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खबरदार ! मोदी सरकार, बाजी पलट सकते हैं बेरोजगार!

Special Coverage News
1 March 2019 4:40 AM GMT
खबरदार ! मोदी सरकार, बाजी पलट सकते हैं बेरोजगार!
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योगी आदित्य नाथ, रविशंकर प्रसाद, स्मृति इरानी व हुक्मदेव नारायण यादव सरीखे कट्‌टर गैर कांग्रेसी नरेंद्र दामोदर दास मोदी की खूबियों के लाख कसीदें पढ़ लें, लेकिन ऑक्सफैम की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के संदर्भ में पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल की बगैर समीक्षा किये बेरोजगारी को नेस्तनाबूद करने के भारत के सपने कभी साकार नहीं होंगे।

प्रो. दिग्विजय नाथ झा

राह में मुझे से जुदा हो गयी सूरत मेरी
रास्ते में मेरे कदमों के निशां भी होंगे।
हो जो मुमकिन तो उन्हीं से
मेरे आगाज की तारीख सुनो।

मशहूर शायर फरहत एहसास से उधार ली गयी इन चंद पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं कि चुनावों की प्रतिस्पर्द्घा राजनीति में दूरदर्शिता एवं दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा अत्यंत ही पहली है और इसीलिए संभवत: राजनेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं तथा चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं। हो सकता है कि देश के मौजूदा प्रधानमंत्री बाबू नरेंद्र दामोदार दास मोदी हमारी राय से सहमत न हों, पर आधुनिक समाज ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है और हम कतई भी इससे सहमत नहीं है कि गत 9 जनवरी, 2019 को लगभग नौ घंटे तक चली लंबी बहस के बाद महामहिम की सहमति हेतु राज्य सभा में पारित 124वां संविधान संशोधन विधेयक ाधुनिक भारतीय समाज की तमाम ख्वाहिशें पूरी करने में सक्षम है।


इसे भारत की बदकिस्मती ही कहेंगे कि निर्धनता के कारणों की बिना कारगर पड़ताल किये और बेरोजगारी के प्रमाणिक सरकारी आंकड़े को बगैर सार्वजनिक किये केंद्र की एनडीए सरकार ने गत 7 नवंबर, 2019 को सामान्य वर्ग के निर्धनों को सरकारी नौकरियों एवं उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला कर लिया तथा गरीबी उन्मूलन के रामबाण औषधि सरकारी नौकरियों को करार दिया और आश्चर्यजनक तो यह कि गत 8 नवंबर 2019 को लोकसभा व 9 नवंबर, 2019 को राज्यसभा ने गरीबी उन्मूलन के रामबाण औषधि की केंद्र सरकार की पड़ताल की जोरदार सराहना करते हुए सामान्य वर्ग के निर्धनों को दलितों के पर्याय करार देने के पीएम के फैसले को सामाजिक न्याय आंदोलन की अभिव्यक्ति करार दिया और भारत की कुल संपदा के 77 फीसदी हिस्से पर महज नौ फीसदी भारतीयों के कब्जे को मूवमेंट आफ सोशल जस्टिस की परिधि से बाहर कर दिया।


काश! सामाजिक न्याय के कथित पक्षधरों ने कभी 77 फीसदी भारतीय संपत्तियों पर महज नौ फीसदी लोगों के अधिकार में सरकारी नौकरियों की भूमिका की ईमानदार पड़ताल की होती तो आरक्षण की सामाजिक अहमियत की देश में धज्जियां उड़ गयी होती और बेरोजगार आरक्षण नीति के पुरोधाओं के पुतले का सरेआम दहन करते दिल्ली के रामलीला मैदान में दिखते तथा गौरवान्वित महसूस करते। यहां यक्ष प्रश्न है कि आरक्षण की मौजूदा सरकारी नीति क्या आर्थिक तौर पर भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाने की कुव्वत से लैस है और किसी ने किसी आर्थिक समृद्घि में आरक्षण की भूमिका की पड़ताल की है तथा इसके प्रमाणिक दस्तावेज संसद में है? सरकारी संस्थानों में गरीबों के आरक्षण देने के सरकार के फैसले पर सांसदों की चौंकाने वाली सहमति पर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया आनी अभी बाकी है, पर 124वां संविधान संशोधन विधेयक के न्यायिक भविष्य को समझने के लिए ज्योतिषाचार्य होने की जरूरत नहीं है।


