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कैलाश सत्यार्थी के नोबेल शांति पुरस्कार की 5वीं वर्षगांठ पर विशेष, कौन जाति के हैं नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी?

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10 Dec 2019 8:03 AM GMT
कैलाश सत्यार्थी के नोबेल शांति पुरस्कार की 5वीं वर्षगांठ पर विशेष, कौन जाति के हैं नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी?
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सत्यार्थी को पांच साल पहले आज ही के दिन 10 दिसंबर 2014 को बाल श्रम के खिलाफ और बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने के लिए दुनिया के इस सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया था

लेख- निधि रानी

भारत के लिए आज का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक है। आज के दिन ही भारत के किसी व्यक्ति को पहली बार नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। उस व्यक्ति का नाम है कैलाश सत्यार्थी। सत्यार्थी को पांच साल पहले आज ही के दिन 10 दिसंबर 2014 को बाल श्रम के खिलाफ और बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने के लिए दुनिया के इस सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। लेकिन कैलाश सत्यार्थी का असली नाम यह नहीं है। कैलाश सत्यार्थी का स्कूल का नाम कैलाश नारायण शर्मा है। वे ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए हैं। कैलाश नारायण शर्मा से कैलाश सत्यार्थी बनने की उनकी कहानी बड़ी रोचक है। यह कहानी शोषण पर आधारित सदियों की सड़ी-गली जातीय व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की प्रेरक कहानी है।

कैलाश सत्यार्थी के उपनाम में जातिसूचक शब्द नहीं है। जाति जैसी सामजिक कुप्रथा के खिलाफ कैलाश सत्यार्थी ने 15 साल की उम्र में विद्रोह किया और किशोर जीवन में ही इस विद्रोह की कीमत अदा करते हुए सामाजिक बहिष्कार का जीवन जीते रहे। आज वे अपने जीवन और कार्यों से जाति व्यवस्था को तोड़ चुके हैं। उन्होंने जिन बच्चों को गुलामी से छुड़ाया, उनका कभी जाति- धर्म नहीं देखा। उनके द्वारा बाल मजदूरों के पुनर्वास के लिए स्थापित "बाल आश्रम" में सभी जाति और धर्म के बच्चे रहते और पढ़ते हैं। यहां से पल-बढ़ कर निकले वंचित समाज के बच्चे इंजीनियर, डॉक्टर, वकील बनने का सपना देख रहे हैं। वे एक ऐसा "बाल मित्र समाज" बनाना चाहते हैं जहां जाति और धर्म के नाम पर कोई भेदभाव न हो और सभी बच्चे आजाद, शिक्षित, सुरक्षित और स्वस्थ हों।

बात सन 1969 की है। गांधीजी के जन्म के सौ साल पूरे हो रहे थे। लिहाजा पूरे देश में गांधी जन्म शताब्दी मनाई जा रही थी। छूआछूत और जातीय भेदभाव का विरोध किया जा रहा था। तब कैलाश नारायण शर्मा 15 साल के थे और वे मध्य प्रदेश के विदिशा के एक स्कूल में 10वीं के छात्र थे। इस छात्र के मन में तब एक क्रांतिकारी विचार कौंधा कि क्यों न गांधी जन्मसदी पर समरसता और समानता का भाव पैदा करने के लिए एक सहभोज का आयोजन किया जाए, जिसमें ऊंची जाति के लोग नीची जाति की मेहतरानियों यानी मैला ढोने वाली महिलाओं का बनाया भोजन ग्रहण करें। इसकी चर्चा उन्होंने जब समाज के प्रतिष्ठित लोगों और नेताओं से की तो सबने इस आयोजन के लिए उनका उत्साह बढ़ाया और उनके सहभोज का निमंत्रण भी स्वीकार किया। बालक कैलाश ने इस सहभोज के लिए अपने दोस्तों से चंदा इकठ्ठा किया और मैला ढोने वाली मेहतरानियों को भोजन बनाने के लिए तैयार किया। तय किया गया कि शहर के चौक पर स्थापित गांधी प्रतिमा के नीचे मेहतरानियां भोजन बनाएंगी और यहीं शहर के संभ्रांत नेताओं और प्रतिष्ठित लोगों को खाना खिलाया जाएगा।

19 अक्टूबर, 1969 को रविवार के दिन सहभोज तय किया गया। सुबह से तैयारी शुरु हो गई। शहर के गणमान्य नेताओं को इस सहभोज में आने का निमंत्रण दे दिया गया। कैलाश जी अपने दोस्तों के साथ आयोजन में जुट गए। मेहतरानियां भी गणमान्य लोगों की प्रतिष्ठा को ध्यान में रख नहा-धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहन कर भोजन निर्माण में जुट गईं। सबको शाम को 7 बजे भोजन का निमंत्रण दिया गया। लेकिन समय पर कोई नहीं पहुंचा। जब समय पर लोग नहीं पहुंचे तो कैलाश जी साइकिल लेकर दुबारा नेताओं के घर उन्हें बुलाने गए। सब लोग गणमान्य अतिथियों का 10 बजे रात तक इंतजार करते रहे। लेकिन कोई नहीं आया। समाज का असली चरित्र इन नौनिहालों के सामने उजागर हो गया था। समाज को बदलने की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेताओं का खोखलापन भी जग जाहिर हो चुका था।

