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महाभारत की चौसर छोटी है 2019 के महासमर के सामने - पूण्य प्रसून बाजपेयी
महासमर या महाभारत। 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दल जिस लकीर को खिंच रहे है वह सिर्फ राजनीति भर नहीं है। सत्ता हो या विपक्ष दोनो के पांसे जिस तरह फेंके जा रहे है वह जनादेश के लिये समर्थन जुटाने का मंत्र भी नहीं है। बल्कि महासमर या महाभारत की गाथा एक ऐसे दस्तावेज को रच रही है जिसमें संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा आने वाले वक्त में सत्ता के चरणो में नतमस्तक रहेगी इंकार इससे भी किया नहीं जा सकता है। और जो रचा जा रहा है उसके तीन चेहरे है। पहला , चुनावी तंत्र का चेहरा। दूसरा कारपोरेट लूट की पालेटिकल इक्नामी। तीसरा जन सरोकार या जन अधिकार को भी सत्ता की मर्जी पर टिकाना।
रोचक तीनो है , पर देश के लिये घातक भी तीनो है। और देश के सामाजिक-आर्थिक हालातो के बीच लोकतंत्र की त्रासदी के तौर पर तीनो ही अपनी अपनी सत्ता को संभाले भी हुये है। कोलकत्ता में ममता की रैली [ रैली पर खर्च किया गया रुपया जनता का ही है ] में गठबंधन की छतरी तले विपक्ष का हुजुम पहली नजर में साफ साफ दिखा देता है कि बीजेपी से किसी की दुश्मनी नहीं है। टारगेट पर नरेन्द्र मोदी है जिन्होने अपनी कार्यशैली से देश मेंउस लोकतंत्र को ही खत्म कर दिया जो संसदीय राजनीति के नारे तले हर राजनीतिक दल के जीने का हक [ जन अधिकार की बात करने वाले भी और जन की पूंजी की लूट करने वाले भी ] देती है । या फिर संविधान की परिभाषा सत्तानुकुल कर चुनी हुई सत्ता को संविधान के भी उपर बैठा दिया। और कानूनी या संवैधानिक तौर अगर ये काम इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी ला कर किया तो नरेन्द्र मोदी ने बिना इमरजेन्सी के उस सच को उभार दिया जिसे कहने या उभारने से हर सत्ता अपने अपने दायरे में इससे पहले बचती रही है। यानी 2019 के महाभारत का पहला सच ममता की रैली से यही उभरा कि अगर सत्ता 2019 में पलट गई तो फिर मोदी को कोई बख्शेगा नहीं। और इसका खुला इजहार भी हुआ कि मोदी सत्ता ने सोनिया से लेकर ममता। अखिलश से लेकर मायावती। तेजस्वी से लेकर हार्दिक पटेल तक को नहीं बख्शा तो फिर सत्ता पलटने पर मोदी को भी बख्शा नहीं जायेगा । लेकिन राजनीतिक मंत्र सिर्फ राजनीतिक दुश्मनी के तहत ही सभी को एक छतरी तले लेते आया , सच ये भी नहीं है।
हकीकत तो ये है कि अक बडी छतरी तले छोटी छोटी छतरियों को थामे विपक्ष है। जो 2019 के जनादेश के बाद तीन परिस्थियो को परख रहा है। जिसमें एक तरफ बीजपी या काग्रेस को समर्थन देने की स्थिति है । यानी तमाम क्षत्रप सत्ता की मलाई खाने के लिये काग्रेस के साथ जायेगें। या फिर मोदी माइनस बीजेपी को भी समर्थन देने की स्थिति में आ जायगें। दूसरी परिस्थिति ज्यादा रोचक है जिसमें क्षत्रपो का गठबंधन