इसे महज संयोग ही कहेंगे कि भारत में बेरोजगारों की तादाद में हुई चौंकाने वाली की जरूरत नहीं है। इसे महज संयोग ही कहेंगे कि भारत में बेरोजगारों की तादाद में हुई चौंकाने वाली बढ़ोतरी के आंकड़े जिस दिन सेंटर फार मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने सार्वजनिक किये, उसी दिन सामान्य वर्ग के निधनों को सरकारी संस्थानों के जरिए रोजगार के क्षेत्र में विशेष प्राथमिकता देने के फैसले नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नेतृत्ववाली एनडीए की सरकार ने किये। यकीन मानिए! पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं की तिकइमबाजी है और फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है, जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं, अन्यथा इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भारत में वर्ष 2015 के बाद बेरोजगारों की संख्या में हुई अभूतपूर्व बढ़ोतरी के प्रमाणिक आंकड़ों को सार्वजनिक करने से वर्ष 2019 में कतरा रहे हैं, बावजूद इसके कि वर्ष 2013 में बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार उन्होंने देश में सरेआम सालाना दो करोड़ रोजगार सृजन करने के सपने बांटे थे।


लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था के पैरोकार भले अभिव्यक्ति की आजादी से भारतीय नेताओं के बड़बोलेपन को जोड़ रहे हैं, लेकिन हम जैसे अल्पशिक्षित भारतीय जन लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था को अपवित्र बनाने की कोशिश के तौर पर राजनेताों के बड़बोलेपन को देख रहे हैं और इससे कतई भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अमेरिका में वोटरों ने नेताओं के बड़बोलेपन के खिलाफ इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ही जनअभियान आरंभ कर दिया था, लेकिन भारत में नेताओं के मनमाने बयानों की तासीर परखने का प्रचलन इसलिए जड़े नहीं पकड़ पाया कि इस हमाम में कपड़े न पहनने की खायत सभी सियासी दलों ने मिलकर बनायी है।


लेकिन अब मौका भी है और साधन भी, जिनके जरिए भारत में भी नेताओं के लिए कुछ भी बोल-बताकर बच निकलने के रास्ते बंद किये जाने चाहिए। इससे पहले कि नरेंद्र दामोदर दास मोदी केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार को एक और कार्यकाल देने की मतदाताओं से गुजारिश करें, यह हकीकत हमारे सामने है कि 7 जनवरी, 2019 को भारत में बेरोजगारी की दर पंद्रह सालों के सबसे ऊंचे मुकाम 7.4 फीसदी पर पहुंच जाने के खुलासे सेंटर फॉरमॉनीटरिंग इंडियन इंडियन इकोनामी ने किये हैं और भारतीय रेलवे ने वर्ष 2018 के प्रारंभ में जब ग्रुप सी एवं ग्रुप डी के नब्बे हजार पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किया तो उसे 2 करोड़ 37 लाख 34 हजार 833 आवेदन मिले। इसी तरह मुंबई में 1137 पुलिस कांस्टेबल के रिक्त पदों पर नियुक्ति के लिए 2 लाख एक हजार 311 उम्मीदवार प्रतिस्पर्द्घा कर रहे थे, जबकि तेलंगाना की सरकार ने ग्राम राजस्व कर्मचारी के सात सौ पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किया तो उसे 10 लाख 58 हजार 291 आवेदन मिले और संदेशवाहक के महज 62 पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय ने जारी किया तो उसे 93 हजार 42 आवेदन मिले तथा हद तो यह कि लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश राज्य सचिवालय ने चपरासी के 368 पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किया तो उसे 23 लाख 06 हजार 756 आवेदन मिले।


