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अनिल शुक्ला
अमरसिंह के गुज़र जाने पर हिंदी के राष्ट्रीय स्तर पर जाने गए पत्रकारों से लेकर जिला स्तर तक के पत्रकारों की टिप्पणियों को पढ़ना ख़ासा दिलचस्प अनुभव था। वीरेंद्र सेंगर और शकील अख़्तर और कुछेक इक्का-दुक्का पत्रकारों को छोड़कर ज़्यादातर भाई लोगों (जो उनसे गाहे-बगाहे उपकृत हुए वे सभी और जो नहीं हुए वे भी) ने उनके जाने का शोक मनाया। जो अमरसिंह के दस-बीस, लाख-पचास हज़ार खाकर अहसानों के बोझ तले दब कर शोक मानते हैं उनका शोकाकुल होना 'जस्टिफ़ाई है। ताज्जुब उनका होता है जो बिना कुछ लिए-दिए ही रुदाली गायन करते हैं। अमरसिंह भी (जिन्होंने बिना लिए-दिए ढेले भर भी किसी के लिए कुछ नहीं किया, ऊपर से (या नीचे नीचे से,जहाँ भी वह गए होंगे) उन्हें देखकर सोचते होंगे कि 'ये ससुरे क्यों आंसू बहा रहे हैं?' (क्योंकि अमरसिंह ने बिना फ़ायदे के कभी कुछ नहीं किया) ऐसे लिजलिजे और रुदाले व्यक्तित्व (पैदा नहीं हुए वरना) इस तरह का शोक बापू के जाने का भी मना सकते थे और हिटलर के जाने का भी।
वीरेंद्र सेंगर पैदायशी शालीन पत्रकार हैं। कई बार तो यह बूझना मुश्किल हो जाता है कि शालीनता उनमें भरी है या वह शालीनता में भरे गए हैं। बहरहाल उन्होंने अमर सिंह की हँसते-मुस्कराते टांग भी खींची है तो चलते-चलते उनके कुछ-कुछ निहायत घटिया चाल चरित्र का महिमामंडन भी कर दिया है। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप 'मुझे ग़लत न समझना' की हाइपोथीसिस वाले सेंगर जी अमर सिंह के 'बाबूजी' को भी कहीं से ढूंढ लाये और उनका बेख़ौफ़ महिमामंडन कर डाला है। शक़ील ने अलबत्ता अपनी 4 लाइन की टिप्पणी में जूता भिगोकर अमरसिंह का वैसा ही 'जूतामंडन' किया है जैसा कि वह 'डिज़र्व' करते थे।
अमरसिंह नब्बे के दशक के भारतीय समाज की ख़ास पैदायश थे। उन्हें नब्बे के दशक में ही पैदा होना था, उससे पहले नहीं। सवाल यह है कि वह नब्बे के दशक की शुरुआत में ही क्यों नमूदार हुए? भारतीय राजनीति को भारतीय कॉरपोरेट से और भारतीय कॉरपोरेट को भारतीय राजनीति से कनेक्ट करवाने वाले वह ऐसे शख़्स थे जिन्हें अपनी कॉर्पोरेटाई नंगई और राजनीतिक बेशर्मी पर न तो कभी शर्म आई और न उन्होंने 'कपडे पहनने' की कोई ज़रुरत ही समझी। सवाल उठता है कि इस प्रकार की 'नंगई' और इस क़िस्म की 'बेशर्मी' का सूत्रपात नब्बे के दशक में ही क्यों हुआ, इससे पहले क्यों नहीं?
