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अरुणा घवाना
भाषा संप्रेषण का एक माध्यम है, यह एक तरफ़ा सच है। इसका दूसरा सच यह है कि भाषा पर सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और समाज का भी बड़ा बोझ होता है। पर बात आती है कि क्या भाषा इस्तेमाल करने वाले इस बात को सोचते हैं कि उनके ऊपर यह सारा भार है जो बोझ नहीं वरन राष्ट्र के प्रति एक कर्तव्य है। हिन्दी के प्रति भी हमें कुछ ऐसा ही सोचना पड़ेगा- यह वक्तव्य है यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन के हिन्दी विभाग के पूर्व प्रोफ़ेसर विजय ठाकुर के।
विदेशों में हिन्दी के बढ़ते चलन को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी अपने स्वर्णिम काल की ओर अग्रसर हो रही है। अपने आस-पास से लेकर दूर-दूर तक के देश, काल, वातावरण को जानने-समझने की आकांक्षा, मनोभावों व विचारों की अभिव्यक्ति दूसरों को संप्रेषित करना, देशकाल, वातावरण की बदलती स्थितियों से तालमेल बिठाना भाषा इस्तेमाल करने वाले का सर्वोपरि धर्म है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में, कौन सा भारत, कैसा भारत, कैसे भारतीय यह सवाल अब कोई नहीं करता। हाँ, कहीं-कहीं गो बैक टू इंडिया अब भी जरूर सुनाई देता है। पर, इसी गो बैक से विदेशों में हिन्दी साहित्य का उदय देखने को मिला है। सीधे तौर पर न भी हो पर परोक्ष रूप से इस परिणाम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। विदेशों में हिन्दी की बिन्दी से स्वर्णिम अध्याय की ओर ले जाने में गिरमिटिया और प्रवासी भारतीयों के सहयोग को कम करके नहीं आंका जा सकता।
यूएई से पूर्णिमा वर्मन की "अनुभूति" व "अभिव्यक्ति" ई-पत्रिकाएं विश्वभर में लिखे हिन्दी साहित्य को समेटे हुए है। इसके अलावा कंप्यूटर व तकनीक जैसे विषयों को भी हिन्दी लेखों के माध्यम से लोगों को रूबरू करा रही हैं। आर्टिस्ट विदिशा कहती हैं कि भारतीय जब भी आपस में मिलते हैं, हिन्दी बोलने में बिल्कुल भी गुरेज नहीं करते, वरन हिन्दी सुनकर लगता है कि कानों में कोई अमृत घोल रहा है। यहां किसी सरकारी अधिकारी को भी हिन्दी बोलते हुए सुनने का सुखद आश्चर्य भी जरूर मिल जाता है। सब हिन्दी समझ ही लेते हैं।
लंदन में अन्य हिन्दी साहित्यकारों की तरह ही शैल अग्रवाल नाम भी हिन्दी का एक साहित्यिक हस्ताक्षर है। इनके द्वारा आनलाइन हिन्दी पत्रिका "लेखनी" शुरू की गई जिसमें हिन्दी के विभिन्न साहित्यिक आयामों को पढ़ा जा सकता है। बड़े दुख के साथ कहती हैं कि यहां हिन्दी की ज़रूरत न्यूनतम स्तर पर सरस्वती नदी सी है। इंग्लैंड के किसी शहर में भारतीय परिवार न रहता हो, ऐसा तो मुमकिन ही नहीं है। कई भारतीय तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहीं के होकर रह गए हैं। यहां भारतीय अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं। डा पद्मेश गुप्त के अथक प्रयासों से संस्थागत स्तर पर काम होता है, परन्तु व्यक्तिगत तौर पर कोई बदलाव नहीं आता। कारण स्पष्ट है बदलाव यदि मन से स्वीकारा जाए तभी वह व्यवहारिक रूप ले पाता है।
