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वायु प्रदूषण की निगरानी व्यवस्था हो बेहतर: मिस इंडिया 2020 मान्या सिंह
उत्तर प्रदेश की 99 प्रतिशत से ज्यादा आबादी प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है और उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि प्रदेश में इस खतरे की वास्तविकता के सही आकलन के लिये पर्याप्त निगरानी केन्द्रों का अभाव है। इस गम्भीर मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए फेमिना मिस इंडिया (रनर अप) मान्या सिंह कहती हैं, "जिसे मेज़र या नापा जा सकता है, उसी को मैनिज किया जा सकता है। इसलिए ये बेहद ज़रूरी है कि हमारे प्रदेश में वायु प्रदूषण की मोनिटरिंग बढ़े।"
कुछ ऐसा ही कहना था पद्मश्री पर्वतारोही डॉ अरुणिमा सिन्हा का, जिन्होंने उत्तर प्रदेश की वायु गुणवत्ता पर क्लाइमेट ट्रेंड्स नामक संस्था द्वारा आयोजित एक वेबिनर में कहा, "साफ़ हवा की एहमियत मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है? जब एवेरेस्ट पर चढ़ रही थी तब ऑक्सीजन की कमी बड़े अच्छे से खसूस की थी मैंने और आज अपने प्रदेश में वायु प्रदूषण के इन स्तरों से बेहद आहत हूँ मैं। मुझे तो पहाड़ की ऊँचाइयाँ ही पसन्द आती हैं क्योंकि कम से कम वहां साफ़ हवा और नीला आसमान तो दिखता है।"
इस वेबिनार में क्लाइमेट ट्रेंड्स ने एक रिपोर्ट भी जारी की जिसमें यह दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश की 99 प्रतिशत से ज्यादा आबादी प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है और उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि प्रदेश में इस खतरे की वास्तविकता के सही आकलन के लिये निगरानी केन्द्रों की संख्या बीते सालों में बढ़ी तो है, लेकिन अब भी पर्याप्त निगरानी केन्द्रों का अभाव है। विशेषज्ञों का मानना है कि अब सरकार से ज्यादा इसे आम लोगों का मुद्दा बनाने की जरूरत है ताकि वे वायु प्रदूषण रूपी अदृश्य कातिल से निपट सकें।
क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा उत्तर प्रदेश में वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर मंगलवार को आयोजित वेबिनार में प्रस्तुत रिपोर्ट के मुताबिक सिंधु-गंगा के मैदान हवा के लिहाज से देश के सबसे ज्यादा प्रदूषित क्षेत्र हैं। इस विशाल भूभाग के हृदय स्थल यानी उत्तर प्रदेश की 99.4% आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां वायु प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से ज्यादा है।
अध्ययन में सुझाव दिये गये हैं कि उत्तर प्रदेश में हवा की गुणवत्ता पर निगरानी के नेटवर्क को किफायती, सेंसर आधारित तथा रेगुलेटरी ग्रेड मॉनिटर्स की मदद से जल्द से जल्द विस्तार देना होगा, क्योंकि वायु प्रदूषण क्षेत्रीय होने के साथ-साथ अत्यंत स्थानीय समस्या भी है, ऐसे में इस पर सघन निगरानी बहुत जरूरी है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए प्रमाण आधारित पद्धतियों को अपनाने के वास्ते संदर्भ निगरानी केंद्रों के साथ कम कीमत वाले मॉनिटर जैसी किफायती प्रौद्योगिकियों को जोड़कर स्थापित किया जाना चाहिए।
निगरानी केंद्रों की स्थापना के लिए उपयुक्त स्थान खोजना एक कवायद है जिसे वैज्ञानिक समझ के माध्यम से मुकम्मल किया जाना चाहिए। निगरानी केंद्रों की स्थापना इस बात को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए कि कहां पर सबसे ज्यादा लोग रहते हैं। वे किस प्रकार के प्रदूषण के संपर्क में हैं और रोजाना सतर्क करने की प्रणाली की कितनी जरूरत है। निगरानी केंद्रों की स्थापना करने से पहले वायु प्रदूषण के हॉटस्पॉट्स पर गौर करना चाहिए।
रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गयी है कि जन स्वास्थ्य के हित में किसी सुनिश्चित बिंदु पर एक्यूआई की गंभीरता के आधार पर प्रदूषण के स्रोतों के नियमन को शीर्ष प्राथमिकता दी जानी चाहिए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों के पास किसी भी प्रदूषणकारी तत्व के संघनन का कोई रिकॉर्ड नहीं होता लेकिन वहां रहने वाले लोग पार्टिकुलेट मैटर तथा अन्य प्रदूषणकारी तत्वों के उच्च स्तर के संपर्क में होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के लिए जलाने वाली लकड़ी और कोयले पर निर्भर होते हैं। उत्तर प्रदेश का वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क शहरों के साथ-साथ गांवों में भी फैलाया जाना चाहिए ताकि वहां भी वायु की गुणवत्ता सुधर सके।