नेताओं के इस दोहरे चरित्र से निराश किशोर कैलाश ने बर्तन उठाया और गांधीजी की मूर्ति के नीचे साथियों को खाना परस कर खुद खाना शुरू कर दिया। सन्नाटे, खामोशी और उपेक्षाभरे माहौल में कैलाश जी और उनके साथियों ने भरी आंखों से मेहतरानियों के हाथ का बना खाना खाया। मेहतरानियों को इस बात का जरा भी दुख नहीं था कि शहर के गणमान्य लोगों ने उनका तिरस्कार किया, बल्कि उन्हें इस बात की खुशी थी कि कुछ उत्साहित और बदलाव का सपना संजोने वाले नौजवानों ने उनके हाथ का बना खाना खाकर छुआ-छूत और सामाजिक भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया।

लेकिन, कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। जब कैलाश जी रात 11 बजे घर पहुंचे तो आंगन में मजमा लगा हुआ था। परिवार और कुल खानदान के लोग इस बात को लेकर आग-बबूला थे कि इस बच्चे ने मेहतरानियों के हाथ का खाना खिलाने की दावत देकर न केवल शहर के संभ्रांत लोगों का मजाक उड़ाया है, बल्कि खुद भी मैला उठाने वालों के हाथ का बनाया खाना खाकर कुल-खानदान का नाम मिट्टी में मिला दिया है। कुछ लोगों का सुझाव था कि इसकी सजा के रूप में कैलाश जी और उनके परिवार को जाति निकाला दे दिया जाए। लेकिन परिवार के यह समझाने पर की इसमें उनकी क्या गलती है, जाति के पंचों ने यह फरमान सुनाया कि बालक अगर अपनी गलती का पश्चाताप करे तो फिर जाति से बाहर नहीं निकाला जाएगा। लेकिन, इसके लिए बालक कैलाश को हरिद्वार जाकर गंगा स्नान कर शुद्दीकरण प्रक्रिया पूरी करनी होगी। वहां से लौटने के बाद घर में ब्राह्मण भोज करना पड़ेगा और इसके बाद उनका पैर धोकर पीना पड़ेगा। परिवार के लोग तो इसे करने के लिए तैयार हो गए। लेकिन सत्यार्थी जी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। कुल-खानदान के लोग इससे और आग-बबूला हो गए। उन्होंने उनके परिवारवालों से कहा कि या तो इसे घर से बाहर कर दो, नहीं तो हम लोग आप को जाति से निकाल देंगे।

सत्यार्थी जी ने ब्राह्मणों की बात मानने से इनकार कर दिया। इस तरह से अपने ही घर में उनका प्रवेश बंद हो गया। घर के बाहरी छोर पर एक छोटा सा कमरा था, जिसमें उनके रहने की व्यवस्था की गई। माताजी उनके खाने-पीने का सामान कमरे में ही पहुंचा आती थी। करीब दो साल तक घर-आंगन तक में उनका प्रवेश वर्जित रहा और निर्वासित जीवन जीते रहे।

बालक कैलाश ने उसी दिन सोच लिया, "ये लोग मुझे जाति से बाहर क्या निकालेंगे, मैं अपने समूचे अस्तित्व को ही जाति से बाहर कर दूंगा।" कालेज के दिनों में सत्यार्थी जी स्वामी दयानन्द से प्रभावित हो कर आर्य समाज से जुड़ गए थे। स्वामी दयानन्द की प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ कर उन्होंने अपना नाम कैलाश नारायण शर्मा से बदल कर कैलाश सत्यार्थी रख लिया। सत्यार्थी का अर्थ है सत्य की तलाश करने वाला। उनके दो बच्चे हैं। दोनों बच्चों और पत्नी सुमेधा कैलाश के नाम में भी जातिबोधक शब्द नहीं है। बच्चों ने जाति से परे जाकर शादी भी की है।

21वीं सदी के इस आधुनिक युग में भी हम जाति की जकड़न में जकड़े हुए हैं। जातीय भेदभाव और छुआछूत ने समाज में वैमनस्य और कटुता बढ़ाई है। जातियों को खांचे में बांट कर और एक दूसरी जातियों को उनके खिलाफ भड़का कर वोट बैंक की जो राजनीति हो रही है, वह बहुत ही खतरनाक है। वोट के लिए देवी-देवताओं तक को भी जाति के आधार पर बांटा जा रहा है। ऐसे में समाज को जातियों की जकड़न से निकालने के लिए श्री कैलाश सत्यार्थी के प्रयासों से लोगों को प्रेऱणा लेनी चाहिए।

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