अमेरिका की बात करें तो वहां हिन्दी पढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों में विभाग हैं। वहां केवल भारतीय ही नहीं वरन विदेशी भी हिन्दी पढ़ते हैं। कम्युनिटी स्कूलों में भी हिन्दी पढ़ाई जाती है। चिन्मय और इस्कान जैसी संस्थाएं भी बाल विहार कक्षाओं के जरिए हिन्दी के पढ़ाती और सिखाती हैं। यह सब सिखाने के पीछे अभिभावकों का एक ही उद्देश्य होता है कि उनके बच्चे किसी भी तरह अपने देश और जड़ों से दूर न रहें। परंतु कुछ अभिभावक अभी भी हिन्दी को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हैं। वे हिन्दी के बजाय अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी बोलकर प्रफ़ुल्लित महसूस करते हैं।
कनाडा से सुमन घई की हिन्दी आनलाइन पत्रिका साहित्यिक कुंज भी अपनेआप में हिन्दी का एक बहुत बड़ा दस्तावेज है। जो हिन्दी की विविध विधाओं से सजा है।
कहना न होगा कि अंग्रेजी के सफ़र के कारण बने मज़दूर भारतीयों के साथ हिंदी भी अपने सफ़र पर चल निकली थी, जिसका रूप हमें गिरमिटियाओं में देखने को मिलता है। मुश्किल बात यह है कि अब वहां भी हिन्दी के बजाय अन्य भाषाओं पर ज़ोर है जिससे उनके बच्चे नौकरी पा सकें। उन्हें अब हिन्दी बोझिल ही लगती है। तो अब वहां संस्थाओं के प्रयासों के बावजूद हिंदी अब अंग्रेजी वाला सफ़र झेल रही है। इस सबके बावजूद आज भाव-विभोर कर देने वाले गिरमिटिया साहित्य को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
फ़िजी द्वीप समूह की आधिकारिक भाषा हिन्दी ही है, जिसे फिजियन हिन्दी या फिजियन हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। सूरीनाम में सरमानी हिन्दी है। मारीशस में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अन्य कई संस्थाओं के साथ आर्य समाज की संस्थाएं भी बड़ी तन्मयता से जुड़ी हैं, किंतु अब वहां भी हिन्दी को लंबे समय तक बनाए रखने में वे भी दिक्कतें महसूस कर रहे हैं। वहां की भाषा क्रियोल है तो अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी और क्रियोल के अलावा किसी और भाषा को सिखाने में कोई रुचि नहीं रखते। त्रिनिदाद और टोबैगो में भी हिंदी का वजूद कायल है।
यहां बोली जाने वाली हिन्दी में अवधी, भोजपुरी और अन्य बोलियों का समावेश है।
आस्ट्रेलिया में स्कूल व विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी सिखाई और पढ़ाई जाती है। इसके अलावा वहां के मंदिरों में भी हिन्दी सिखाने का ज़ोर है। हिंदी वहां भारतीयों की संपर्क भाषा है। न्यूज़ीलैंड में भारतीय विद्यार्थियों के चलते हिन्दी का चलन तो है, किंतु पढ़ने-पढ़ाने का कोई प्रयास नहीं है।
यूरोप में भी हिन्दी के कुछ अपने ही तेवर हैं। यहां कई देशों में हिन्दी की जरूरत न के बराबर ही रह गई है। यह बात और है कि बालीवुड की फ़िल्मों व उनके गानों पर थिरकने का क्रेज़ अब भी बदस्तूर जारी है।
नीदरलैंड में जानेमाने भाषाविद प्रो मोहनकांत गौतम, डा रामा तक्षक और प्रो पुष्पिता अवस्थी जैसे कई जाने-माने नाम हिन्दी के पर्याय बन चुके हैं। बड़ी तन्मयता से हिन्दी की सेवा में लगे ये विद्वान हिन्दी पर गर्व करते हैं। बकौल प्रो गौतम, न जाने क्यों भारतीय हिन्दी बोलने में कतराते हैं। अपनी भाषा आपकी अपनी पहचान होती है। और अपनी पहचान से दूर जाने का कोई औचित्य नहीं होता। प्रो पुष्पिता बताती हैं कि यहां हमें हिन्दी के दो स्वरूप देखने को मिलते हैं। यहां ज्यादातर हिंदी भाषी सूरीनाम से आए हैं तो उनकी भाषा में हमें अवधी, भोजपुरी, मैथिली और कुछ अन्य बोलियों के शब्द मिलते हैं। दूसरे प्रवासी भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी।