भारतीय राजनीति और कॉरपोरेट का याराना कोई नई बात नहीं। यह आज़ादी के पहले से ही स्थापित था और आज़ादी के बाद तक बना रहा। गांधी अकेले अपवाद हैं जिन्होंने बिड़ला परिवार के साथ अपनी आत्मीयता को कभी किसी से छिपाया नहीं क्योंकि उन्होंने निजी कारणों के लिए बिड़ला का कोई उपयोग नहीं किया था। आज़ादी के बाद के लम्बे दौर में राजनेता और पूँजीपति 'अपने-अपने ऊँट निहुरे-निहुरे चराते रहे थे। मंत्री और प्रधानमंत्री अंदरखाने से पूंजीपतियों के हित में 'आर्डर' पास करते रहे और पूंजीपति बाएं हाथ से उनके यहां लक्ष्मी भिजवाते रहे। विपक्ष के नेता भी कोई धुले-पुँछे नहीं थे। विधानसभाओँ में पेश होने वाले 'अविश्वास प्रस्ताव' कैसे और किसके कहने पर 'विश्वास प्रस्ताव' में तब्दील हो जाते थे, इसे आम नागरिक भले ही न जान पाए लेकिन सियासत वाले और सियासत को 'कवर' करने वाले पत्रकार बख़ूबी जानते रहे हैं।
नई पीढ़ी को इस बात की बेशक समझ न हो लेकिन हम लोगों की या हमसे पहले की पीढ़ी को खूब याद है कि 'कॉरपोरेट' के साथ पॉलिटीशियन की यारी कभी खुल कर नहीं की गयी। समाज में (यानि वोटर की निगाह में) इसे 'अच्छी' नज़रों से नहीं देखा जाता था। अस्सी के दशक में पोल खुल जाने पर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी मुंह ढक के घूमते रहे और उधर धीरूभाई अम्बानी के 'रिलायंस' का 'पीआर' डिपार्टमेंट अपनी सफाईयाँ पेश करता रहा था।
90 के दशक के 'उदारीकरण' गान ने लेकिन पूंजीपतियों और पूंजीवाद के खुले महिमामंडन को सामाजिक स्वीकृति दिलाने का अभियान छेड़ दिया। समाज और राजनीती-दोनों में पूंजीवाद अपना 'खुला खेल फ़र्रुखाबादी' खेलने लगा। पूंजीवाद के लिए चाशनी में लिप्त 'कॉरपोरेट' शब्द आ गया और दलाली 'लायज़ाँ' कहलाने लगी। जब सब कुछ नंगा हो गया तो पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमने वाले छुटभैये दलाल भी गले में खुले आम दलाली का बिल्ला लटकाये घूमने लगे और पत्रकारिता में छुप-छुप कर दलाली करने वाले बड़े गर्व से किसी ख़ास उद्योग समूह के हितों की 'प्रेस विज्ञप्तियों' को बेशर्मी से 'स्टोरी' बताकर छापने लग गए। सम्पादक के ज़्यादातर पदों पर 'जनसम्पर्क अधिकारियों' का क़ब्ज़ा हो गया। ये जनसम्पर्क अधिकारी अपने मालिकानों की राजनेताओं से ट्यूनिंग करवाते और धीमें से दूसरे पूंजीपतियों की दलाली-बट्टा भी कर डालते। इनमें से कई दलाल लोक सभा और राज्य सभा के 'माननीय' भी बन गए। कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक इनकी लाइन खासी लम्बी है। कुछ आगे चलकर इतने 'कद्दावर' हो गए कि मंत्रियों के पदों की बंदरबांट में भी हिस्सेदारी करवाने लगे। यूपीए-2 के दौर में संचार मंत्री ए राजा का 3 जी घोटाला 'एक्सपोज़' होने पर जिस तरह नीरा राडिया की 'लायज़ाँ' कम्पनी और नामचीन पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसों के नाम जगज़ाहिर हुए, उसे न्यायपालिका भले ही विस्मृत कर दे, लोग अभी नहीं भूले है।
