी विचलित नहीं हुए। उन्होंने इसका मुकाबला किया। 16 मई से 01 जून 1996 और 19 मार्च से 22 मई 2004 तक वे भारत के प्रधानमंत्री रहे। 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे। जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक वे प्रमुख थे। राजनीतिक सेवा का व्रत लेने के कारण वे आजीवन कुंवारे रहे।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लिया था। अटल गैर कांग्रेस सरकार के इतर पहले प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता से भाजपा को देश में शीर्ष राजनीतिक सम्मान दिलाया। दो दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों को मिलाकर उन्होंने राजग बनाया था, जिसमें 80 से अधिक मंत्री थे। इस सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उन्हीं अटल जी की देन है कि भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही है।

अटल बिहारी वाजपेयी कभी भी उग्र राजनीति में आक्रमकता के पोषक नहीं थे। वैचारिकता को उन्होंने हमेशा तवज्जो दिया। राजनीति के शिखर पुरुष अटलजी मानते हैं कि राजनीति उनके मन का पहला विषय नहीं था। राजनीति से उन्हें कभी-कभी तृष्णा होती थी। लेकिन वे चाहकर भी इससे पलायित नहीं हो सकते थे, क्योंकि विपक्ष उन पर पलायन का मोहर लगा देता। वे अपने राजनैतिक दायित्वों का डट कर मुकाबला करना चाहते थे। यह उनके जीवन संघर्ष की भी खूबी थी। वे एक कुशल कवि के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे, लेकिन बाद में इसकी शुरुवात पत्रकारिता से हुई।

पत्रकारिता ही उनके राजनैतिक जीवन की आधारशिला बनी। उन्होंने संघ के मुखपत्र पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और वीर अर्जुन जैसे अखबारों का संपादन किया। अपने कैरियर की शुरुवात उन्होंने पत्रकारिता से किया। 1957 में देश की संसद में जनसंघ के सिर्फ चार सदस्य थे, जिसमें एक अटल भी थे।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में भाषण देने अटलजी पहले भारतीय राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने सबसे पहले 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। बाद में 1957 में गोंडा की बलरामपुर सीट से जनसंघ उम्मीदवार के रूप में जीतकर लोकसभा पहुंचे।

उन्हें मथुरा और लखनऊ से भी लड़ाया गया था, लेकिन पराजय का सामना करना पड़ा था। अटल ने बीस सालों तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता के रूप में काम किया। इंदिरा के खिलाफ जब विपक्ष एकजुट हुआ, तब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी। अटल जी को भारत की विदेश नीति बुलंदियों पर पहुंचाने के लिए विदेश मंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी। बाद में 1980 में वे जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की।

उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गई। इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष पद का कुशल नेतृत्व किया।

उन्होंने इंदिरा गांधी के कार्यो की सराहना की थी, जबकि संघ उनकी विचारधाराओं का विरोध कर रहा था। कहा जाता है कि ससंद में इंदिरा गांधी को 'दुर्गा' की उपाधि उन्हीं की तरफ से दी गई थी। हलांकि बाद में उन्होंने एक टीवी शो में इससे इनकार किया था।

उन्होंने कहा था, 'मैं भी दुर्गा का भक्त हूं। वह किसी का संहार नहीं करती है।' इसके जरिए उन्होंने इंदिरा सरकार की तरफ से 1975 में लादे गए आपातकाल का विरोध किया था। लेकिन बंग्लादेश के निर्माण में इंदिरा की गांधी की भूमिका को सराहा था। उनका साफ कहना था कि जिसका विरोध जरूरी था, उसका विरोध किया और जिसकी प्रशंसा करनी चाहिए थी, उसे वह सम्मान दिया।

अटल की हमेशा से समाज में समानता के पोषक थे। विदेश नीति पर उनका नजरिया साफ था। वह आर्थिक उदारीकरण एंव विदेशी मदद के विरोधी नहीं थे। लेकिन वह इमदाद देशहित के खिलाफ हो ऐसी नीति को बढ़ावा देने के वह हिमायती नहीं रहे। उन्हें विदेश नीति पर देश की अस्मिता से कोई समझौता स्वीकार नहीं था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी की तरफ से दिए गए नारे 'जय जवान जय किसान' में अटल ने एक नारा अलग से 'जय विज्ञान' भी जोड़ा। देश की सामरिक सुरक्षा पर उन्हें समझौता गंवारा नहीं था। वैश्विक चुनौतियों के बाद भी राजस्थान के पोखरण में 1998 पांच परमाणु परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद अमेरिका, आस्टेलिया और यूरोपिय देशों की तरफ से भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन उनकी ²ढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति इन परिस्थितियों मंे भी उन्हें अटल स्तंभ के रूप में अडिग रखा।

कारगिल युद्ध की भयावहता का भी उन्होंने डटकर मुकाबला किया और पाकिस्तान को धूल चटाई। दक्षिण भारत के सालों पुराने कावेरी जल विवाद का हल निकाला। इसके बाद स्वर्णिम चतुर्भुज योजना से देश को राजमार्ग से जोड़ने के लिए कारिडोर बनाया। मुख्यमार्ग से गांवों को जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री सड़क योजना बेहतर विकास का विकल्प लेकर सामने आई।

कोंकण रेल सेवा की आधारशिला उन्हीं के कार्यकाल में रखी गई थी। भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी एक अडिग, अटल और लौह स्तभं के रूप में आने वाली पीढ़ी को सिख देते रहेंगे। हमें उनकी नीतियों और विचारधराओं का उपयोग देशहित में करना चाहिए।

अब बस यही लगता है कि हम उन्हें उनके जीवन के इस अंतिम दौर में एक बार पुनः एक नई कविता पढ़ते और मंद मंद मुस्कातें देख पाएं। हम एक बार फिर उन्हें संसद में उनकी चुप्पी व अद्भुत वाचालता का साम्य देख पाएं। दीर्घायु और शतायु होने की शुभकामना मां भारती के लाल अटलजी को!
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