ग्राफ़िक्स: तरुण घवाना
स्वीडन से इंडो-स्कैंडिक आर्गेनाइजेशन के वाइस प्रेज़िडेंट सुरेश पांडेयजी हिन्दी की सेवा में लगे हैं। हिन्दी कविता के पुट में अपनी बात कहने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं है। उन्होंने अपना लेखन हिन्दी में ही शुरू किया, पर उन्हें इस बात का मलाल ज़रूर है कि वे अपने बच्चों को पूरी तरह हिन्दी नहीं सिखा सके। हिन्दी में लिखी उनकी पुस्तक को उनकी तीसरी पीढ़ी नहीं पढ़ सकती, इसका दुख उन्हें सालता है। लेकिन उन्हें इस बात की बेहद खुशी है कि जब भी उनके बच्चे भारत जाते हैं तो सबसे हिन्दी में ही बात करते हैं। कोई हिचकिचाहट नहीं। चाहे सामने वाला व्यक्ति कितनी भी अंग्रेज़ी बोले! स्पेन में हिन्दी अध्यापन से जुड़ी पूजा को हिन्दी की पूजा करने में कोई गुरेज़ नहीं है। पर वह बड़े दुखी मन से बताती हैं कि यहां हिन्दी की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती। भारत से आई यह पीढ़ी फ़िर भी हिन्दी बोलती है किंतु जब से स्पेनिश के अलावा इंग्लिश को स्कूल स्तर पर पढ़ाना शुरू किया है, तब से हिन्दी का स्पेस और भी कम हो गया है। पूजा आईसीसीआर के हिन्दी प्रचार के प्रयास से ज़रूर उत्साहित और प्रसन्न है। जर्मनी में यों तो जर्मन भाषा के आगे कुछ नहीं है, फ़िर भी प्रो रामप्रसाद भट्ट जर्मनी में हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में शिक्षण के कार्य में संलग्न हैं। कक्षाओं में विद्यार्थियों की संख्या भले ही कम
भारत के इतर बिंदुओं का आकार हिंदी भाषियों की संख्या दर्शाता है-- ग्राफ़िक: तरुण घवाना
हो गई लेकिन संस्कृत के अलावा हिन्दी भाषा के प्रति भी विद्यार्थियों में क्रेज़ देखा जा सकता है। अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में हिन्दी वहां कुछ बेहतर स्थिति में है। इसका कारण संभवत: भारत से बड़ी संख्या में गए विद्यार्थी। कहना न होगा कि लातिन के चलते जहां जर्मनवासियों में संस्कृत का क्रेज बरकरार है, वहीं वे एशियाई देशों से संपर्क रखने का सबसे बड़ा माध्यम हिंदी को ही मानते हैं। एक भारतीय कर्मचारी ने बताया कि भारतीय विद्यार्थियों की संख्या अधिक होने के चलते सड़कों पर हिन्दी आसानी से सुनाई देगी क्योंकि भारत से आते ही वे हमवतनों को खोजने लगते हैं। हिन्दी ही उनको आपस में जोड़ने का बेहतरीन माध्यम बन जाता है। डेनमार्क में अर्चना पैन्यूली हिन्दी की पहचान हैं। हां, यह बात और है कि इन्होंने हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद की परंपरा को बढ़ाया। डेनमार्क में डेनिश के कारण अन्य भाषाओं को इतना स्थान नहीं मिल पाता। भूमंडलीकरण के दौर में सब भाषाओं की बात होती है तो हिंदी को भी ज़ोरदार तरीके से पेश किया जाता है, पर चिंता की बात तो यह है कि भारतीयों का खुद अपनी भाषा के प्रति दुखद और उदासीन रवैया है। बुल्गारिया जैसे देश में हिन्दी का अपना एक स्थान है। विश्वविद्यालय के स्तर पर सोफ़िया विश्वविद्यालय में प्रो आनंद शर्मा ने हिन्दी विभाग संभाला है। सोफ़िया में मोना कौशिक का हिन्दी के प्रति प्रेम किसी से कम नहीं है।
