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भूख से बेहाल वंचितों के लिए आंबेडकर अब भी बने नजीर
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ऐसे दौर में जबकि पूरी दुनिया कोरोना वायरस से एक जंग लड़ रही है, बाबा साहब अंबेडकर, उनके विचार और उनका जीवन और भी प्रासंगिक हो जाता है. इसकी पहली अहम वजह यह है कि जिस दलित, ग़रीब, मज़दूर और भूमिहीन किसान के लिए उन्होंने लड़ते हुए पूरा जीवन बिता दिया, वह आज इस कोरोना संकट के दौर में दोहरी मुश्किल का सामना कर रहा है.ग़रीबों के सामने ख़ुद को और अपने परिवार को भूख की मार से बचाने की मुश्किल है. उसे अपने रहने के इंतज़ाम, जीवन की दूसरी परिस्थितियों से जूझने के अलावा सरकार की तरफ़ से जारी होने वाली स्वास्थ्य संबंधी हिदायतों का पालन करने जैसी मुश्किलें आ रही हैं.
संक्रमण का सबसे बड़ा ख़तरा ग़रीबों पर
अपनी कमज़ोर स्थिति के चलते ग़रीब और समाज के हाशिए पर मौजूद तबक़ा कोरोना से संक्रमित होने के सबसे बड़े जोख़िम से जूझ रहा है. इसके बावजूद उसके लिए इससे बचने की जंग सबसे कठिन है.बाबा साहब अपने आलेखों में बार-बार इस तबक़े की रिहायश वाली जगहों, वहां की साफ़-सफ़ाई और हाइजीन के बुरे हालातों, ग़रीबी के चलते कई तरह की स्वास्थ्य और जीवन संबधी जोखिमों की बारे में विचारते और सावधान करते रहते थे. बाबा साहब हमारी राज्य व्यवस्था को हर क्षण यह ताकीद करते रहे हैं कि समाज के ऐसे मजबूर तबक़ों को हर तरह से सुरक्षा और सहयोग देना राज्य और समाज की ज़िम्मेदारी है.
संविधान में मिला हक़
भारत के संविधान का आर्टिकल-21 हर एक नागरिक को स्वस्थ और सम्मानपूर्ण जीवन देने का वादा करता है. बिना स्वास्थ्य एवं सम्मानपूर्ण जीवन के हम 'अधूरी नागरिकता' की स्थिति में जीते हैं. दलित एवं ग़रीब, श्रमिक एवं भूमिहीन तबक़ों की नागरिकता 'स्वास्थ्य सुरक्षा' के बिना अधूरी है. ये ग़रीब न केवल भारत बल्कि अमरीका, यूके, जर्मनी और इटली जैसे विकसित मुल्कों में भी सड़क के किनारे कैंपों में, छोटे सी ख़ोली जैसी जगहों में एक साथ रहने को मजबूर हैं. इन लोगों के पास न संक्रमण से बचने की सलाह पहुंच रही है और न ही मास्क, सैनेटाइज़र, साबुन, जैसे साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं. हालत यह हो गई है कि पश्चिमी मुल्कों में कई जगहों पर भीख मांगकर जीवनयापन करने वाले कई लोग पैसे की जगह 'सैनेटाइज़र' मांगने लगे हैं.
बेघर ख़ुद को कैसे करें सुरक्षित
ज़्यातादर लोगों के पास घर नहीं हैं. भारत में यह स्थिति और भी ज़्यादा ख़राब है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में 17.7 करोड़ लोगों के पास घर नहीं है. यानी हमारी जनसंख्या का 0.15 फ़ीसदी हिस्सा बेघर है. हमारे शहरी जीवन की स्लम में रहने वाली क़रीब 17 फ़ीसदी आबादी भी कोरोना संक्रमण के लिए सॉफ्ट टारगेट होने के कारण उससे बचने के लिए जद्दोजहद कर रही है.
प्रवासी मज़दूरों, असंगठित सेक्टर के कर्मचारियों और दिहाड़ी मज़दूरों की एक बड़ी संख्या इस कोरोना वायरस के संक्रमण के लिए बेहद असहाय है और जोख़िम भरे हालात में जीने को मजबूर है. दूसरी महत्वपूर्ण प्रासंगिकता बाबा साहेब आंबेडकर की आज यह है कि उन्होंने दलितों और ग़रीबों को एक सम्मानित जीवन देने की लड़ाई लड़ी थी. उनके इस संघर्ष के परिणामस्वरूप इन वर्गों का एक भाग तो लाभान्वित हुआ है, लेकिन इस लॉकडाउन की स्थिति में उनकी 'मानवीय देह' मात्र एक 'बायोलॉजिकल देह' में बदल गई है. उनकी देह का मानवीय सम्मान इस संकट की स्थिति में हमने ख़त्म होते देखा है. वे पैदल, भूखे 400-500 किलोमीटर की यात्रा करने को मजबूर हुए. उन्हें कई जगह प्रशासन द्वारा अत्यंत छोटी जगह में एक साथ लोहे के गेट में बंद कर दिया गया.
शहरों में अमानवीय जीवन जीने को मजबूर ग़रीब
बाबा साहब आंबेडकर ने दलितों और ग़रीबों को गांवों से निकल शहरों में माइग्रेट करने का सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था कि दलितों और मज़दूरों का शहरों में प्रवास उनके लिए सामंती शोषण, जाति व्यवस्था की क्रूरता और जीवन में नया परिवर्तन लाने वाला साबित होगा. ऐसा हुआ भी. भारतीय गांवों से दलितों और मज़दूरों की एक बड़ी आबादी रोज़ी-रोटी और मानवीय सम्मान की चाह में शहरों की ओर भागने लगी.