हतप्रभ करने वाली हकीकत तो यह है कि ग्वालियर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में चपरासी के रिक्त पड़े 57 पदों पर नियुक्ति के लिए 60 हजार 784 नौ जवानों ने आवेदन कर रखा है, जबकि छत्तीसगढ़ की सरकार ने चपरासी के सिर्फ 30 पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किया तो उसे 75 हजार 142 आवेदन मिले और जयपुर स्थित राजस्थान राज्य सचिवालय ने चपरासी के 350 पदों पर भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किया तो उसे 1 लाख 50 हजार 944 आवेदन मिले। डेनमार्क के विख्यात दार्शनिक सोरेन अबाये कीर्केगार्ड ने एक बार कहा था कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं-एक कि जो सच नहीं है उस पर विश्वास किया जाए और दूसरा कि जो सच है उस पर विश्वास न किया जाए। यद्यपि, सरकारें रोजगार नहीं दे सकती तथा आरक्षण की भारत की संवैधानिक व्यवस्था भारतीयों को आर्थिक तौर पर कतई भी ात्मनिर्भर बनाने की कुव्वत से लैस है और यह बात हमेशा से उतनी ही सच है जितना सच यह तथ्य कि वर्ष 1991 से 2015 के बीच अधिकांश नये रोजगार बाजार और डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक उदारीकरण की नीति से आये, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विकास की पंडित जवाहर लाल नेहरू की परिकल्पना एवं कृषि आधुनिकीकरण की लालबहादुर शास्त्री की नीति से भारत में 1952 से 1972 बीच रोजगार के अवसर बढ़े । हतप्रभ करने वाली हकीकत यहां तक है कि जून 2014 से जनवरी, 2019 के बीच के 56 महीने में भारत की जी.डी.पी. ग्रोथ रेट केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के मुताबिक औसतन सात फीसदी के आसपास आंकी गयी है, पर इसी अवधि में हिंदुस्तान के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की नौकरियों में 35 फीसदी एवं कृषि क्षेत्र के रोजगारों में 25 फीसदी की अभूतपूर्व गिरावट आयी है और सर्वाधिक शर्मनाक तो यह है कि जून 2014 से जनवरी 2019 के बीच प्रतिदिन 29 हजार 500 भारतीयों को रोजगार के मौके मयस्सर नहीं हुए, जबकि वर्ष 1952से 1972 के बीच भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट औसतन तीन फीसदी के आसपास थी ौर देश में रोजगार में सालाना बढ़ोतरी का आंकड़ा दो फीसदी के ऊपर था तथा मोदी जी के मौजूदा प्रधानमंत्रित्वकाल में यह आंकड़ा 0.4 फीसदी के नीचे है और सरजी के चेहरे पर तनिक भी सिकन नहीं है तो मुझे भी यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि वर्ष 2014 का संसदीय चुनाव महज नरेंद्र मोदी के लच्छेदार भाषणों का मुखर उत्सव ही था, पर बदकिस्मती से तकनीक हर कदम पर उनके साथ थी और यही तकनीक इन दिनों उनके बोले वचनों पर सवाल खड़े कर रही है।


इसे भारतीय राजनीति की मर्यादा में आयी अभूतपूर्व गिरावट का पराकाष्ठा ही कहेंगे कि वर्ष 2019 के 1 जनवरी को पीएम से पूछे गये एशियन न्यूज इंटरनेशनल की एडिटर इन चीफ स्मिता प्रकाश से सवालों पर ही कांग्रेस सुप्रीमो ने सवाल खड़े कर दिये बावजूद इसके कि द हिंदू सरीखे अति प्रतिष्ठित अखबार के पूर्व एडीटर-इन-चीफ एन राम की मौजूदगी में एनडीटीवी पर एक डिबेट के दौरान खुद को अरविंद केजरीवाल की राह पकड़ने से इनकार करते हुए वर्ष 2018 में स्मिता प्रकाश बार-बार दोहरायी थी कि मोदी की मुखालिफत कतई भी नहीं पत्रकारिता की संतुलित संचरना के अनुकूल है। हालांकि वर्ष 2018 के स्मिता प्रकाश के वचन पर तो देश की मीडिया संस्थानों ने कभी कोई सवाल खड़े नहीं किये, पर वर्ष 2019 के पहले दिन का पीएम का 95 मिनट का इंटरव्यू अखबारों में आम तौर पर चार कॉलम का जगह नहीं हासिल कर सकीं।