की अपने में से किसी नेता को चुन लें और काग्रेस या बीजेपी उस समर्थन दे दें। लेकिन सबसे ज्यादा रोचक तीसरी परिस्थिती है जिसके केन्द्र में मायावती है । जो अपनी सीटो की संख्या तले खुद ही पीएम का दावेदार बन कर काग्रेस या बीजेपी से कहे कि उसके पीछ वह अपनी ताकत [ सासंदो की संख्या ] झोंक दें। दरअसल इस तीसरी परिस्थति में कई परते है । पहला तो यही कि अखिलेश यादव भी सीटो की संख्या में मायावती से जा से कम रहेगें तो फिर पहला समझौता माया-अखिलेश में होगा । कौन राज्य सभाले और कौन केन्द्र संभाले । इस समझौते के तहत अखिलेश का झुकाव काग्रेस के पक्ष में होगा। लेकिन इस गणित की दूसरी परत ये भी कहती है कि मायावती के सामानातंर अगर ममता भी बंगाल में कमाल कर देती है तो फिर ममता खुद को उन क्षत्रपो के साथ जोडकर पीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करेगी जिनके सबंध ममता से करीब है। उसमें केजरीवाल भी है और फारुख अब्दुल्ला भी । चन्द्रबाबू भी हामी भर सकते है और केसीआर भी। यानी बडी छतरी तले कई छतरिया ही नहीं बल्कि छतरियो के भीतर भी छतरियो का ऐसा समझौता जो महाभारत की चौसर को भी मात कर दें। लेकिन इस राजनीतिक मंत्र का सियासी मिजाज साफ है 2019 में ऐसा परिवर्तन जिसमें बीजपी और मोदी की सत्ता को एक साथ ना देखा जाये।
पर राजनीतिक महासमर के इस खेल में कारपोरेट लूट की पालेटिकल इकनामी का चेहरा भी कम रोचक नहीं है। क्योकि जिस दौर में सरकारी खजाने को रिजर्व बैक से तीन लाख करोड की जरुरत पड गई उस दौर में अंबानी की कंपनी को आखरी क्वाटर में 10 हजार करोड का शुद्द मुनाफा हो जाता है। इंटरकाम के क्षेत्र में एयरटेल समेत तमाम कंपनिया रिस रह है लेकिन जियो को 28 फिसदी का लाभ हो जाता है। और कोलकत्ता में ममता की रैली से ये आवाज भी खुले तौर पर निकलती है कि सत्ता अंबानी का पाल पोस रही है। यानी देश की एवज में पंसदीा कारपोरेट को लाभ पहुंचाने के तमाम रास्ते खोल रही है । और फिर 2013 के हालातो में जब नरेन्द्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया जाये या नहीं या फिर आडवाणी के विरोध के स्वर को भी कारपोरेट की पूंजी तले तौलने का काम 2019 में ये कहकर शुरु हो गया कि तब बीजेपी-संघ के भीतर से आवाज यही थी कि जो पूंजी लगायेगा वहीं पीएम उम्मीदवार होगा। और तब कारपोरेट ने ही नरेन्द्र मोदी का नाम लेना शुरु कर दिया । गुजरात माडल को राजनीतिक माडल बनाया गया। और आडवाणी सवाय विरोध के तब कुछ कर ना सके। और देश ने 2014 के चुनाव की चकाचौंध का मिजाज नरेन्द्र मोदी की प्रचार शैली [ तकनीकी प्रचार ] से लेकर सैकडो हवाई रैली करते हुये भी हर रात वापस गांधीनगर पहुंचने की देखी। और उसके बाद सत्ता की तरफ से चुनाव में मदद करने वाले कारपोरेट को लाभालाभ देने की देश की नीतियो को भी खनन से लेकर पोर्ट और पावर सेक्टर से लेकर टेलीकाम तक में देखा। तो क्या 2019 के महाभारत के लिये बिछती चौसर पर कारपोरेट को अपने अनुकुल करने या मोदी सत्ता से लाभ लेने वाले कारपोरेट को सत्ता बदलने पर ना बख्शने का पांसा फेका जा रहा है। या फिर जिन कारपोरेट को लूट का मौका मोदी सत्ता में नहीं मिला उन्हे सत्ता परिवर्तन के बाद लाभ के हालात से जोडने के लिये पैसे फेके जा रहे है।