नब्बे के दशक की दलाली की ऐसी ही पावन बेला में अमरसिंह का जन्म होता है। तेज़ आदमी था। पूंजीपति 'मोदी' के यहाँ से शुरू करके बड़ी जल्दी 'बिड़लाज़' के भीतर तक पहुँच गया। माधवराव सिंधिया की 'चपरास' में कांग्रेस की 'एआईसीसी' का मेंबर हो गया। मैंने सबसे पहले अमरसिंह को माधवराव सिंधिया के यहाँ ही देखा। 'बाबरी मस्जिद विध्वंस' के तत्काल बाद हम पत्रकारों का समूह दिल्ली के सामाजिक-राजनीतिक लोगों से 'विरोध प्रदर्शित' करने के आह्वान को लेकर मिल रहा था। मैं, जावेद (रायटर), आनंदस्वरूप वर्मा सहित कोई दर्जन भर लोग इस प्रतिनिधिमंडल में थे। इसी प्रक्रिया में जब हम माधवराव सिंधिया के यहां पहुंचे तो उनके रेज़िडेंस वाले ऑफिस में उनकी कुर्सी के पीछे 'अर्दली' की मुद्रा में जो शख्स बिलकुल चुपचाप खड़ा था, जावेद उसको जानते थे। बाद में जावेद ने बताया कि वह बिड़लाज़ का पीआर वाला अमर सिंह है। कुछ दिनों बाद मैंने उसे सूरजकुंड में हुए 'एआईसीसी' के सेशन में भी कुछ कांग्रेस के कुछेक शीर्ष नेताओं की लल्लो-चप्पो करते देखा। उसी के बाद नई एआईसीसी' गठित किये जाने की एक लंबी सूची हम पत्रकारों को दी गयी, भाई का नाम उसमें मौजूद था।
वह कब और कैसे मुलायमसिंह यादव के चरणों में जा बैठा, पता नहीं अलबत्ता अमरसिंह के मुलायम सिंह यादव के सिर पर चढ़ कर मूतने की कहानी सबको मालूम है। मुलायमसिंह यादव के व्यक्तित्व की ट्रजेडी यह रही कि उन्हें कभी अंदाज़ ही नहीं हुआ कि उनका क़द कितना बड़ा हो सकता है। वह 'सैफई नरेश' बन जाने को ही अपना चरम मानने लग गए थे और तभी मुझे समाजवादी पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव की इस बात में सच्चाई नज़र आने लगी थी कि 'एक बार अमरसिंह ने उनको कहीं से 2 सौ करोड़ रुपये का चन्दा दिलवा दिया और 'नेताजी' उसी में हमेशा के लिया चित्त-पट्ट हो गए।'
अमरसिंह का ऐसा जलवा-जलाल भी लोगों को मालूम है कि रात के एक बजे श्रीमान ने दिल्ली में अपने टाइपिस्ट को घर से बुलवाया, समजवादी पार्टी के लेटर हेड पर पार्टी अध्यक्ष की ओर से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पार्टी से निष्कासित किये जाने की चिट्ठी टाइप करवा ली और उस पर पार्टी अध्यक्ष के दस्तख्वत भी करवा लिए। अखिलेश यादव भारी गले से 'पार्टी' के सभी सीनियर और जूनियर के आगे यही दुखड़ा रोते रहे कि ''नेताजी को यह सब करने की क्या ज़रुरत थी? उन्होंने ही हमें इस कुर्सी पर बैठाया था, वही बुलाते और कह देते कि नीचे उतरो तो क्या एक भी सेकेण्ड लगाने की हमारी औक़ात थी?'' उनके इस वाक्य ने सभी को जीत लिया।
बाद में मुलायम सिंह यादव का अपनी ही पार्टी में जो हश्र हुआ, सभी को मालूम है। अमरसिंह 'हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे' साबित हुए। यदि सपा से मुलायम और अमर दोनों नहीं निकाल फेंके गए होते तो कब अमरसिंह मुलायम सिंह यादव के साथ सपा को भाजपा की गोद में ले जाकर बैठा देते इसे कोई नहीं जानता। मुलायमसिंह में इतनी समझ भी नहीं बची थी कि वह याद रख पाते कि भाजपा विरोध ही तो उनकी पार्टी का 'डीएनए' है। अमरसिंह का समयगत मूल्यांकन करने वाला एक ही शख्स निकला और उसका नाम है- अमिताभ बच्चन।
बहरहाल अमर सिंह न अमर थे, न हैं न रहेंगे। ऐसे लोग क्षणभंगुर होते हैं, क्षणभंगुर ही रहेंगे। कुछ ही दिन बाद उन्हें कोई ढेले भर भी याद नहीं रखेगा। वे भी नहीं, जो आज उनके जाने पर टसुए बहा रहे हैं। जिस तरह अमरसिंह बुलंदी को छूकर पाताल में धंस गए, आने वाले समय में अधिकृत और अनधिकृत दलाली का भी वैसा ही हश्र होगा और पाताल में धंस जाएगा उन्हें पैदा करने वाला सिस्टम।