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अचानक से नींद टूट गई थी । सपना था कोई । सपने को याद करने की काफी कोशिश की पर याद नहीं आया । ये सपने भी अजीब होते हैं -यही सोच रहा था माधो । कुछ देर पहले तक ऎ.सी. कोच में निचली बर्थ पे मस्त चादर ताने सो रहा था पर अब नींद उड़ चुकी थी । कभी इस करवट लेटता कभी उस करवट । सपना तो याद नहीं आया पर ना जाने क्यूं ढेर सारी बातों की एक मूवी चल पड़ी थी और माधो काफी जद्दोजहद के बाद ये समझ चुका था कि फिलहाल नींद नहीं आयेगी ।
माधो का मन चंचल हो उठा था । कभी इधर भागता तो कभी उधर । फिर वो वहां पहुंचा जहाँ पे सबकी स्मृति ठहर जाती है । जहाँ की यादें सबके दिलों के सबसे करीब होती है । बचपन की ।
हाफ पैंट और मटमैला बुशर्ट पहने धूल उड़ाते मवेशियों को चरते जाते हुए देखना या फिर सब के साथ बस खेलते रहना । कभी पुरानी किताबों के ढेर से कोई कहानी की किताब ढूंढ निकालना और पढ़ना । कभी कटी पतंग के पीछे भागना, कभी गौरैया का पीछा करना । मछली पकड़ना, बेर तोड़ना, खेत के ट्यूबवेल पे नहाना । झोला लेके स्कूल जाना, बोरे पे बैठना और अंतिम घंटी बजने का इन्तज़ार करना । कुछ ऎसा ही था माधो का बचपन । ये सारी स्मृतियां जीवंत हो उठी थीं । माधो जो कुछ देर पहले तक सोने की कोशिश कर रहा था अब आराम से कम्बल के अन्दर लेते हुए अपने बाल-काल में विचरण कर रहा था । वो मुस्कुराते हुए सोच रहा था कि इतने सालों के बाद भी ऐसा क्यूं लग रहा है मानो ये कल की बात हो । शायद इसलिए कि ये यादें सबसे सुनहरी थीं या शायद सबसे करीब । या शायद बचपन होता ही ऐसा हो ।
एक रेलवे स्टेशन भी था माधो के गाँव में । जमुनापुर । यादों की ट्रेन अब बरबस उसी स्टेशन पे पहुँच चुकी थी । ट्रेन का आना जाना, उतरने चढ़ने की लड़ाई, भाई चारा और हमेशा चहल पहल । स्टेशन पे एक बुक स्टाल भी था जहाँ खड़े खड़े नंदन और चम्पक जैसी पत्रिकाएं पढता था माधो । खड़े खड़े इसलिए कि बुक स्टाल वाले अंकल से जान पहचान थी और वो इस प्रकार पढ़ने के पैसे नहीं लेता था । ट्रेन देखना बड़ा अच्छा लगता था माधो को । अक्सर बुक स्टाल के सामने एक अलग कोच लगती थी जिसके खिड़की दरवाजे बंद होते थे । कुछ खिड़कियों में पर्दे भी लगे होते थे । जिज्ञासु हो माधो ने बुक स्टाल वाले अंकल से पूछा तो पता चला – ये ऎ.सी. कोच है । ये भी पता चला कि इसमें गर्मी के दिनों में अंदर ठंढ होती है और ठंढी में गर्मी । इसका टिकट काफी महंगा होता है । माधो की आँखें चौड़ी हो गयी थी और वो बड़े ध्यान से सुन रहा था । इतने देर में एक ट्रेन आके जा चुकी थी और एक और ट्रेन के आने की खबर हो चुकी थी । कुछ देर में ट्रेन आई और एक ऎसी कोच ठीक बुक स्टाल के सामने रुक गयी । माधो करीब से देखना चाहता था ऎ.सी. कोच को । दूर से कुछ बच्चे खेलते दिख रहे थे । उत्सुक होके माधो खिड़की, जो बंद लेकिन पारदर्शी थी, के बिलकुल पास पहुँच गया । दो सोने के छोटे बिस्तरों के किनारे छोटा सा टेबल था जिसपे कुछ खेल चल रहा था । माधो कभी उन बच्चों को देखता, कभी उनके पहनावे को । खेल को समझने की कोशिश ही कर रहा था कि एक बड़े आदमी ने दाँते भींचें गुस्से से आँखें दिखाई और धप्प से पर्दा खींच दिया । माधो चिहुंक गया । अंदर तक काँप गया । ट्रेन ने भी सीटी बजा दी थी ।