नार्वे जैसे शांति प्रिय देश में किसी न किसी मोड़ पर हिन्दी सुनाई देना एक आम बात है। यह कहना है, नार्वे की एक द्विभाषिक पत्रिका स्पाइल-दर्पण के संपादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल जो शरद आलोक के नाम से लिखते हैं। 33 साल से लगातार हिंदी की पत्रिका चलाना अपनेआप में किसी तप से कम नहीं। कहना न होगा, कोविड महामारी के समय में उन्होंने विश्व का पहली हिन्दी काव्य संग्रह लिखा- लाकडाउन। एक ऐसा देश जिसे मध्यरात्रि तक सूरज रहने वाले देश के तौर पर जानते हैं, वहां एक हिन्दी पत्रिका स्वयं को स्थापित कर चुकी थी।
अड़ोसी-पड़ोसी- भारत के बाद पाकिस्तान में हिन्दी भाषा सबसे ज्यादा बोली जाती है। कारण स्पष्ट है कि उर्दू हिन्दी भाषा की ही एक शाखा है। अफ़गानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, चीन, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया आदि देशों में हिन्दी अपरिचित नहीं है। इन देशों में स्कूल व विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ भारत की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया। बाद में सरकार ने इस ऐतिहासिक दिन के महत्व को देखते हुए हर साल 14 सितंबर को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाने का फैसला किया। पहला आधिकारिक हिन्दी दिवस 14 सितंबर 1953 को मनाया गया था।
हिंदी की सरलता ऐसी है कि जैसी ध्वनि बोली जाए वैसी ही लिखी जाए। अंग्रेज़ी की तरह इसमें कुछ भी साइलेंट नहीं है। विदेशों में बसे इन भारतीयों को इस बात पर हैरानी है कि विदेश में जाकर लोगों के सामने हिन्दी बोलने में गुरेज़ क्यों? हिंदी के साथ होते अन्याय के कारण कहीं हम अपनी पहचान न खो दें, इसके लिए हमें सावधान रहना होगा, तब फ़िर किसी हिन्दी संघर्ष या हिन्दी दिवस को मनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
इस सबका एक दूसरा पहलू भी है, जो भारतीय लंबे समय से विदेशों में बस गए हैं, वे अपनी भारतीय पहचान को कायम रखने के लिए हिन्दी बोलते हैं या उन्हें सचमुच हिन्दी में दिलचस्पी है। अंग्रेजी यदि जीविका अर्जन का साधन है तो हिन्दी आत्मा और संस्कारों को निखारने का एक माध्यम। भारतीयों में संकुचित होती और विदेशों में हिन्दी के बढ़ते चलन को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी अपने स्वर्णिम काल की ओर अग्रसर हो रही है। अपने आस-पास से लेकर दूर-दूर तक के देश, काल, वातावरण को जानने-समझने की आकांक्षा, मनोभावों व विचारों की अभिव्यक्ति दूसरों को संप्रेषित करना, देशकाल, वातावरण की बदलती स्थितियों से तालमेल बिठाना भाषा इस्तेमाल करने वाले का सर्वोपरि धर्म है। अंत में, भाषा अभिव्यक्ति का एक कलात्मक माध्यम है और हिन्दी भाषा को विदेशों में विशेष स्थान दिलाने में प्रवासी भारतीयों का शुक्रिया अदा करना नहीं भूलना चाहिए। इनमें राष्ट्र्भाषा के प्रति मोह है जो एक सच्ची देशभक्ति है। यही लोग वसुधैव कुटुंबकम की भावना को साकार करेंगे और भारत को विश्वगुरू बनाने में सहायक होंगे। साथ ही विश्व पटल पर भारत की निखरती छवि भी हिन्दी को विश्व में स्थापित करने में अवश्य मील का पत्थर साबित होगी।