लेकिन 2019 के महाभारत में सबसे परेशान वाला तीसरा चेहरा है जो जन-सरोकार या जन अधिकार की बात को ही सत्ता की दौड तले खत्म कर देता है। यानी सत्ता कैसे संविधान है। सत्ता ही कैसे लोकतंत्र की परिभषा है। और सत्ता ही कैसे हिन्दुस्तान है। ये संवैधानिक पद पर बैठे नरेन्द्र मोदी की कार्यशौली भर का नतीजा नहीं है बल्कि सत्ता केन्द्रित लोकतंत्र में कैसे राजनीतिक दलो की कार्यशैली भी सिर्फ सत्ता के भरोसे ही लोगो को जिन्दा रहने या जिन्दा रहने की सुविधा/नीतियो को टिकाती है ये भी काबिलेगौर है। और ये वाकई बेहद त्रासदी पूर्ण है कि मान्यता तभी मिलती है जब सत्ता का हाथ सर पर हो । यानी जो मोदी की सत्ता में मोदी के साथ खडे है और कल जब मोदी की सत्ता नहीं होगी तब की सत्ता में जो सत्ता के साथ खडे होगें , मान्यता उन्ही की होगी । बाकि सभी कीडे-मकौड की तरह रहे , जीये या खत्म हो जाये कोई फर्क नहीं पडता। इसका नजारा कई दृश्टी से हो सकता है। पर उदाहरण के लिये लगातार किसानो के बीच काम कर रहे लोगो को ही ले लिजिये । दो महीने पहले दिल्ली में किसानो का जमघट मोदी सत्ता की किसान विरोधी नीतियो को लेकर हुआ। दिल्ली में किसानो के तमाम संगठन जुटे इसके लिये तमाम समाजसेवी से लेकर पत्रकार पी साईनाथ ने खासी मेहनत की। पर दिल्ली में सजा मंच इंतजार करता रहा कि तमाम राजनीतिक दलो के चेहरे कैसे मंच पर पहुंच जाये । और जब संसद के अंदर बाहर चमकते चेहरे मंच पर पहुंचे और किसानो के हितो की बात कहकर हाथो में हाथ डाल कर अपनी एकता दिखाते रहे तो इसे ही सफल मान लिया गया । और कोलकत्ता में ममता की रैली में जब नेताओ का जमावडा जुटा तो किसानो के बीच काम कर रहे योगेन्द्र यादव कोलकत्ता से दो सौ किलोमिटर दूर एक सामान्य सी सभा को बंगाल में ही संबोधिक तर रहे थे। पर उनका कोई अर्थ नहीं क्योकि सत्ता के सितारे तो कोलकत्ता में जुटे थे। यानी महत्ता तभी होगी जब आप सत्ता केन्द्रित सियासत के साझीदार बन जाये। वरना आप हो कर भी कही नहीं है। तो कया देश के सारे रास्ते सत्ता में जा सिमटे है और पत्रकार कहलाने के लिये। अच्छा शिक्षक , वकील , डाक्टर , लेखक , सामजसेवी होने के लिये या तो सत्ता से सट जाये या फिर चुनाव मैदान में कूद जाये। और देश का मतलब राजनीति सत्ता ही है। ध्यान दिजिये हो तो यही रही है।
और जो सत्ताधारी है उनके लिये आखरी मंत्र....अटलबिहारी वाजपेयी के दौर में प्रमोद महाजन बेहद ताकतवर हो गये थे। नरेन्द्र मोदी के दौर में अमित शाह बेहद ताकतवर है। तो ताकत का मतलब क्या है ये भी समझे।