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23 मई के बाद नई भूमिका में होगें मोदी-राहुल, किसको मिलेगा क्या? पढिये जरुर
मोदी कैबिनेट के चेहरे रविशंकर प्रसाद को पटना एयरपोर्ट पर काले झडे दिखा दिये जाते है। झंडे दिखाने वाले बीजेपी के ही राज्यसभा सदस्य आर को सिन्हा के समर्थक थे। मोदी कैबिनेट के सबसे बडबोले मंत्री गिरिराज सिंह का टिकट नवादा से कट जाता है और गिरिराज इसके लिये बिहार प्रदेश के अध्यक्ष नित्यानंद राय को कटघरे में खडा करते है। शत्रुध्न सिन्हा खुल्लमखुला मोदी के खिलाफ खामोश कहकर काग्रेस का रास्ता पकडते है और लालकृष्ण आडवाणी को बतौर फिलोस्फर गाईड के तौर पर याद करते है। आडवाणी टिकट ना मिलने पर किसी के ना पूछने तक का जिक्र कर चुप हो जाते है । मुरली मनोहर जोशी तो खुल तौर पर रामलाल की टिकट ना मिलने की ना का सार्वजनिक बयान कर देते है। उमा भारती अनमने ढंग से चुनाव ना लडने का जिक्र कर देती है। सुषमा स्वराज जब से बिगडी तबियत का जिक्र कर चुनाव ना लडने का एलान करती है तभी से बतौर विदेश मंत्री उनकी सक्रियता बढती नजर आती है। छत्तिसगढ के पूर्व सीएम रमन सिंह के बेटे को भी टिकट नहीं दिया जाता। और राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की टिकट बंटवारे में कोई बात सुनी ही नहीं जाती। तो मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के आगे पारपंरिक सीट छोड काग्रेस के दिग्विजय के सामने भोपाल से लडने की चुनौती है। तो क्या बीजेपी जो उपर से दिखायी दे रही है वह अंदर से बिलकुल अलग है। यानी चेहरो में बिखरी बीजेपी में संगठन संभले कैसे या फिर मोदी-शाह के खेल में बीजेपी को जीत मिले लेकिन जीतने वाले बिना आधार के नेता ही रहे जिससे कोई चुनौती ना बने। यानी बीजेपी के भीतर की चौसर कुछ ऐसी बिछ चुकी है जिसमें बीजेपी का संगठन चेहरो में बंटा हुआ है।अनुशासनहीनता के हालात कार्रवाई करने की इजाजत नहीं दे रहे है। कद और अनुभव को मान्यता देना कही नहीं है। और इन हालातो के बीच बिहार में नीतिश का कद। महाराष्ट्र में उद्दव का कद। यूपी में छोटे दलो की हैसियत। और बिना कद वाले विरोधियो का बीजेपी में शामिल होने पर जश्न मनाकर जीत का राह बन रही है ये सोच हावी हो चली है।
बीजेपी के इस अंदाज के सामानातंर काग्रेस क्षत्रपो के अंतर्विरोधो को ढाल बनाकर अपनी सौदेबाजी का दायरा बढाने से नहीं चुक रही है। बिहार में महागठंबधन की चौसर पर काग्रेस का पासा पप्पू यादव है जिससे आरजेडी के यादव को काउंटर किया जा सकता है तो फिर यूपी में भीम आर्मी के चन्द्रशेखर के जरीये गठबंधन में मायावती को। बंगाल में ममता बर्दाश्त नहीं है तो आध्र में चन्द्रबाबू नायडू। और दिल्ली में केजरीवाल की जमीन को नकारना भी मुश्किल है लेकिन भविषय की जमीन को बनाने के लिये केजरीवाल की जमीन को नकारना भी जरुरी है।
यानी बीजेपी-काग्रेस की चौसर पर फेकें जा रहे पांसे साफ दिखायी दे रहे है। मोदी शाह की जोडी 23 मई के बाद त्रिशुकं जनादेश के हालात में बीजेपी के भीतर खुद को नकारे जाने के लिये तैयार नहीं है । तो अभी से बीजेपी के उम्मीदवारो की लिस्ट के जरीये बीजेपी की घेराबंदी की जा रही है। जिससे कोई सर उठा ना सके। तो काग्रेस त्रिशंकु जनादेश के हालात में विपक्ष में सबसे बडी ताकत के साथ खडे होने की तैयारी में है तो गठबंधन की सोच तले अकेले ल़डते हुये ज्यादा से ज्यादा सीटो पर लडने के हालात बना ही है। और ये दोनो रास्ते साफ बता रहे है कि 2014 की मोटी लकीर 2019 में इतनी महीन हो चुकी है जहा इस या उस पार के हालात चुनावी जनादेश तले रेगने लगे है । तभी तो चुनाव आयोग नीति आयोग के चैयरमैन राजीव कुमार को राहुल के न्यूनतम आय पर टिप्पणी करने को सही नहीं मान रहा है । खुद प्रधानमंत्री को ' मिशन शक्ति ' का सहारा लेकर सुर्खियो बनानी पड रही है। राहुल गांधी चौकीदार के लोकप्रिय अंदाज के साथ गरीबो को 72 हजार सालाना का ऐसा गंभीर इक्नामिक माडल रखने से नहीं चूक रहे जहा कारपोरेट के साथ दिखने वाली पारपंरिक काग्रेस की रंगत ही बदल जाये। और समाजवादी-वामपंथी विचारधारा का लेप काग्रेस खुद पर लगाकर उस बीजेपी से भी कई कदम आगे निकल पडी है जो बीजेपी कभी स्वदेशी या देसी इकनामी की बात करी थी।
यानी सियासत की महीन लकीर में मोदी-शाह ने अपने लिये इतनी मोटी लकीर खिंच ली है कि वह नेहरु गांधी परिवार की ताकत से ज्यादा बडी ताकत लये खुद को बीजेपी में जमा चुके है। और राहुल गांधी खुद में काग्रेस समेटे सामूहिकता का ऐसा औरा बना रहे है जहा काग्रेस अब क्षत्रपो के सामने झोली पसारने की जगह अपनी झोली में क्षत्रपो के वोटो को समेटने की स्थिति में आ जाये। यानी चुनावी शह मात का ये खेल पहली बार मोदी और राहुल को एक ऐसे चक्रव्यू में खडा कर चुका है जिसमे बाहर वही निकलेगा जो त्रिशकु जनादेश को अपने पक्ष में गढने का हुनर जानता होगा।