वेबिनार में विशेषज्ञों ने माना कि गंदी हवा ऐसी बीमारियों के रूप में सामने आ रही है जिनका सम्बन्ध आमतौर पर वायु प्रदूषण से नहीं जोड़ा जाता। अब लोगों को इस दिशा में जागरूक करने की जरूरत है ताकि वे इसकी गम्भीरता को समझें और वायु प्रदूषण को कम करने के लिये अपने स्तर से प्रयास करें।
लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर सूर्यकांत ने वेबिनार में कहा कि हमारे फेफड़े ही वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले अंग हैं। वायु प्रदूषण को लेकर पिछले पांच साल से सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण वाले नगरों को लेकर प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों में भारत के शहर शीर्ष पर आते रहे हैं। यह शर्मनाक है। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर शहर टॉप टेन में होते हैं। इस राज्य के करीब 7 शहर ऐसे हैं जो वायु प्रदूषण के उच्च स्तरों के मामले में हमेशा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करते हैं।
उन्होंने बताया कि एक डॉक्टर के रूप में हम वायु प्रदूषण के मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को करीब से देखते हैं। शरीर का कोई भी अंग और तंत्र ऐसा नहीं है जो वायु प्रदूषण से प्रभावित ना होता हो। जो लोग खराब हवा के ज्यादा संपर्क में होते हैं उनमें कोविड-19 का खतरा भी ज्यादा होता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण की वजह से लखनऊ में 10.3 साल लाइफ एक्सपेक्टेंसी कम हो गयी है। पूरी दुनिया में हर साल 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के विभिन्न प्रभावों के कारण मर जाते हैं। वायु प्रदूषण इतना खतरनाक है कि उसके प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चे तक पर पड़ते हैं और इंट्रायूटराइन डेथ होने की संभावना ज्यादा रहती है। वायु प्रदूषण के कारण डायबिटीज होने का खतरा भी रहता है।
डॉक्टर सूर्यकांत ने बताया कि दुनिया में वायु प्रदूषण के 55% हिस्से के लिये वाहनों से निकलने वाला धुआं जिम्मेदार है। एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब पांच करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। जब वे बीड़ी या सिगरेट पीते हैं तो उसका 30% धुआं ही उनके फेफड़ों में जाता है और बाकी 70% धुआं वातावरण में घुल जाता है। अब भी बहुत बड़ी संख्या में लोग ऐसे हैं जो लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं। घर में वायु प्रदूषण का यह भी एक बहुत बड़ा कारण है। यह बहुत बड़ी समस्या है और पूरी दुनिया में अगर विश्लेषण करें तो बाहर के वायु प्रदूषण के मुकाबले घरेलू वायु प्रदूषण के कारण ज्यादा संख्या में लोग बीमार हो रहे हैं। घरेलू वायु प्रदूषण का भी सर्वे होना चाहिए और इस पर नियंत्रण के लिये विशेष अभियान चलाया जाना चाहिये।
आगे, एम्स रायबरेली के जेरियाट्रिक मेडिसिन विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉक्टर अनिरुद्ध मुखर्जी ने वायु प्रदूषण के कारण बुजुर्गों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में कहा कि बुजुर्ग लोग युवाओं से अलग होते हैं। उनके शरीर की प्रतिक्रिया युवाओं से बिल्कुल अलग होती है। प्रदूषण को लेकर के भी उनका शरीर इसी तरह से प्रतिक्रिया देता है। उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और प्रदूषण के प्रभावों से लड़ने की ताकत भी बहुत कम हो जाती है। इसके अलावा वे विभिन्न बीमारियों जैसे कि डायबिटीज और हाइपरटेंशन से जूझ रहे होते हैं, नतीजतन अलग-अलग दवाओं का भी उन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में हमें उन्हें मास्क लगाकर ही बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। दरअसल, वायु प्रदूषण एक एक्सीलरेटर का काम करता है। जो बीमारी पहले 75 साल में होती थी वह अब 30-35 साल की उम्र में हो रही है।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियर विभाग के अध्यक्ष और नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की स्टीयरिंग कमेटी के सदस्य प्रोफेसर एसएन त्रिपाठी ने कहा कि जब तक लोग जागरूक नहीं होंगे तब तक कोई सरकार, वैज्ञानिक और थिंक टैंक वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं कर सकता। वायु प्रदूषण की निगरानी बहुत जरूरी है। इसे किसी भी तरह से कम नहीं आंक सकते। हमें अधिक घना मॉनिटरिंग नेटवर्क बनाना होगा।
