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वह भी 3 अक्तूबर 1977 दिन था यह भी 3 अक्टूबर, क्या सयोंग होगा कामयाब?

Shiv Kumar Mishra
6 Oct 2020 5:10 AM GMT
वह भी 3 अक्तूबर 1977 दिन था यह भी 3 अक्टूबर, क्या सयोंग होगा कामयाब?
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कांग्रेस ने 3 अक्तूबर 1977 दिन भी किया था जन आंदोलन

शकील अख्तर

उत्तर प्रदेश में बाजी पलट चुकी है! प्रियंका गांधी ने साबित कर दिया कि राज्य में असली विपक्ष वही हैं। कार्यकर्ता जिस बूस्टर डोज का इंतजार कर रहे थे वह उन्हें मिल गया। हाथरस जाते समय पुलिस की लाठियों के सामने जिस तरह प्रियंका आईं उसने लोगों को इन्दिरा गांधी की याद दिला दी। इन्दिरा की कई छवियां जनता के और खासतौर पर कांग्रेस के मन में स्थाई हैं। संघर्ष के दिनों की। 1977 की। जब पहली बार कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बाहर हुई थी। इनमें पहली छवि है इन्दिरा गांधी की हाथी पर बैठकर बेलछी जाने की। और दूसरी है उसी साल गिरफ्तारी के बाद दिल्ली से हरियाणा ले जाने का विरोध करते हुए रेल्वे क्रासिंग पर बनी पुलिया पर बैठ जाने की।

वह भी 3 अक्टूबर था। और यह भी 43 साल बाद का एक 3 अक्तूबर। इन्दिरा की पोती पुलिस की लाठियों के सामने आ गई। अपने कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए पुलिस की हमला करती लाठी को उसने अपने हाथों पर ले लिया। भारत की जनता के साथ राजनीतिक कार्यकर्ता को भी अपना नेता लड़ता हुआ ही पसंद आता है। बहुत प्रभावित करता है। राहुल गांधी का शांत और संयत व्यवहार अलग मानवीय गुणों से भरा हुआ है। मगर हमारे मन में घोड़े पर सवार एक हाथ से लगाम थामे और दूसरे से तलवार लहराती झांसी की रानी की छवि ही अंकित है। प्रियंका ने अपना यह रूप सायास नहीं गढ़ा है वे एक स्नेहिल मां, बहन, बेटी और नेता हैं।


मगर दादी इन्दिरा का असर उन पर इतना ज्यादा है कि किन्हीं खास मौकों पर जैसा वाजपेयी जी 1971 में कहा था कि इन्दिरा जी दुर्गा बन गईं, वैसे ही उनकी पोती भी उन्हीं तेवरों में आ जाती हैं। कम ही लोगों को मालूम होगा कि उनके नजदीक के कुछ लोग उनकी गैर मौजूदगी में उन्हें झांसी की रानी कहते हैं। और उनके सामने उन्हें संबोधन के लिए "भइयाजी" तो कहा ही जाता है।कांग्रेस को यूपी में तीन दशक से ज्यादा ऐसे ही किसी करिश्मे की तलाश थी। बिहार में भी है। वहां भी कांग्रेस इसी तरह चौथे नंबर की पार्टी बनी हुई है। मगर फर्क यह है कि यूपी नेहरू गांधी परिवार का घर है। इसलिए यहांचौथे नंबर की पार्टी होना उसकी कसक को और बढ़ा देता है। मगर अब स्थिति यह है कि कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी विधानसभा में तो है मगर सड़क पर वह मुख्य विपक्षी दल बन गई है। मायावती की बसपा तो कहीं नजर ही नहीं आ रही है। अखिलेश यादव की सपा की मौजूदगी भी खाली खानापूरी है। कांग्रेस जिस जज्बे के साथ यूपी से लड़ रही है वह बताता है कि इस बार विधानसभा चुनाव में वही भाजपा के मुकाबले होगी।

हाथरस में दलित की बेटी के साथ हुए भारी जुल्म के बाद लोगों को उम्मीद थी कि कम से कम इस मामले में तो मायावती घर से बाहर निकलेंगीं। लेकिन खुद को दलित की बेटी कहकर राजनीति करने वाली मायावती ने ट्वीट और बाइट के अलावा कुछ नहीं किया। इस बात को लेकर दलित खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं।


दलितों की एकजूटता की वजह से ही मायवती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं। मगर अब दलितों का मोहभंग हो गया है। वे कांग्रेस की तरफ वापस मुड़ सकते हैं। प्रियंका में उन्हें उम्मीद कि किरण दिखाई दे रही है। अगर ऐसा होता है तो उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण जो बिल्कुल फैंस पर बैठा है वह भी अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस की तरफ वापस आ सकता है।

