
सवर्णों के समर्थन में खुलकर बोले देवकी नंदन महाराज

राकेश पाण्डेय
प्रवचनकार पंडित देवकी नंदन ने जिस तरह से दिलेरी दिखाते हुए दलित एक्ट के मामले में खुलेआम सवर्णों के समर्थन में खड़े हुए हैं, वह काबिलेतारीफ है. पंडित देवकी नंदन ठाकुर को इस आंदोलन में कूदने की क्या जरूरत थी, उनकी अच्छी-खासी कथा- प्रवचन चल रहा है, एक कथा के लिए उन्हें लाखों रुपए मिल रहे हैं, उन्हें हर समाज सम्मान दे रहा है, उन्हें इस पचड़े में पड़ने की क्या जरूरत थी, लेकिन वे अपना स्वार्थ दरकिनार कर आक्रामकता के साथ समाज के आंदोलन में कूद पड़े. वे समाज का नेतृत्व करने में सक्षम दिखाई दे रहे हैं.
मेरी व्यक्तिगत राय है कि सभी लोग उन्हीं के नेतृत्व में समाज के विकास में कार्य करने के लिए तैयार हो जाएं. एक राष्ट्रीय स्तर पर सवर्ण मोर्चे का गठन हो, जिसकी इकाइयां राज्यों में संचालित हों, जो सवर्ण नेता सक्रिय हो उसे राज्य इकाई की जिम्मेदारी दी जाए. इस मोर्चे के तले प्रदर्शन कर सरकार को हम अपनी शक्ति का एहसास कराने में कामयाब होंगे. इसके बाद हमारे समाज की खोई हुई प्रतिष्ठा मिल सकेगी. अभी तो सवर्ण समाज बंटा हुआ है, कोई भाजपा, कोई कांग्रेस, कोई सपा, कोई बसपा कोई अन्य दल में अपनी प्रतिष्ठा या सम्मान खोज रहा है, लेकिन इस वर्ग को कहीं भी कोई सम्मान देने वाला नहीं है. इसलिए हमें अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपना संगठन तैयार करना पड़ेगा.
वैसे सवर्ण समाज का तथाकथित नेतृत्व करने वाले बहुत से सवर्ण सांसद एवं विधायक हैं, लेकिन इस समय वे मुंह छिपा कर बैठे हैं. आगे आने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें डर है कि यदि दलित एक्ट के बारे में एक भी शब्द बोल दिया तो उन्हें पार्टी प्रमुखों के कोप का सामना करना पड़ेगा. अगले चुनाव में टिकट से हाथ धोना पड़ेगा. वैसे भी ऐसे समाज के गद्दार नेताओं को सवर्ण जरूर सबक सिखाएंगे. वहीं दलित एक्ट के समर्थन में भाजपा के दलित सांसद एवं विधायक सीना तान कर खड़े हैं. साथ ही चेतावनी दे रहे हैं कि इस कानून को कोई छूकर देखे, पूरे देश में आग लग जाएगी.
हालांकि उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री एवं विधायक रघुराज प्रताप सिंह ने जोर-शोर के साथ इस कानून के खिलाफ आवाज उठाई है. उन्होंने सवर्ण आंदोलन में शामिल होकर आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ाया. उनके आंदोलन में शामिल होने से राजनीति गर्मा गई है, लेकिन उनके ऊपर इसका कोई असर पड़ने वाला नहीं है. वे किसी पार्टी की दया पर चुनाव नहीं लड़ते. वे पार्टियों को लड़ाने की कूबत रखते हैं. ऐसे समाज के बाहुबलियों से समाज को जरूर बल मिलेगा.