ट्रेन अब भी आती जातीं । ऎ.सी. कोच अक्सर बुक स्टाल के सामने ही रूकती । लेकिन अब माधो उनके पास नहीं जाता था । खिड़की से झाँकने की कोशिश नहीँ करता था । माधो समझने लगा था कि खिड़की के बाहर प्लेटफॉर्म पे खड़े माधो और ऎ.सी. कोच में बैठे लोगों की दुनिया काफी अलग है । वो सोचने लगा था कि 'मैं' और 'उन' के बीच एक गहरी खाई है जिसे पाटा नहीं जा सकता । उस आदमी के दांते भींचने, आँखे दिखाने और धप्प से पर्दा खींचने का काफी गहरा असर पड़ा था माधो के कोमल मन पे । अक्सर जब वो आँगन में तारों से भरे आसमान के नीचे सोता, ये बातें उसके मन में घूमती । ऎसी कोच के अन्दर की दुनिया को बड़ा निष्ठुर मानने लगा था माधो । माधो जलता भी था उनसे । कुंठा की भावना घर कर रही थी माधो के मन में ।
काफी साल बीत चुके थे । माधो ने पिछले साल यू पी एस सी (UPSC) की परीक्षा पास कर ली थी । अब माधो एक सिविल सर्वेंट था और पहली बार ट्रेनिंग अकादमी से घर जा रहा था । ऎ.सी. कोच में । ऎसी कोच के खिडक़ी से अंदर ताकने वाले माधो की ऎसी कोच के अंदर कम्बल ताने सोने तक की यात्रा बड़ी उतार चढाव भरी रही थी । काफी कठिन परिश्थितियों का सामना करना पड़ा था माधो को । लेकिन माधो के माता पिता ने उसे बड़े सपने देखने की हिम्मत दिलाई थी और माधो जी जान से उस सपने के पीछे भागने लगा था । और पहले ही प्रयास में वो अपने सपने को पकड़ने में सफल हो गया था ।
सपने सच में अजीब होते हैं ना -अन्तर्मन् से बात चीत चल रही थी माधो की ।
माधो ने अपनी कलाई देखी । नींद टूटे हुए तीन घंटे से ज्यादा हो चुके थे । माधो अब अपने बचपन की नज़र से खुद को देख रहा था और नजरें मिलाने की हिम्मत नहीँ कर पा रहा था । ऎ.सी. कोच में घुटन होने लगी थी ।
सुबह के पांच बजने को थे । माधो उठ के दरवाजे की तरफ गया और उसे खोला । चेहरे पे पड़ते सुबह के ताजी हवा के थपेड़े ने व्याकुल मन को थोड़ी राहत पहुँचायी । ट्रेन धीमी हो रही थी, कोई स्टेशन आ रहा था । थोड़ी देर में मन्नतपुर स्टेशन आ गया । छोटा सा स्टेशन – जमुनापुर की तरह ।
माधो दरवाजे पे खड़ा मन्नतपुर का निरीक्षण कर रहा था तभी उसकी नज़र एक बच्चे पे पड़ी । वो दूर खड़ा ऎ.सी. कोच की तरफ देख रहा था । दोनों की नज़रें टकरा गयीं । माधो अंदर तक काँप गया, ठीक उसी तरह जैसे उस बड़े आदमी के दांते भींचे गुस्से से धप्प से पर्दा खींचने पे हुआ था ।
उस बच्चे की आँखों में वही भाव दिख रहे थे जो बुक स्टाल पे खड़े ऎ.सी. कोच में झाँकने वाले माधो की आँखों में हुआ करते थे । इस कल्पना मात्र से कि वो बच्चा वही सोच रहा है जो माधो ने कभी सोचा था, माधो जड़ हुआ जा रहा था । वही निष्ठुरता का भाव । वही इधर और उधर की दुनिया का अन्तर । इस पार और उस पार के बीच की गहरी खाई । वही कुंठा, वही जलन का भाव ।
अब सर काफी तेज दुखने लगा था माधो का। एक भयंकर अंतर्द्वंद चल रहा था ।
माधो तेजी से अपने सीट पे गया, अपना सामान निकाला और ऎसी कोच से उतर गया । जनरल कोच में थोड़े धक्का मुक्की के बाद आधे सीट पे बैठा था माधो । चेहरे को हलकी सी मुस्कान मिल गई थी और अन्तर्मन् को अंतर्द्वंद से मुक्त्ति ।