मैडम स्मिता! घटते रोजगार के अवसरों को लेकर सरकार के समक्ष सवाल खड़े करना यदि पत्रकारिता की सुंलित संरचना के अनुकूल नहीं है, तो हालिया राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजे पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया से देश को अवगत कराने के औचित्य भी सवालों के घेरे में है। बहरहाल, इसे तो विडंबना ही कहेंगे कि 500 और 1000 के नोटों को निष्प्रभावी करार देने के 8 नवंबर, 2016 के पीएम के एलान के बाद केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अधीन कार्यरत लेबर ब्यूरो ने रोजगार की गणना ही बंद कर दी है और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन रोजगार विहीन विकास के आंकड़े को सर्वाधिक तवज्जो देने में लगी है, जबकि प्रधानमंत्री के इकोनॉमिक एडवाइजरी काउंसिल 8 नवंबर, 2016 की आधी रात के बाद भारत में रोजगार के अवसरों में आयी अभूतपूर्व गिरावट के अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के स्टेट आफ वर्किंग इंडिया, सेंटर फॉरमॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी, संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन, वर्ल्ड बैंक व साउथ एशिया इकोनॉमिक फोकस के प्रमाणिक दावे से इत्तेफाक नहीं रखती है, बावजूद इसके कि वर्ल्ड बैंक की वर्ष 2018 की रिपोर्ट में जॉबलेस ग्रोथ को भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद ही खतरनाक करार दिया गया है और सेंटर फॉरमॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि नवंबर 2016 में नोट बंदी का कदम उठाये जाने के बाद भारत के असंगठित क्षेत्रों में वर्ष 2014 के मुकाबले वर्ष 2018 में एक करोड़ 27 लाख 33 हजार 381 नौकरियां घट गयीं।


केंद्रीय कॉर्पोरेट मंत्रालय की वर्ष 2018 की रिपोर्ट कहती हैं कि 10 नवंबर, 2016 से 31 दिसंबर, 2018 के बीच 5 लाख 38 हजार 143 कंपनियां बिजनेस न मिलने की वजह से भारत में बंद हो चुकी है। केंद्रीय कॉर्पोरेट मंत्रालय का तर्क है कि भारत में रजिस्टर्ड अधिकतर कंपनियां राजस्व प्रावधानों की अनदेखी कर रही है, जबकि कारोबारियों की दलील है कि 8 नवंबर, 2016 की आधी रात के बाद से अब तक भारतीय बाजारों में रौनक नहीं लौटी है तथा व्यापार व रोजगार सरकार की प्राथमिकता सूची से पूरी तरह बाहर है और वर्ष 2016 एवं 2017 की आधीरात के कुल दो फ्रॉड फैसले की वजह से बीते 27 महीनों में ट्रेडर सेगमेंट में 43 फीसदी, माइक्रोसेक्टर में 32 फीसदी, स्मॉल सेगमेंट में 35 फीसदी तथा मिडियम सेक्टर में 24 फीसदी, नौकरियां चली गयी। मौजूदा पीएम के पूर्व चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अरविंद सुब्रह्मण्यम ने स्वयं ही सरेआम स्वीकार किया है कि नोटबंदी की वजह से भारत में रोजगार की रफ्तार बिल्कुल ठहर-सी गयी है, परंतु मोदी सर को कौन समझाये?


संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन की हालिया रिपोर्ट चीख-चीखकर बयां कर रही है कि भारत में 18 से 40 आयु वर्ग बेरोजगारों की तादाद 11 करोड़ 30 लाख के आसपास है और 8 नवंबर, 2016 की आधी रात के बाद से देश के अनौपचारिक क्षेत्रों में प्रतिदिन औसतन 550 नौकरियां खत्म हो रही है, पर नरेंद्र मोदी सर की दलील है कि पकौड़ा बेचने वाले भारतीयों के तादाद के खुलासे संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन ने अब तक नहीं किये हैं। जबकि 22 जनवरी, 2019 को स्विटजरलैंड के रिजॉर्ट शहर दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में पेश की गयी वर्ष 2018 की ऑक्सीफैम की रिपोर्ट चीख-चीखकर बयां कर रही है कि 500 व 1000 के नोटों की वैधता को निरस्त करने के 8 नवंबर, 2016 की आधी रात के पीएम के फैसले के बाद भी भारत की पचास फीसदी गरीब आबादी की संपत्ति के बराबर भारत के शीर्ष नौ अमीरों की संपत्ति है और भारत के अरबपतियों की संपत्ति में प्रति दिन 2200 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है तथा दस फीसदी सर्वाधिक गरीब भारतीय पिछले पंद्रह सालों से सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं और गरीबों के प्रति केंद्र की मौजूदा एनडीए की सहानुभूति नरेंद्र दामोदर दास मोदी सर के लच्छेदार भाषणों तक सीमित है। भाजपा इस मुगालते में बिल्कुल भी नहीं रहे कि 124 वें संविधान संशोधन विधेयक ने रोजगार के इंतजार की युवाओं की धड़ियां खत्म कर दी है।


कितनी शर्मनाक बात है कि न्यू इंडिया का मोदी मंत्र भी बीते छप्पन महीनों में देश के 978 सरकारी एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज पर कोई प्रभावकारी असर नहीं डाल सका और आज की तारीख में देश के 978 सरकारी एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज में रजिस्टर्ड भारतीय बेरोजगारों की तादाद 4 करोड़ 82 लाख 61 हजार 179 है, बावजूद इसके कि केंद्र व राज्य के विभिन्न सरकारी प्रतिष्ठानों में सरकारी कर्मियों के तकरीबन 29 लाख पद बीते छप्पन महीनों में से अधिक समय से खाली पड़े हैं और महत्वपूर्ण ये भी है कि केंद्र सरकार के जिन प्रतिष्ठानों में पद खाली पड़े हैं उनमें 55 हजार 198 पद सैनिकों के रिक्त पद हैं, जबकि सीवीसी और सीबीआई में 22 फीसदी तथा प्रवर्तन निदेशालय व आयकर विभाग में 64 फीसदी पद रिक्त पड़े हैं। केंद्र सरकार के शिक्षा व स्वास्थ्य महकमों में 20 से 50 फीसदी तक पद खाली हैं। राज्यों के प्राइमरी व अपर प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों के 10 लाख 794 पद रिक्त पड़े हैं, जबकि पुलिस महकमों में कांस्टेबल के 5 लाख 49 हजार 25 पद इन दिनों खाली हैं।


सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में खाली पड़े 1 लाख 22 हजार 614 पद राज्यों के हुक्मरानों के लिए चिंता का सबब नहीं बनी हुई है। 6 हजार 719 पद आईआईएम और एनआईटी में रिक्त पड़े हैं। देशक े 47 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 6310 पद बीते 56 महीनों से खाली पड़े हैं, जबकि विगत 70 महीनों से 63194 पद राज्यों के 363 विश्वविद्यालयों में रिक्त पड़े हैं। सर्वाधिक शर्मनाक तो यह है कि पीएम साहब ायुष्मान भारत का सपना देख रहे हैं, पर राज्यों के तकीरबन 36 हजार सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्यकर्मियों के लगभग 2 लाख से अधिक पद इन दिनों खाली पड़े हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि आयुष्मान भारत योजना की कामयाबी के लिए न्यूनतम एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर आवश्यक है, जबकि भारत में इन दिनों 11 हजार की आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। सरकारी प्रतिष्ठानों में रिक्तियों को लेकर सत्ताधारी दलों की उदासीनता का आलम यह है कि देश के आयुध निर्माण कारखानों तक में इन दिनों 14 फीसदी टेक्निकल एवं 44 फीसदी नॉन टैक्निकल पद खाली पड़े हैं।