और सबसे बड़ा धमाका, नया इतिहास होगा यूपी में यादवों का कांग्रेस के साथ आना। पिछले साढ़े तीन सालों में यादवों को बहुत घेरा गया। इससे पहले कभी यादव इतना निरूपाय नहीं हुआ था। तीस साल पहले जब उसने यूपी और बिहार कहीं सत्ता का स्वाद भी नहीं चखा था तब भी कृषि प्रधान जातियों में वह उत्तर भारत में सबसे बेहतर स्थितियों में था। कभी पुलिस या सरकार ने उसे टारगेट करके प्रताड़ित नहीं किया था। मगर इस बार तो मुख्यमंत्री रहे, सभ्य सुसंस्कृत अखिलेश यादव को टोंटी चोर जैसे घटिया आरोप झेलना पड़े। यादवों में बड़ा मैसेज यह गया कि अखिलेश न खुद को बचा पाए न हमें बचा पा रहे हैं। और फिर जब यूपी का यादव बिहार से अपनी तुलना करता है तो उसे और निराशा होती है। वहां लालू यादव जेल में हैं। मगर फिर भी यादव के नाम पर सामान्य यादवों पर अत्याचार नहीं किया जा सकता। एनकाउंटर का तो सवाल ही नहीं। ऐसे में यादव अपने विकल्प के बारे में सोच रहा है। और जहां तक मुसलमान का सवाल है उसे अब मायावती और अखिलेश से कोई उम्मीदें नहीं बची हैं। अखिलेश जब सत्ता में थे तभी मुजफ्फरनगर कांड हुआ था। और अखिलेश एवं मायवती दोनों में से कोई वहां गया तक नहीं था।



ऐसे में कांग्रेस के नेताओं की बांछें खिलना स्वाभाविक है। जैसे यूपी के बुंदेलखंड वाले इलाके में कहा जा रहा है " हौंसे फूले हम फिरत, होत हमाओ ब्याह! " लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि खाली प्रियंका और राहुल के संघर्ष से जनता उन्हें नहीं चुनने वाली। जनता उनकी निष्क्रियता भी देख रही है। जैसे प्रियंका बार बार आकर यूपी में आंदोलन करती हैं, वैसे आंदोलन कांग्रेस के नेता अपने अपने जिलों में क्यों नहीं करते? अभी डेढ़ साल बाद विधानसभा चुनाव होना हैं। कांग्रेस के नेताओं को हरा हरा दिखने लगा है। टिकटों के लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं। मगर कोई कांग्रेसी नेता अपने विधानसभा क्षेत्रों में धरना प्रदर्शन करता नजर नहीं आ रहा। एक प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को छोड़ दें तो बाकी राज्य का कोई नेता कहीं सक्रिय नहीं दिखेगा। कांग्रेसी सोचते हैं जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने गांव गांव की खाक छानकर सत्ता हमारे हमारे हाथों में रख दी थी वैसे ही इस बार प्रियंका दीदी कर देंगी। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि 2022, 2004 से बहुत अलग होगा। तब राजनीति में इतने बड़े दांव नहीं थे। इस तरह सांप्रदायिकता नहीं थी। जाति के सवाल इतने पैने नहीं हुए थे। अगर वे मेहनत नहीं करेंगे, कार्यकर्ताओं का विश्वास नहीं जितेंगे तो अकेली प्रियंका के भरोसे जनता का उनके साथ आना मुश्किल है। 2004 का अनुभव भी जनता के लिए बहुत अच्छा नहीं है। गांधी नेहरू परिवार के नाम पर उसने वोट दिया।

मगर दस साल तक जिन मंत्रियों और बड़े नेताओं ने सत्ता सुख लिया उन्होंने कभी जनता या कांग्रेस कार्यकर्ता का हाल नहीं पूछा। सोनिया गांधी ने सत्ता लाकर कांग्रेसियों के हाथों में रख दी थी। कांग्रेसियों ने समझा यह हमारा अधिकार है। वे सत्ता सुख में इतने मगन थे कि अपनी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की चेतावनी भी नहीं सुनते थे। सोनिया ने कम से कम तीन चार बार सार्वजनिक रूप अपने मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों से कहा कि जनता के बीच जाओ। कार्यकर्ताओं की सुनो। मगर किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। ये किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, सूचना का अधिकार, महिला बिल सब सोनिया की पहल पर हुआ। और सोनिया को अपनी पार्टी में ही इसके लिए कड़ी मशक्कत करना पड़ी। महिला बिल पर तो उन्होंने कहा कि मुझे मालूम है कि मेरी ही पार्टी के कुछ लोग इसके विरोधी हैं। मगर सारे अवरोधों के बावजूद वे लगीं रहीं। और मजे में डूबे कांग्रेसी जब वे अस्वस्थ थीं, अस्पताल में भर्ती थीं तो उन्हें ही गुट बनाकर ज्ञान दे रहे थे कि कांग्रेस कैसे चलाना है!

यह भयानक त्रासदी है। आज जब राहुल और प्रियंका हाथरस जाते हुए पुलिस की लाठियां खा रहे हैं, धक्के मारकर गिराए जा रहे हैं, प्रियंका के गिरहबान तक पुरूष पुलिसकर्मी का हाथ जा रहा है तो पत्र लिखने वाले उन 23 पत्र लेखकों का कोई पता नहीं है। उनमें से किसी ने अपने घर से बाहर बरामदे में निकलकर भी हाथरस पीड़िता के लिए एक नारा नहीं लगाया। यह कांग्रेस का यथार्थ है। जहां सत्ता सब चाहते हैं मगर संघर्ष करना कोई नहीं।

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