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में वायु प्रदूषण का पिछले एक दशक में क्या रुख रहा है, इसके बारे में हम कुछ भी विश्वास से नहीं कह सकते, क्योंकि ज्यादातर निगरानी केन्द्र वर्ष 2017 के बाद लगे हैं लेकिन एक बात बिल्कुल जाहिर है कि उत्तर प्रदेश का ज्यादातर हिस्सा वायु प्रदूषण की सुरक्षित सीमा से ज्यादा के स्तरों से जूझ रहा है। प्रदेश सरकार के पास कुछ योजनाएं हैं। अगर आपके पास सही और लक्षित योजनाएं हैं तो आप कुछ ना कुछ जरूर हासिल कर सकते हैं।
अपनी बात रखते हुए मिस इंडिया प्रतियोगिता-2020 की उपविजेता मान्या सिंह ने वेबिनार में कहा कि वायु प्रदूषण एक खामोश शिकारी है। इससे निपटने लिये अब कमर कसने का वक्त आ गया है। हमें सभी लोगों को इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल के प्रति जागरूक करना चाहिए। लोगों को बताना चाहिए कि पेट्रोल डीजल की गाड़ियों का इस्तेमाल बंद करके आप धन के साथ-साथ लोगों की जान भी बचा सकते हैं। हमें स्वार्थी नहीं होना चाहिए। हमें दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। हमें खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में जागरूकता पैदा करनी होगी, क्योंकि वहां के लोग इस खतरे से सबसे ज्यादा अनजान हैं। उनके पास ज्यादा जानकारियां नहीं होती और ना ही वह प्रदूषण की समस्या की गंभीरता को समझ पा रहे हैं। हम सब कुछ सरकार पर नहीं छोड़ सकते। एक नागरिक होने के नाते भी हमारी अपनी जिम्मेदारियां हैं।
एक कृत्रिम पैर के सहारे एवरेस्ट पर चढ़ने वाली दुनिया की पहली महिला पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा ने अपने इस अभियान का अनुभव साझा करते हुए कहा ''सांसों की कीमत तो कोई मुझसे पूछे। मैंने ऐसे पल भी देखे हैं जब मैं बिल्कुल भी सांस नहीं ले पा रही थी, तब मुझे साफ हवा की कीमत पता चल रही थी, जिसका एहसास इस वक्त लोगों को नहीं हो पा रहा है। पूरे भारत की बात करते हैं तो अभी लोगों को साफ हवा की कीमत नहीं समझ में आ रही है। वाकई अब जरूरत आ गई है कि सभी युवाओं को साथ लेकर इस काम पर आगे बढ़े। वायु प्रदूषण के कारण होने वाले गम्भीर नुकसानों के बारे में शिक्षण संस्थाओं और हर गांव में जाकर लोगों को बताने की जरूरत है। वायु प्रदूषण के गहराते असर के बारे में युवाओं को बताने की जरूरत है क्योंकि आने वाला कल उन्हें ही जीना है। अगर हालात नहीं सम्भले तो वे ही वायु प्रदूषण के गम्भीरतम स्वरूप को देखेंगे।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि यह अपने आप में बहुत चिंताजनक बात है कि हम वायु प्रदूषण को लेकर उतने संजीदा ही नहीं हैं, जितना कि हमें होना चाहिये। जानलेवा मुसीबत हमारे दरवाजे तक पहुंच चुकी है और तरह-तरह से अपनी मौजूदगी का संकेत भी दे रही है, मगर सरकार और आम जनता के रूप में हम नजरें फेरकर बैठे हैं। वायु गुणवत्ता निगरानी केन्द्रों के नेटवर्क को मजबूत और दक्षतापूर्ण बनाने के प्रति हमारी उदासीनता और प्रदूषण को लेकर हमारी लापरवाही बारूद के ढेर पर बैठकर आग से खेलने जैसी है।
सीएसआईआर- भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान के चीफ साइंटिस्ट डॉक्टर जी एस किस्कू ने कहा कि हम 1980 से ही वायु प्रदूषण पर काम कर रहे हैं। संस्थान ने हाल ही में असेसमेंट ऑफ एंबिएंट एयर क्वालिटी ऑफ़ लखनऊ सिटी- प्री मॉनसून 2021 शीर्षक से एक रिपोर्ट पेश की है। इस रिपोर्ट में उन सभी कारणों का जिक्र एक ही स्थान पर करने की कोशिश की है जिनके कारण वायु प्रदूषण फैलता है और इसके कारण आने वाले समय में कौन-कौन से नतीजे भुगतने पड़ेंगे।
गौरतलब है कि लखनऊ में वायु गुणवत्ता पर निगरानी का स्तर बहुत कम है। इस वजह से लोगों को पता ही नहीं चलता है कि वायु प्रदूषण कोई बहुत बड़ी समस्या है। यह लखनऊ की ही नहीं बल्कि हर शहर की बात है। आम जनता वायु प्रदूषण के बारे में बहुत ज्यादा संजीदा नहीं है और शायद इसलिए, क्योंकि उसमें एहसास की कमी है। हर आदमी यह महसूस करे कि वायु प्रदूषण की वजह से उसे क्या नुकसान हो रहा है। जब यह एहसास होगा तो एक चिंताजनक तस्वीर उभरेगी और शायद तभी हम उसकी रोकथाम के लिए कदम उठाएंगे। हमें ऐसे उपाय अपनाने होंगे कि आम व्यक्ति इस बात को महसूस कर सके कि वायु प्रदूषण हमारी जिंदगी और भावी पीढ़ियों से जुड़ा कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है।