वाकई हम हतप्रभ हैं कि वर्ष 2013-14 में जो पार्टी भारत के युवा होने पर सर्वाधिक गर्व कर रही थी, उसी पार्टी की सरकार के चौखट पर युवाओं के सपने इन दिनों दम तोड़ रहे हैं और हालात है कि दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटी की कतार से भारतीय विश्वविद्यालय इन दिनों बाहर है व दुनिया भारतीय स्नातकों की योग्यता पर लगातार सवाल खड़े कर रही है और अभी हाल ही में एस्पाइरिंग माइंड्‌स की नेशनल एम्प्लाबिलिटी की रिसर्च में यह खुलासा हुा है कि भारत में इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट व मेडिकल की डिग्री रखने वाले स्नातकों में से 80 फीसदी रोजगार के काबिल नहीं हैं, जबकि मशहूर फेसबुक पेज ह्यूमंस ऑफ बाम्बे को चंद दिनों पूर्व दिये इंटरव्यू में मोदी सर ने भारतीय युवाओं को जंगलों में जाकर आत्मनिरीक्षण करने की सलाह दी है। इससे पहले कि आगामी अप्रैल महीने में तपती धूप और गर्म हवाओं के बीच खौलता हुआ असंतोष मतदान केंद्रों पर फट पड़े मोदी जी को केंद्र की एनडीए सरकार की विफलताओं पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। अन्यथा, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि बीते 56 महीनों में देश में रोजगार कहां गये, बावजूद इसके कि देश में आयकरदाताओं की तादाद बढ़ी है, राजस्व बढ़ा है, तमाम महकमों में व्यय घाटा है, सार्वजनिक और विदेशी निवेश में खासी बढ़ोतरी हुई है, पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्‌यूटी में 126 प्रतिशत की 56 महीनों में हुई बढ़ोतरी से केंद्र की एनडीए सरकार को 10 लाख 784 करोड़ रुपये की अधिक कमाई हुई है, और प्रत्यक्ष लाभ ट्रांसफर से 57 हजार करोड़ रुपये सालाना बचत करने के सरकार ने दावे किये हैं।


योगी आदित्य नाथ, रविशंकर प्रसाद, स्मृति इरानी बहुक्मदेव नारायण यादव सरीखे कट्‌टर गैर कांग्रेसी नरेंद्र दामोदर दास मोदी की खूबियों के लाख कसीदें पढ़ लें, लेकिन ऑक्सफैम की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के संदर्भ में पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल की बगैर समीक्षा किये बेरोजगारी को नेस्तनाबूद करने के भारत के सपने कभी साकार नहीं होंगे। कितनी लज्जाजनक स्थिति है कि बीते 56 महीनों में भारत में विनिर्माण क्षेत्र में 90 फीसदी मजदूरों को न्यूनतम वेतन से भी नीचे की मजदूरी का भुगतान किया गया है, जबकि महिला कामगारों में 92 फीसदी व पुुरुष कामगारों में 82 फीसदी की मासिक तनख्वाह इंडिया में इन दिनों 10 हजार रुपये से भी कम है और वर्ष 2018 की ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के टॉप एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति पर महज एक फीसदी का अतिरिक्त टैक्स लगा दिया जाए तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत पूरी दुनिया में शीर्ष पर होगा। केवल यह सोचकर कि अमीरों पर अतिरिक्त टैक्स लगाने से निवेश को धक्का लगेगा, सरकार को हिचकना नहीं चाहिए। नरेंद्र मोदी स्वयं सौ फीसदी वाकिफ होंगे कि आजादी के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने सर्वप्रथम राजा रजवाड़ों की तिजोरी को ही जब्त किया था और उससे समाज कल्याण व विकास के कार्य किये थे तथा अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रजवाड़ों की अधिकांश जमीनों को भारतीय भूमिहीनों में बांट दिया था। सच को स्वीकार कीजिए अमित शाह सर!

चिराग देखकर बहुत मचल रही है हवा,

कई दिनों से बहुत तेज चल रही है हवा,

जो बना रहे हैं नक्शे उनकी तबाही के,

उन्हेंखबर नहीं कि रुख बदल रही है हवा।


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