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जान चुनें या जहान, लाचार सरकार ने फैसला हम पर छोड़ा!

जान चुनें या जहान, लाचार सरकार ने फैसला हम पर छोड़ा!
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जान है तो जहान है....भारत में न जाने कब से इसी कहावत के जरिए यह माना जाता रहा है कि जब जान पर बन आए तो सब कुछ भूल कर पहले जान बचाने को ही प्राथमिकता देनी चाहिए. फिलहाल देश में ऐसे ही हालात बन चुके हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि जिस-जिस को अपनी जान प्यारी है , वह कोरोना की वैक्सीन मिलने तक इस जहान को भूल कर अपने घर में ही दुबका रहे तो बेहतर होगा...

बड़ी तादाद में लोग भी अब यह समझ चुके हैं कि यह साल कमाने- खाने की चिंता करने का नहीं बल्कि अपनी व परिजनों की जान को कोरोना से सुरक्षित रखने की सावधानी बरतने का साल है. हालांकि दुर्भाग्य से भारत में ज्यादातर, या यूं कह लें कि लगभग पूरी जनता ही पापी पेट के लिए मजबूर होकर लॉक डाउन खत्म होते ही वापस काम- धंधे पर लग जाएगी. इसलिए देश की जनता से यह अपील करना फिजूल ही है कि अपनी जान बचाने के लिए इस साल तो वह कम से कम अपने अपने घरों में रहे. जहान यानी काम धंधा दरकिनार कर देश की जनता की जान बचाने के मकसद से 24 मार्च से शुरू में 21 दिन का लॉक डाउन लगाने और फिर बाद में इसे 3 मई तक और बढ़ाने वाली भारत सरकार भी तो अब यह जान ही चुकी है कि लंबा लॉक डाउन कोरोना से तो जनता की जान शायद बचा भी ले मगर फिर भूख या अन्य वजहों से उसकी जान खुद सरकार भी नहीं बचा पाएगी.

क्या देश और दुनिया का ऐसा बुरा हाल अगले साल तक या उसके आगे भी रहेगा? दुर्भाग्य से इसका जवाब तो फिलहाल दुनिया में शायद किसी के पास नहीं है. लेकिन वैक्सीन के इंतजार में कम से कम यह साल तो इसी तरह बीत जाने की आशंका पर लगभग सभी एकमत हैं. क्योंकि अगर किसी देश में वैक्सीन अगले एक - दो महीने के भीतर भी खोज ली गई तो भी इसकी उम्मीद न के बराबर है कि वह भारत में हर आम आदमी तक इसी साल पहुंच जाए.

यानी यह भी जाहिर सी बात है कि कोरोना के इस अदृश्य खतरे के दौर में खुद को व परिवार को केवल तभी सुरक्षित रखने की उम्मीद की जा सकती है, जब इंसान सेल्फ लॉक डाउन अपना ले. यानी लॉक डाउन खत्म भी हो जाए तो भी अपनी ही तरफ से खुद को व परिवार को इसी तरह अपने घर में कैद रखकर वह बस खाने- सोने और परिवार के साथ समय बिताने को अपनी जिंदगी समझे. वरना बाहर जिस तेज रफ्तार से कोरोना फैलता जा रहा है, वह लॉक डाउन खत्म होने के बाद क्या कहर बरपा सकता है, इसका अंदाजा तो अब कोई बच्चा भी लगा ही लेगा.

सोचिए, अगले एक - दो दिनों में ही भारत में कुछ रूट पर ट्रेन फिर से चलने लगेंगी. छिटपुट कारोबार और कामकाज तो पहले ही शुरू हो चुका है. जल्द ही लॉक डाउन खत्म करके सरकार बस, ट्रेन, हवाई जहाज तो चलाएगी ही , साथ ही हर तरह के कामकाज को भी जल्द से जल्द कुछ शर्तों के साथ शुरू कर ही देगी. लेकिन सबको पता है कि शर्त तो यहां फिर कागजों पर ही रह जाएगी और जीवन पहले की तरह बदस्तूर चल निकलेगा. भले ही फिजा में हर तरफ कोरोना का वायरस मौत बनकर यूं ही मंडराता रहे.

कौन नहीं जानता कि इस वक्त कोरोना पर ही सारा मेडिकल अमला लगा देने के कारण किसी भी छोटी बड़ी बीमारी का इलाज अब हमारे देश की मेडिकल प्रणाली आम लोगों को मुहैया नहीं करा पा रही हैं.... और इसी के चलते अब कोरोना से कम , अन्य बीमारियों में इलाज न मिल पाने से देश में ज्यादा लोग मर रहे हैं. लेकिन यदि लॉक डाउन खत्म हुआ तो अन्य बीमारियों का इलाज न मिल पाने से मरने वालों की तादाद तो बढ़ेगी ही और कोरोना से मरने वालों की भी भरमार हो सकती है. ऐसे में भारत के हस्पताल या मेडिकल संसाधन दोनों ही मामलों में लोगों की मदद करने में लाचार साबित होने लगेंगे.

लेकिन विडंबना देखिए, हमारी सरकार को यह सब कुछ भली- भांति पता है. उसे यह भी पता ही होगा कि लॉक डाउन खत्म होने के बाद अगर कोरोना के हमारे देश में बड़े पैमाने पर फ़ैल जाने की स्थिति बनी और उससे बीमार होकर सैकड़ों या हजारों की तादाद में भी मरीज गंभीर दशा में पहुंचे तो लाचार मेडिकल तंत्र के चलते देश में चारों तरफ त्राहि माम की स्थिति आ जाएगी.

मगर लगता है कि अब सरकार भी विवश है इसलिए उसने जान और जहान में से क्या हमें चुनना है, इसका फैसला भी हम पर ही छोड़ दिया है. यह जानते हुए भी कि पेट की आग से मजबूर देश के अधिकांश लोगों के सामने वास्तव में दो नहीं बल्कि एक ही विकल्प है... और वह है कोरोना के कहर के बीच जान हथेली पर लेकर अपना व परिवार का पेट भरने की मुहिम में जुट जाना....

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

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